किसी मैगजीन मैं देवेन्द्र मल्होत्रा जी की ये पंक्तियाँ पढ़ीं थीं । चार पंक्तियों मैं देवेन्द्र जी ने जैसे ज़िन्दगी का सार कह दिया हो जबसे इसे पढा है तबसे ऐसा ही कुछ लिखने की ख्वाहिश है। देखिये कब पूरी होती है ---
दुःख
आओ
बैठो मेरे पास, कुछ दिन रहो
मुझे सहो
जैसे मैंने सहा, कभी कुछ कहा ?
-- देवेन्द्र मल्होत्रा
7 comments:
mast hai yaar...cudnt stop laughing bt on the same had getting envied by your posts and this post
sach mein yaar..awsome hai aur jaisa ki tumne mujhe bola tha galib jaisi gehrai hai ;)
सुन्दर! निरालाजी ने भी लिखा है न!
दुख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूं आज जो कही नहीं!
मुझे क्या पता यहाँ तक आ जाउंगा ..
क्या '' कुछ लिखने की ख्वाहिश '' पूरी हुई ?
सुन्दर !
दुःख दर्द
सदियों से बैठा ही था वो मेरे अंदर
मुझको भी सहता था वो
और चुप रहता था.
...कल कम्प्लेंट के मूड में था ये दर्द हमारा
कहता है चुपचाप कहाँ सहते थे मुझको
कितनी ग़ज़लें कह डालीं इक मेरे कारन.
@78880498695271170.0
बहुत सुंदर सलिल साहेब..
तो दर्द की भी सुनवाई कर ली गयी..
बहुतसुंदर, कभी दुख भी तो हमें सहे ।
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