Sunday, June 26, 2011

डर…

वो समय डरावना था। हालांकि डरावनी फ़िल्मों जैसा उसमें कुछ भी नहीं था। यहां तक कि उसके आस पास जो किताबें बिखरी रहतीं थीं वो भी किसी ऎसे जेनर में नहीं आती थीं जिसका डर से दूर दूर तक कोई नाता हो। दिन में घर में सूरज की रोशनी रहती थी। रात में बल्ब कमरों में दूधिया रोशनी बिखेरते थे। गर्मी में पंखा घूमता रहता था और उसके घूमने की आवाज भी डरावनी नहीं होती थी। यहाँ तक कि उन कमरों में ऎसी कोई तस्वीर भी नहीं थी जिन्हे गलती से देखकर डरा जा सके। फ़िर भी डर था…

 

डर जो आँखे बंद करने पर बगल में सरक आता था। आँखे खोलो तो सब वैसा ही होता था जैसा नींद लगने से पहले था। बंद करो तो लगता डर सा कुछ उसके ऊपर ही लेटा हो। आँखे खोलता तो सीने पर किताब होती। उसे उठाता और सर के आस पास बेड में बने हुये किसी भी खाने में डाल देता और फ़िर सो जाता। सपने आते जो पता होते कि सपने ही हैं फ़िर भी वो उनमें फ़ंसता जाता। एक सपने से दूसरे में, दूसरे से तीसरे में, एक भूलभुलैया सा वो उनमें भटकता रहता। वो सपने के भीतर ही छटपटाने लगता, भागने की कोशिश करने लगता, हाँफ़ने लगता जबकि उसके जागते हुये भीतर को पता होता कि ये एक सपना ही है, असल में वो बिल्कुल नहीं हाँफ़ रहा, वो तो आराम से सो रहा है। वो अपने हाथ पैर हिलाना चाहता लेकिन वो हिलते नहीं। अब वो और परेशान हो उठता और कोशिश करता कि जाग जाय। उसे लगता कि वो इन सपनों में ही मार दिया जायेगा और  उसे जानने वाले कभी जान भी न पायेंगे वो किसी हास्यास्पद मौत नहीं मरा बल्कि किसी साजिश के तहत उसका कत्ल हुआ है। अगर पैरलल वर्ल्ड सिद्धांत हमें एक साथ कई दुनिया में उपस्थित रखता है तो क्या ऎसा भी होता होगा कि एक साथ कई लोग एक ही सपना देख रहे हों और अगर ऎसा हो सकता है तो कोई तो चश्मदीद गवाह होगा जिसने उसे भागते, छटपटाते और मरते देखा होगा? लेकिन सपनों पर हम यकीन कहाँ करते हैं, क्या मेरे जानने वाले करेंगे?

 

इसी उधेडबुन में वो एक आखिरी कोशिश करता और जाने कैसे उठकर बैठ जाता। इस ’जाने कैसे’ के फ़ार्मूले को वो समझना चाहता था कि वो उस आखिरी कोशिश में ऎसा क्या कर देता है कि इस दुनिया में लौट आता है। वो इस दुनिया में लौट आता है,  वो ’ऎसा कुछ’ कर देता है कहीं ये भी एक सपना तो नहीं?…