कुछ इस तरह ज़िन्दगी का साथ निभा रहा हूँ मैं,
हर पल, हर वक्त जिए जा रहा हूँ मैं।
हर बार हारता हूँ और हर बार हँसता हूँ,
इस ज़िन्दगी में कुछ तो किए जा रहा हूँ मैं।
मेरे आंसुओं से कभी बाढ़ आ जाया करती थी,
इन आंखों में अब एक बंजर जमीन बना राह हूँ मैं।
इतने घरोंदे टूटे की लहरों से दोस्ती हो गई,
उसी रेत पर अब एक घर बना रहा हूँ मैं।
कई बार जहर दिया है इस ज़िन्दगी ने मुझे,
अब कोई और दवा दो कि जिए जा रहा हूँ मैं।
4 comments:
WAH PANKAJ JI KHUB LIKHA HAI APNE LAHRO SE DOSTI TO KAR LE PAR SAMBHALEYEGA RET KO AKSAR DHOKHA DETE DEKHA HAI HUMNE
@ प्रिया जी
जब रेतों के अलावा आस पास कुछ न हो, तब आपको दोस्ती निभाने के लिए उन पर विस्वास करना तो पड़ेगा ही। पर मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ। ये रेत कभी भी निकल सकती है पैरों के नीचे से।
शायद ये जानकर मैं हमेशा तैयार रहूँगा और अपने आधार का ध्यान रखूंगा।
धन्यवाद पढने के लिए और अपना दृष्टिकोण बताने के लिए। काफ़ी अच्छा लगा। पढ़ते रहिएगा। :)
i find this poem rply of ur own post on other blog....
nice one yaar....very deep..
बहुत खूब! रेत पर घर! जय हो!
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