तुम्हे क्या कहूं ख़ुद ही बताओ,
अपने नैनो की भाषा
हमें भी समझाओ ।
शायर की ग़ज़ल कहूं या कहूं
'पंकज' की कविता,
आंखों को तेरी कमल कहूं
या सूर्योदय मैं सविता ।
झील सी इन आंखों को हौले हौले
उठाने के बाद जैसे ही देखती हो,
हल्का सा मुस्कुराकर ,
जब कुछ कहती हो ।
पता नही क्यों कोई
झकझोरता है दिल को,
लगता है की हेमंत मैं आया हो
पवन का झोंका,
नस-नस मैं होती है चुभन
ह्रदय कहता है अब स्पर्श
कर ही लूँ तेरा तन,
स्पर्श करने से हाथ मैं आती
नही हो,
फिसलती हो ऐसे ॥
जैसे मैंने स्पर्श किया हो कोई स्वप्न
कोई स्वप्न...
1 comment:
बड़े हसीन स्वप्न हैं। कभी हकीकत भी बनेंगे!
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