Monday, May 31, 2010

आधी अधूरी ज़िन्दगी…

- सर, मिनरल वाटर ओर प्लेन वन? painting

- ६० रूपीज फ़ोर अ वाटर बोट्ल? आप लोग एक्वागार्ड यूज करते है न अपने रेस्तरां में?

- यस सर…

- गुड, देन ब्रिंग प्लेन वाटर प्लीज़…

- तुम्हे प्लेन वाटर चलेगा न?

- या या… श्योर……

 

दोनो की वो पहली मुलाकात थी… दोनो को एक दूसरे के बायोडेटा में लिखा नाम बड़े सलीके से याद था…

प्रिया और गणेश…

कल रात ही प्रिया को उसकी माँ  ने गणेश के नये ईमेल के बारे में बताया था… कुछ रोज पहले ही गणेश ने शादी डोट कॉम पर प्रिया को रिक्वेस्ट भेजी थी… पूरे परिवार की सोंचा  विचारी के बाद इक मुलाकात फ़िक्स की गयी थी… पहली मुलाकात। गणेश एक आईआईएम पासआउट होने के  साथ साथ एक आन्त्रेप्रेन्योर भी था और इसी साल उसकी कम्पनी को टाप २५ स्टार्ट अप्स मे नोमिनेट किया गया था… कुल मिलाकर ’एक शादीलायक मटीरियल’ था… थोडा अच्छे शब्दो मे कहे तो ’एन एलिजिबल बैचलर’…

प्रिया ने उसकी एक छवि बनाकर रखी थी… एक स्नोबी पुरुष जो हर बात पर अपनी ही करेगा… कहेगा कि ये ऎसे किया करो ये वैसे… वो कह देगी कि उसे कोई ऎसा वैसा न समझे… वो एक सॉफ्टवेयर इन्जीनियर है  और अपने पैरो पर खड़ी है। तीन साल से नोयडा मे इन्डिपेन्डेन्टली  रह रही है।        …… उसने कुछ भी स्नोब्री दिखायी तो साफ़ साफ़ मना कर देगी।

लेकिन कभी कभी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा  फ़ैसला लेने के लिये किसी की कही एक लाईन ही काफ़ी होती है और कभी कभी कहे गये लम्बे से लम्बे पैराग्राफ़्स भी टस से मस नही कर पाते…

गणेश ने उस वक्त ऎसी ही एक लाईन कह दी थी… उस अमेरिकन रेस्तरां में,  स्नोब्री और शो-ओफ़ मछली मार्केट की बू जैसा हवा मे फ़ैला हुआ था और गणेश ने उस हवा को दरकिनार करते हुये कितनी सादगी से प्लेन वाटर के लिये कहा था…। प्रिया ने अपने माता-पिता  को मन ही मन धन्यवाद कहा और अपनी उसी किस्मत पर बहुत नाज़ किया जिससे वो कुछ दिन पहले एक लव मैरिज चाहती थी… लव मैरिज… उससे… जो कभी उसके प्यार के लायक ही नही था…

वो अपने इन्ही विचारों में पर्त दर पर्त डूबती जा रही थी और उस टेबल पर वो दोनो पर्त दर पर्त खुलते जा रहे थे। उनकी बातों से बातें निकल रहीं  थीं और निकली हुयी बातों से फ़िर ढेर सारी बातें… एक ही बात को सोंचते हुये दोनो की आँखों  में अलग अलग आकृतियाँ बनती थीं  वैसे ही जैसे बादल, आकाश में मोर्ड्न आर्ट बनाते रहते हैं… और हर देखने वाले को उनमें कुछ अलग ही दिखता है। उस अमेरिकन रेस्तरां मे दो बादल साथ मिलकर ऎसी ही कुछ तस्वीरें बना रहे थे……

- आई एम डन। तुम्हे कुछ और चाहिये?

उसने गर्दन हिलाकर ’ना’ कहा और वापस टेबल की ओर देखते हुये अपनी उन्ही आकृतियाँ  में खो गयी।

- प्रिया…………?

- ………हाँ?  (आँखें टेबल को छोड़ गणेश की आँखों को देखने लगीं)

- बिफ़ोर गोइंग अहेड, मैं तुम्हे एक बात बताना चाहता हूँ…

- हाँ … कहो……

- ……मुझे अर्थराईटिस है। …………मैं ज़िन्दगी के इस मोड़ पर जहाँ मुझे किसी के साथ जुड़ना है, इस सच्चाई से मुंह  नहीं घुमा सकता और मुझे लगता है कि मेरे जीवन में आने वाली को, ये सब पहले से पता होना चाहिये।

प्रिया के लिये आसपास का शोर म्यूट हो गया था… दिमाग और दिल आपस मे किसी मुद्दे पर बात करना चाहते थे…

- …………गणेश! ………………… ऎसी बातें  मेरे लिये मायने नहीं रखतीं …। अगर इन्सान तुम्हारे जैसा सुलझा हुआ और इतना समझदार है तो ये सब बातें  बेमानी है। (उसका दिमाग और दिल अभी भी बातें  करना चाह रहे थे)

- ह्म्म… तुम्हे ये बात अपने परिवार को भी बता देनी चाहिये जिससे कोई भी किसी कन्फ़्यूजन मे न रहे…

- ह्म्म…

- चलो तुम्हे घर ड्राप कर दूँ…

- ह्म्म…

 

पूरे सफ़र प्रिया ख्यालों  के एक जाले में उलझी हुयी थी।

ये उसकी ज़िन्दगी का सबसे बड़ा  निर्णय है आखिर शादी-विवाह रोज़ थोड़े  ही होते हैं… लेकिन गणेश कितना सुलझा हुआ है… ज़िन्दगी नर्क बन जायेगी… उसका साथ रहा तो नर्क को भी स्वर्ग बना लेंगे… काश वो लड़का  भागता नहीं … अच्छा हुआ जो सच्चाई बाहर आ गयी… लव मैरिज… गणेश… आप लोग एक्वागार्ड यूज करते है न अपने रेस्तरां में ?… प्लेन वाटर… अर्थराईटिस…

- तुम्हारा घर आ गया…

- ओह, हाँ … (कार से उतरते हुये)

- इट वाज़ अ नाईस इवनिग विद यू

- सेम हियर… …गुड नाईट…

- गुड नाईट…

वो मंजर अधूरा था, अधूरा ही रहा… गणेश की कार आगे बढ़ गयी… प्रिया ने उसे थोड़ी देर जाते हुये देखा फ़िर घर के अन्दर चली गयी। अधूरा मंजर एक अधूरी रात के साथ उस जगह कई सालों तक पड़ा रहा…

 


प्रिया आजकल यूएसए में  है… उसके पति के पास ग्रीन कार्ड है… कुछ दिन में उसे भी मिल जायेगा… उसकी झोली में ढेर सारी खुशियाँ  हैं लेकिन उसकी ज़िंदगी अभी भी कुछ अधूरी सी है… अभी भी वो फ़ेसबुक पर गणेश की पब्लिक अपडेट्स देखा करती है… फ़्रेन्ड रिक्वेस्ट आजतक नहीं  भेज पायी… फ़ेसबुक प्रोफ़ाईल पर गणेश का मेराईटल स्टेट्स (marital status) ’मैरिड’ है…

गणेश की शादी तो हो गयी है लेकिन क्या वो खुश है? क्या वो अभी भी प्रिया को याद करता है?… काश फ़ेसबुक ये भी बता सकता!

और अक्सर ही ये सब सोंचते हुये प्रिया अपने मेलबाक्स में ’गणेश’ नाम से सर्च मारती रहती है और एक लम्बी साँस लेते हुये यही सोचती है कि उस आखिरी ईमेल का जवाब आजतक नहीं  आया………

 

और वो अधूरा मंजर इतने सालों बाद भी उसी जगह अधूरा ही पड़ा है।

Friday, May 28, 2010

हे आधुनिक कवि!!

हे आधुनिक कवि!  confusion
जिस पल तुम परेशान होकर
’क्या कविता लिखूँ’ कि उधेड़बुन में
अपनी शर्ट की सिवन के साथ खेलते रहते हो…
उस एक पल ही, न जाने कितनी कविताओं
के पोशाकों की सिवन उधेड़ी जा रही होती है…
उस एक पल ही, किसी दुनिया में कविताओं
पर थोपी जा रही होती है वस्त्रहरण की परम्परायें
और कहीं बिना परम्पराओं के ही
किये जा रहे होते हैं वस्त्रहरण…

 

हे आधुनिक कवि!
जिस पल अपने लैपटाप पर कविता को टाईप करना
शुरु कर चुके होते हो तुम,
उसी पल न जाने कितनी कवितायेँ शोषित हो रही होती हैं,
उनके ही घर में… उनके ही लैपटाप पर शायद…
उनके निर्माण से ही शुरु हो जाता है उनका धीरे धीरे जलना,
फ़िर जैसे एक तीली से पूरी माचिस ही जला दी जाती है
अरे नहीं!! जलाना आधुनिक कहाँ रहा…
कवितायेँ तो आज मार दी जाती हैं खुलेआम
तुम्हारे समाज की हथेलियों में फंसाकर…
और मच्छ्ररों के लिये बाजार से स्प्रे ले आते हैं…

 

हे आधुनिक कवि!
जैसे ही तुम्हें लगता है कि तुमने
एक नयी कविता का सृजन कर डाला है,
कई नयी कवितायेँ भ्रूण में ही मार दी जाती हैं।
और जब तुम अपने नग्न विचारो में तलाशते हो
अपनी कविता के आधुनिक नाम…
नग्न नामों से बुलाया जा रहा होता है उन्हे
तुम्हारे कमरे की खिड़की से दिखते हुये ’किसी भी घर’ में…

 

हे आधुनिक कवि!
तुम जैसे ही अपनी कविता को पोस्ट करके
छटपटाते हो चन्द टिप्पणियो के लिये,
न जाने कितनी कविताओं का
झूठा पोस्टमार्टम हो रहा होता है,
… और उन्हे छटपटाने भी नहीं देता तुम्हारा ये समाज॥

 

हे आधुनिक कवि!
तुम कविता लिखना बंद क्यूँ नहीं कर देते??

 


    *अंजलि  और कई ऐसी बेनामियों को समर्पित…

Wednesday, May 26, 2010

इक अकेली शाम…

gg वो  शाम  को  एक  दूध  की  बाल्टी  लेकर  दूध लेने निकल  जाता  है  और  उस  अकेली  शाम  उस  अकेले  घर  में  माँ,  अकेले अकेले, उनके दूध लाने का  इंतज़ार  करती  है…


उस मोहल्ले की एक  गली  की उस  अकेली  दूध  की  दूकान  के  पास  एक  कच्छे  बनियान  की  दूकान  है... उस  बाप  का  कोई  दोस्त  वहाँ  अकेला  बैठता  है.. कभी  दोनों  दोस्त  थे,  अभी  अकेले  है और बाप भी... उसका  इकलौता बेटा  बॉम्बे  की  किसी  MNC में  काम  करता  है  और  दोस्त  का इकलौता बेटा नोएडा  के  किसी  बेनामी  कॉलेज  में  कोई  बेनामी  प्रोफेशनल  कोर्स …


ताज़ा  दूध  आने  में  अभी  वक़्त  है.. रोज़  की  तरह  दोनों  साथ  साथ  अकेली अकेली  चाय  पीते  हैं…


अकेले  घर  में  माँ, उनका  इंतज़ार  करते  हुए अकेले चाय  पी  रही  है  और  निगाहें  बाहर  वाले  लोहे  के अकेले दरवाजे  पर  एक  नॉक  सुनना  चाहती  हैं… उसकी  निगाहें  सुनती  हैं  आजकल… आँखों  पर  पॉवर  वाला  चश्मा  है  जो  बेटे  ने  लगवाया  था… उसकी  उम्र  में  आँखें  कम  देख  पाती  हैं... सो अब वो  उनसे  सुनने  लगी  है…


बाप  का  वही  अकेला  दोस्त  है… दोनों  की  बातें  भी  अकेली  हैं... बाप  ने  अपने  वंश  में  सबसे  ज्यादा  पढाई  की  थी... वो  ला(law) ग्रेजुएट है   और  बेटा…  मास्टर्स… मास्टर्स  इन  कंप्यूटर  अप्लिकेशन्स... भूलती उम्र के साथ बाप  को  ला(law) भी अब  हलकी  हलकी  भूलने  लगी  है… दोस्त  से  वो  कंप्यूटर  कि  बातें  करता  है... MCA की  बातें  करता  है... सेमेस्टर  की  बातें  करता  है… बॉम्बे  की  बातें  करता  है… ये  बातें  उसके  बेटे  ने  उसे  फोन  से  बतायी  हैं… थोड़ी  बहुत… बाकी  तो  वो  उन  सुनते  हुये कानो  से  देख  लेता  है.... उसके  कान अब देखते  हैं... उसका  पॉवर  का  चश्मा  उसके  बेटे ने नहीं, उसने ही बनवाया है.....


अकेली  माँ , बाप  और  दूध  की  बाल्टी  के  इंतज़ार  में  सुबह का बासी अखबार पढ़ती  है... 'सहेली' वाला  पेज  भी  रोज़  नहीं  आता… वो  कुछ  पन्ने  पलटकर  उसे  पुराने  अखबारों  के  बीच  रख  देती  है... अकेला  अखबार  अब  अकेला  नहीं  रहता... माँ  फिर  अकेली  है... सोंचती   है  कि सारे  अखबार  एक  साथ  बहुत  ज्यादा  हो  रहे  हैं , किसी  रद्दी वाले  को  बेचने  पड़ेंगे... आते  ही  इनसे  कहेगी  कि  जो  अखबार  रखने  हो  उन्हें  अलग  कर  दें... (रद्दियाँ  हमेशा  साथ  जाती  हैं... अच्छे  अखबार  अलग  अलग , अकेले  घर में ही कहीं खो जाते हैं...)


इंतज़ार  पूरा  होता  है... दूध  के  आने  का...  बाप  की  अधूरी  सुनी  बातों  को  पूरा  कहने  का... दोस्त  की  दूकान  बंद  करने  का... अकेले  लोहे वाले दरवाजे पर एक नॉक का... माँ का... और रात  का... शाम  ढल  चुकी  है...

अब दोनो उस घर मे साथ साथ अकेले अकेले है…

“सुबह कैलेन्डर भी बदलना है…?” (माँ रद्दियो की बात रोज की तरह भूल जाती है)

“ह्म्म…”

Tuesday, May 25, 2010

मेरी नज़र से एक शख्सियत - संकल्प शर्मा

IMG_0024 गुलज़ार  को  चाहने  वाले  कहते  हैं  कि  गुलज़ारियत  एक  धर्म  है। गुलज़ारियत को फ़ालो करने वाले  बडी आसानी से एक दूसरे को समझ लेते है जैसे दोनो ने ही आईने पहन रखे हो। गुलज़ारियन्स के  पास  बातों  की  कमी  नहीं  होती। बातों  में  गुलज़ार  होते  हैं  और  गुलज़ार  का  सिर्फ  होना  ही न  जाने  कितनी  बातें  और  पैदा कर देता  है।


कुछ  दिन  पहले  GulzarFans क्लब  में  मेरी  मुलाक़ात  एक  और  गुलज़ारियन से  हुई| किसी  टॉपिक पर  अपनी  चंद  बातों  के  साथ  मैंने  अपनी  एक  कविता  का  लिंक  भी  दिया। उसके बाद  मुझे  संकल्प  का  ईमेल  आया  और  उसने  अपना  कुछ  लिखा  भी  शेयर  किया। जबरदस्त  लेखन,  एकदम  गुलज़ारिश  टच लिये  हुए| बस  मैंने  उनसे  कहा  कि  दोस्त  ब्लॉगिंग  की  दुनिया  में  उतरो, हमे भी रेगुलर किक्स मिलती रहेगी।

अच्छा लेखन कन्टेजियस होता है और उसके इन्फ़ेक्शन से बचना नामुमकिन… लेकिन ये इन्फ़ेक्शन एक कैटेलिस्ट के जैसे आपको अच्छा लिखने को प्रेरित करता है… मेरे जैसे लोगो के लिये ऎसी डोज़ेज़  बहुत जरूरी है।

संकल्प  शर्मा, जो  कि जयपुर  के  मूल  निवासी  हैं  और  पेशे  से  PricewaterhouseCoopers, गुडगाँव  में  CA , अपनी  एक  त्रिवेणी  में  कहते  हैं…

जयपुर

कितना फैला हुआ लगता है ‘पहाड़ी’ से शहर ,
कहीं कहीं रस्सियों सी गहरी काली सड़कें|


एक सिरा पकड़ो तो ज़रा ! ‘‘इसकी गिरहें कस दें ’’

 

संकल्प  से मेरी बात गुलज़ार से शुरु हुई और निदा फ़ाज़ली, बशीर बद्र से होते हुये अहमद फ़राज़ तक पहुँच गयी। मैंने जब इस  त्रिवेणी  के  बारे  में उनसे पुछा तो संकल्प  ने  कहा  कि  "जब  जयपुर  में  बम  ब्लास्ट  हुए  थे, ये  उस  वक़्त  लिखी  थी| उस  वक़्त  अजाओं  में  एक  डर  सा  फैला  हुआ  था  बस  मन किया  कि  काश  इनकी  गिरहें  कस  सकता…


उनकी  ये  त्रिवेणी  भी  मुझे  बेहद  पसंद  आयी, गौर फ़रमाये :-

अश्क़

यूँ हरारत से बर्फ की तरह पिघली है तेरी याद ,
बूँद बूँद आँखों से टपकी है रात भर ,


दफ्तर से आज फिरसे शायद छुट्टी लेनी पड़े|

मैंने  संकल्प  से  एक  फोटो  भी  मांगी  कि  मैं  उसे  यहाँ  आप  लोगों  के  साथ  शेयर  कर  सकूँ  तो  बड़ी  ही  मोडेस्टी के  साथ  इन्होने अपनी एक  चकमक  फोटो  भी  भेज  दी और साथ मे ये नज़्म:-


'आभा'


ज़िन्दगी , 
इस कदर उलझी हुयी शय है , 
के जितना चाहता हूँ , 
समझ लूँ इसको , 
उतने ही उलझ जाते हैं , 
मानी इसके . 
ज़िन्दगी , 
इस कदर उलझी हुयी शय है . 
मगर तुम बात करती हो , 
तो लफ्ज़न*, 
इसके मानी खुलने लगते हैं . 
कभी यूँ लगता है जैसे , 
तुम कोई , 
उधेडी हुयी ऊन के गोले को लेकर , 
एक नया स्वेटर बनाती हो . 
सुनो ..!!! 
कुछ कहना है मुझको ! 
मुझे भी , 
ज़िन्दगी के कुछ नए पहलू पढ़ा दो ना , 
पढ़ाती हो जैसे , 
रोज़ अपनी क्लास के बच्चों को, 
शेक्सपीयर या साइकोलोजी ....


(*शब्दों के द्वारा)

 

ये नज़्म इन्होने  अपने  किसी  ख़ास  मेंटर  को  डेडीकेट की  है,  जिसने  ज़िन्दगी  की  बारीकियों  को समझने  में  इनकी  बड़ी  मदद  की  है। इस  नज़्म  के  अलावा  मुझे  इनकी  ये  कविता  भी  बहुत  खूबसूरत  लगी…

 

 एक  उदास  गुलमोहर 

कल  शाम  हम  मिले  थे  जहां ,
गुलमोहर  के  पास .
वही  गुलमोहर  जिसके  तले ,
अक्सर  मिला  करते  थे  हम .
मैं  अब  फिर  से  खड़ा  हूँ ,
उसी  दरख़्त  के  करीब  ही ,
जहाँ  तुने  उठा  के
अपनी  पलकें ,
इस  तरह  छुड़ाया
कल  हाथ  अपना ,
जैसे  ‘पेन ’ झटक  देते  हैं
चलते  चलते  रुक  जाए  अगर
ना  जाने  क्यूँ
मुझे  उस  पल  लगा
के  वो  गुलमोहर
उदास  है  शायद ….
और  अब  देखता  हूँ  तो
वोही  गुलमोहर …
एक  ही  रात  में
कितना  सुर्ख  हो  गया  है …
लगता  है  सारी  रात
सुलगता  ही  रहा  है
तेरे  ख्यालों  की  बरसात  में
जलता  ही  रहा  है ..
मुझे  डर  है  ये  कहीं
ख़ुदकुशी  ना  कर  डाले …..

 

कहिये,  है  न  सारी  की सारी   जबरदस्त??? :)

मेरा  कहना  मानते  हुए  इन्होने  अपनी  एक  साईट  भी  बना  ली  है… मैं  इनकी  सारी  नज़्म  तो  यहाँ  शेयर  नहीं  कर  सकता  पर आप  इन्हें  इनकी  साईट  पर  पढ़  सकते  हैं  नहीं  तो  कविता  कोश  से… मुझे  उम्मीद  है  कि  आपको  इनके  ये  बेशकीमती  मोती  पसंद  आयेंगे  और  पसंद  आयें  तो  उन्हें  बताना  न  भूलें… मेरे  साथ  साथ  संकल्प  को भी बेहद ख़ुशी  होगी|

 


पूजा के एक ब्लॉग से मैंने इस हिंदी ब्लॉगजगत को जाना था और इसके लिये मैं हमेशा उसका आभारी रहूँगा| 'मेरी नज़र से एक शख्सियत' के जरिये मैं किसी परिचित या अपरिचित शख्सियत को आपसे मिलवाता रहूँगा| ये मेरी तरफ से मेरे पसन्दीदा लोगो को आपसे जोड़ने की एक कोशिश होगी|

जाते  जाते -

"कौन  कहता  है  कि  हिंदी  ब्लॉगिंग  में  कचरा  भरा  है,
बस  एक  दो  'संकल्प' ढूंढ निकालो  यारों…
"


Thursday, May 20, 2010

अधूरी बातें…

- पता है, छोले बना रही हूँ!starfish 2
- हम्म....एक दिन वो तुम्हे बनायेंगे
- तुम पागल हो चुके हो...
- दुनिया भी यही समझती है
- तो क्या मुझे इस दुनिया से परे मानते हो?
- कुछ मान ही तो नहीं पाता
- तुम्हारी आँखें कुछ ढूंढ रही है...?
- हडप्पा… मोहनजोदडो…
- वो क्या हैं?
- नष्ट हो चुकी सभ्यताएं
- मैंने नष्ट नहीं की
- लेकिन तुम सभ्य हो
- तुम्हे कैसे पता?
- क्यूंकि तुमने सभ्यताएं नहीं नष्ट की
- रहने दो...तुम नहीं समझोगे
- काश....तुम भी समझ पाती
- सब समझ रही हूँ
- कुछ नहीं समझ रही हो
- तुम्हे ऐसा लगता होगा…
- मुझे ऐसा नहीं लगता… इन्फैक्ट मुझे कैसा भी नहीं लगता…
- लेकिन मुझे तो सब कुछ लगता है… ऐसा कैसे? लेकिन……शायद तुम सही कह रहे हो…
- मैं गलत कह रहा हूँ…… तुम सही सुन रही हो
- नहीं नहीं… अब सही सुनूंगी
- मैं गलत कहूँगा ही नहीं
- मुझे पता है
- और क्या क्या पता है तुम्हे?
galaxy - क्यूँ मुझे छूना  चाहते हो?
- नहीं, कुछ भी नहीं चाहता मैं
- चीख रहे हो… या कह रहे हो?
- सिर्फ बुदबुदाया मैंने ...और तुमने सुन भी लिया?
- छुआ भी तो...तुम्हारे लफ़्ज़ों को...शब्दों को...बुदबुदाने को...  मेरे हाथों में खरोच भी है।  तुम छू लो तो ये घाव भर जाए…
- कैसा घाव?
- शक्कर का...एकदम मीठा सा
- शक्कर कम कर दो, अपने आप भर जायेगा
- तुम छू लो तो काफी कुछ कम हो जायेगा। शक्कर भी… मैं भी, तुम भी और ये दूरी भी
- कम होना कहाँ अच्छा है ?
- तुम्हारी आँखें बहुत अच्छी है ...
- डूब जाओ उसमे
- उफ़...सारे रास्ते बंद हैं....अब निकलूँ कहाँ से?
- आंसू के साथ बह जाना… वो तो हमेशा निकलते रहते हैं
- नहीं… फिर तुम्हे मेरे लिए रोना पड़ेगा…वो मैं नहीं चाहती! फिर कहाँ से निकलूँ?
- निकलना ज़रुरी है?
- नहीं...बिलकुल नहीं...कभी नहीं!

Tuesday, May 18, 2010

क्या लिख दूँ कि तुम लौट आओ

किताबें ही किताबें हैं.. टेबल पर उनका एक ढेर बनता जा रहा है… एक मीनार सी बन गयी है… झुकी हुई… कुछ कुछ पीसा की मीनार के जैसी… बस एक दिन गिरेगी धड़धडाकर और उसमे दबे दबे मैं भी किताबों के कीड़ो की मौत मर जाऊँगा…

observation ये सोंचते हुए घंटो उन किताबो को देखता रहता हूँ और वो धूल भरी टेबल से, अपना मुंह बाये मुझे एकटक देखती रहती हैं… टेबल पर जैसे एक धूल भरा  रेगिस्तान उभर आया है और मैं उस रेगिस्तान में विचरते ऊँटो को देख सकता हूँ… अगले ही पल वो चींटियों में तब्दील हो जाते हैं… ढेर सारे ऊँट… ढेर सारी चींटियाँ… किताबो जैसी इमारतों पर चढ़ते हुये दिखाई देते हैं… जैसे किताबे, इमारतें न होकर, ढेर सारी बाबरी मस्जिदें हो और आज रात ही इनके गुम्बद गिराने की तैयारी हो…

शायद अभी भी उसके हाथों की मिठास है उन किताबो में… उन्हें उठाकर उसकी मिठास को अपनी साँसों के गुब्बारो में भर लेना चाहता हूँ  पर इन हाथों को जैसे लकवा मार गया है, कमबख्त सिर्फ सिगरेट जलाने के लिये उठते हैं… मैं थोड़ी देर के लिये किताबों से नज़रें हटा लेता हूँ…

 

इस कमरे में मैं अकेला नहीं हूँ, इन फैक्ट कभी अकेला नहीं था… स्ट्रीट लाइट की एक धुंधली सी रौशनी है जो खिड़की खुले रहने पर (मुझे याद नहीं की लास्ट टाइम कब बंद हुयी थी, इन फैक्ट मुझे कुछ भी याद नहीं…) मुझे एकटक देखती रहती हैं… शायद किताबो ने ही कुछ बताया होगा… मेरी सामने वाली दीवार पर एक परछाई सी है… दैत्याकार…… किसकी है पता नहीं… शायद किताबों और रोशनी की कुछ साजिश हो… नहीं तो उन किताबों के कीड़ों की…

वो परछाई खामोश है और मैं बोल रहा हूँ... मैं खामोश हूँ, परछाई बोल रही है... लेकिन कमरे में फिर भी एक खामोशी है... इंतज़ार है कि कब इन सबमें से कोई बोले तो शायद ये खामोशी भी बोले… लेकिन कई दिनों से सबकी मौनी अमाव्य्स्या चल रही है… तुम होती तो ये जरूर बोलते… इन्हें खिलखिलाते हुये सुना है मैंने… अब शायद ये भी मेरे साथ सुबह के इंतज़ार में हैं… इंतज़ार सुबह को भी है रात के आने का, और रात को फ़िर सुबह के आने का…

क्यूँ ये रात और सुबह एक साथ नहीं आ सकते?

कमरे के एक कोने में चुपचाप मुझे देखती एक टीवी भी है… मै तो आजकल उसे नही देख पाता…उसका रिमोट भी आजकल काम नहीं करता है… शायद सेल डिस्चार्ज हो गए हैं…तुम्हारी लिखी सामानों की पर्ची अभी भी मेरे सामने पड़ी हुई है… एक एक चीज़ अब  मुंहजबानी याद है मुझे…

सोचता हूँ कि क्यों तुमने जानबूझकर उसमें 'सेल' नहीं लिखे?? तुम तो कभी कुछ भी नहीं भूलती थी…

टीवी में कभी कभी किसी की धुंधली धुंधली शक्ल भी दिख जाती है… मेरी ही होगी… तुमने कभी मेरी आँखें चूमकर कहा था न कि ये दुनिया की सबसे प्यारी आँखें हैं… अभी भी आँखों में उसकी एक गिलावट/नमी सी रहती है…

सोचता हूँ कि काश सिर्फ इतना होता कि तुम कहीं नहीं जाती या सिर्फ इतना कि तुम इन बेजुबानो को बोलना सिखा देती जैसे ये तुमसे बोला करते थे या सिर्फ इतना कि ये खिड़की बंद कर जाती या सिर्फ इतना कि मैं चला जाता…… तुम यहीं रह जाती……

Thursday, May 13, 2010

भर्त्सना हो या जय जयकार, कोई मुझतक नहीं पहुचेगी…

छोड़ जाऊँगा rdm

कुछ कविता, कुछ कहानियाँ, कुछ विचार

जिनमें होंगे

कुछ प्यार के फूल

कुछ तुम्हारे उसके दर्द की कथाएं

कुछ समय – चिंताएं

मेरे जाने के बाद ये मेरे नहीं होंगे

मै कहाँ जाऊँगा, किधर जाऊँगा

लौटकर आऊँगा कि नहीं

कुछ पता नहीं

लौटकर आया भी तो

न मै इन्हे पहचानूँगा, न ये मुझे

तुम नम्र होकर इनके पास जाओगे

इनसे बोलोगे, बतियाओगे

तो तुम्हे लगेगा, ये सब तुम्हारे ही हैं

तुम्ही मे धीरे धीरे उतर रहे हैं

और तुम्हारे अनजाने ही तुम्हे

भीतर से भर रहे हैं।

मेरा क्या….

भर्त्सना हो या जय जयकार

कोई मुझतक नहीं पहुचेगी॥

                - रामदरश मिश्र

 

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न जाने कब इस कविता ने मेरी एक पुरानी डायरी मे जगह बना ली थी… अभी अभी इसे कविता कोश मे भी अपडेट किया…

लेकिन ये क्यूँ लिखा?? बस एं वें ही...

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Sunday, May 9, 2010

ब्वायेज विल बी ब्वायेज..

- समुद्र कितना इन्ट्रोवर्ट होता है न?shades

- ह्म्म???

- भीतर कितना कुछ छुपाये रहता है और ऊपर से एकदम शांत… कमबख्त कभी किसी से मिलने कहीं जाता भी नहीं… जब देखो गधे लड़कों की तरह़ यहीं  पड़ा रहता है… मूडी भी है…

- ह्म्म???

- कभी एकदम शांत और गंभीर, तो कभी जैसे अपनी लहरें गुनगुनाता रहता है… म्यूट रातो मे जैसे किसी को पुकारता रहता है… और दिन निकलते ही  एक गहरी नीद मे सो जाता है… जैसे एक मजदूर दिन भर काम करने के बाद रात मे सोता है… जैसे २ बजे के बाद बोरीवली स्टेशन पर लोकल ट्रेन्स सो जाती हैं… जैसे सवेरे सवेरे सारी ट्रैफ़िक लाईट्स एक साथ सो जाती हैं…

- ह्म्म्म्म……

(वो समन्दर मे सैडनेस देखती थी और मै उस सैडनेस मे एक समन्दर को… उसकी टी पर लिखा था – नो वकिंग फ़रीज (No Wucking Furries) पर उसे सारे संसार की चिंता थी… मेरी तो हद से ज्यादा…)

- तुम्हारी मेरे बारे मे कोई फ़ैन्टेसी है?

- ह्म्म??? (ये लडकी पागल है)

- फ़ैन्टेसी लल्लू…???(जैसे मैं PSPO नहीं जानता था)  ब्वायेज विल भी ब्वायेज… कुछ तो सोचते होगे? पता है मैं क्या सोंचती हूँ?

- क्या? (फिंगर्स क्रास्ड)

- पहाड़ो के बीच एक डाकबंगला हो जहाँ खिडकी और दरवाजो से सिर्फ़ संगीत  भीतर आता हो… अपने  बेडरूम मे एक कोने मे एक फ़ायरप्लेस हो और उसमे कुछ लकड़ियाँ, कुछ कुछ हम दोनो जैसे ही सुलग रही हों… अपने बेड के पास एक खिड़की भी हो और उस खिड़की से बर्फ़ीले पहाड़ हमारे बेडरूम मे झाँकते हों जैसे वो सब कुछ देखना चाहते हों… यू नो वोयेरिज्म… और हम दोनो इन सबसे बेफ़िक्र सब कुछ करते रहें… सब कुछ… और फ़िर उस खिडकी पर साथ बैठकर उन बर्फ़ो का पिघलना देखें…

कहाँ खो गये?

- यहीं हूँ..

- मुझे तो बर्फ़ीले पहाड़ पिघलते दिख रहे हैं… ब्वायेज विल भी ब्वायेज…(खिलखिलाते हुये)

चलो अब तुम्हारी बारी?

- ह्म्म…। अहेम अहेम…(गले को तरल करने की कोशिश जिससे फंसे हुए शब्द आसानी से बह सकें )…

नवी मुम्बई के एक आलीशान अपार्ट्मेन्ट के ३०वें माले पर एक फ़्लैट… फ़्लैट से बाहर झाँकती बालकनी और उसके साथ दूर तक देखने की कोशिश करता हुआ एक हैंगिंग सोफ़ा… एक कोने में अपनी बारी का इन्तजार करता हुआ एक छोटा सा फ़्रिज… उसमें ठंडाते हुये आइस क्यूब्स और उनके ठंडे होने के इन्तजार में  बैठी स्काच… बैकग्राउन्ड मे मेरे कुछ फ़ेवरेट गाने… और उस फ़र्श पर हम तुम…

- सब कुछ करते हुये? (क्यूरियसली)

- ह्म्म……

- और? (वेरी क्यूरियसली)

- और उसके बाद हम दोनो एक चादर में लिपटे सारी रात उस हैंगिंग सोफ़े में झूलते रहें… तुम मुझे सुलगाती रहो और मैं अपनी गोल्ड फ़्लैक लाईट्स… सारी रात…

- ब्वायेज विल भी ब्वायेज (खिलखिलाकर  हँसते हुये)

…………………

…………………

…………………

- हैलो?

- हे… कैसी हो?

- बढिया… लॉन्ग टाइम न?

- ह्म्म…

- मरीन डाईव अभी भी जाते हो?

- ह्म्म… नही…

- गोल्ड फ़्लैक लाईट्स के क्या हाल हैं?

- काफ़ी टाईम हो गया.. छोड दी है…

- ओह… और कहाँ हो आजकल? बोरीवली?

- नहीं… पहाड़ो में एक घर ले लिया है… एक वुडहाऊस है… तुम?

- इन्होने नवी मुम्बई में एक फ़्लैट ले लिया है… बस वहीं ३०वें माले पर रहती हूँ…

- ह्म्म……

- ह्म्म……

 

 

 

* picture courtesy: Mr. Nag via ‘Varansi’ - a  Facebook group

Thursday, May 6, 2010

थोड़ी गोसिप…

- हेलो  सर! मैं ___ बोल  रही  हूँ ___ बैंक से 
- हम्म…
- सर, आपको  पर्सनल  लोन  की  रिक्वायरमेंट है? 
- नहीं। 
- सर , कोई  रेफेरेंस ?

(रेफेरेंस?? मैं  जानता  ही  किसे  हूँ…  मुझे  भी  तो  कोई  नहीं  जानता… मैं  खुद  भी  तो  खुद  को  ही  नहीं  जानता…  फिर  किसका  रेफेरेंस  दूं…)
- ...............नहीं, नो रेफेरेंस।


2415943993_e158f2e4c7 फेसबुक पर  रोज़  ही  एक  दो  नयी  फ्रेंड रिक्वेस्ट्स आ  जाती  हैं… फ्रेंड  काउंट बढ़ता  जा  रहा  है… ब्लॉग  का   फीडकाउंट  भी  बढ़  ही  रहा  है…

बस  मैं  घटता  जा  रहा  हूँ …  रोज़  रोज़… थोडा  सा… जैसे,  नयी  सरकारी  रिपोर्टों  में  गरीबी  घटती  जा  रही  है…… जैसे  नक्शों  पर से  गाँव  घटते  जा  रहे  हैं…… जैसे मुम्बई से यूपी/बिहार के लोग घटते जा रहे है…

 
वैसे ही मेरा  आसमान  भी  छोटा  होता  जा  रहा  है…  मेरे  समुन्द्र  भी  सिकुड़ते  जा  रहे  हैं…  जैसे,  ये  कोने  में  पड़ा  ख्वाहिशों  का  गुब्बारा  सिकुड़ता  जा  रहा  है,  जो  श्रीकांत  ने  इजिप्ट जाने  से  पहले  अपने  पैसों  से  मेरे  लिये  खरीदा  था  और  शायद  पहली  बार  'डिवाइड  बाई  टू' भी  नहीं  किया  था…


बस साँसें  वैसी  की  वैसी  हैं… मेरी  ज़िन्दगी  मे  उलझी  हुई, लेकिन चलती हुई…… जैसे,  सीडी  ड्राइव  में  एक  सीडी  फंसी  हो  और  बार  बार  बाहर  निकलने  की  कोशिश  कर  रही  हो… जैसे  कमरे  में  गलती  से  कोई  फतिंगा  फंस  गया  हो  और  हर  दीवार  में  एक  खिड़की/रोशनदान  ढूँढने  की  कोशिश  कर  रहा  हो…  जैसे  कोई  बंधुआ  मजदूर  मजूरी  करता  ही  जा  रहा  हो… जैसे  मेरी  लिखी  कुछ  इधर उधर की लाइने  एक  कविता  बनना  ही  चाह  रही  हों... 

इन्हें  भी  तो  थोडा  आराम  चाहिए…  

तो क्या मैं भी ’प्यासा’ के किरदार की तरह सारी दुनिया के सामने ये चिल्लाकर कह दूँ कि ’जो तुम मुझे समझ रहे हो, वो मैं नहीं हूँ। वो तो कबका मर चुका है।’ लेकिन फ़िर वो पूछेंगे कि कैसे मरा तो क्या जवाब  दूँगा? आगजनी के आरोप मे अन्दर न कर दे…? आत्मदाह ही तो किया था… कुछ आत्माये ही तो जलाये थी…

या आसमान की तरफ़ देखते हुये कह दूँ कि ’तलाक, तलाक… तलाक’

या चिल्लाऊ जोर से कि ’आई नीड सालवेशन’……

 


चंद रेखाओं में सीमाओं में
ज़िन्दगी  कैद  है  सीता  की  तरह,
राम कब लौटेंगे मालूम नहीं,
काश, रावण ही कोई आ जाता.......

                            - कैफ़ी आज़मी

Tuesday, May 4, 2010

क्या हम एक मूर्ख समाज है??

We are individually smart but collectively foolish as a society.

delhi-violence कुछ दिन पहले रजनीश ने वी. रघुनाथन की किताब की इस पंक्ति का जिक्र किया तो मै घंटो इसके बारे मे सोचता रह गया… कितना कडवा है लेकिन ये एक सच है… हम बुद्धिजीवियो से भरे हुये लेकिन एक मूर्ख समाज है…

हम जब तक अकेले होते हैं तो एक बुद्धिजीवी होते हैं और जैसे ही किसी भीड/गुट से जुडते हैं, हम पानी की तरह उनकी आकृति धारण कर लेते हैं… उनकी परछाई बन जाते हैं…

हम अकेले क्रान्ति के नाम से डरते हैं  पर एक भीड के साथ हम सब क्रान्तिकारी हो जाते है… ऎसी ही भीडे न जाने कितने लोगो को जाति और संप्रदाय के नाम पर काट देती है… ऎसी ही भीडे भाषाओ के नाम पर रोज़ ही निर्दोषो को पीटती है… ऎसे ही समाज रोज़ न जाने कितनी बबलियो और निरूपमाओ को मौत के घाट उतार देते है…

ये मूर्ख समाज खचाखच भरे हुये क्रिकेट स्टेडियम मे ‘Symonds is a monkey’ चिल्लाता है… यही मूर्ख/वहशी समाज जुहू जैसी जगह पर अपनी मूर्ख और वहशी भीड के साथ, नववर्ष मना रही एक लडकी के साथ मास-रेप करने की कोशिश करता है… यही मूर्ख समाज रोज ही न जाने कितने विदेशी सैलानियो के साथ मिसबिहेव करता है… न जाने कितनी ट्रेन्स रोकता है… कितनी बसों को जलाता है…

एक बार की बात है प्रोफेसर जॉन नैश(जिन्हे गेम थ्योरी के एक कान्सेप्ट के लिये नोबल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था) अपने कुछ दोस्तो के साथ एक बार मे बैठे होते है:-

 

नैश: मैं तुम लोगो के लिये बीयर नही खरीदूगा

बेन्डर: ओह, हम यहाँ बीयर के लिये नही आये हैं, मेरे मित्र!

नैश: (एक सुन्दर लड्की को देखते हुये) ओह…… किसी को नही लगता कि उसे थोडा और धीरे चलना चाहिये.

बेन्डर: तुम्हे क्या लगता है वो एक भव्य विवाह करना चाहती है?

साल: महानुभावो, तलवारे निकाली जाय? या पिस्ट्ल्स?

हैन्सेन: तुम लोगो ने कुछ भी ठीक से नही पढा? एड्म स्मिथ जो मार्ड्न इकोनामिक्स के पिता है, उनका कहा याद करो…

साल: हुह, किसी प्रतियोगिता मे……

समूह: … व्यक्तिगत ध्येय समूह का भला करता है।

हैन्सेन: एग्जेक्टली…

नेलसेन: सब अपने अपने लिये, श्रीमानो

……

……

नैश: एडम स्मिथ को बदलना चाहिये।

हैन्सेन: तुम्हे पता है तुम क्या कह रहे हो?

नैश: अगर हम सब उस सुन्दर लडकी के पीछे जाते है तो हम एक दूसरे को ब्लाक करेगे और हममे से किसी एक को भी वो नही मिलेगी। उसके बाद अगर हम सब उसकी दोस्तो के पीछे जाते है तो वो सब भी हमें भाव नही देंगी क्यूँकि कोई भी दूसरी पसन्द नही बनना चाहता। लेकिन अगर कोई भी उस सुन्दर लड्की के पीछे न जाये, तो? तो न तो हम एक दूसरे को ब्लाक करेगे और न ही उन लड्कियो को अपमानित करेगे। यही एक रास्ता है जिससे हम सबको जीत मिलेगी।

एडम स्मिथ ने कहा है कि बेहतरीन परिणाम तब आता है जब एक समूह के लोग व्यक्तिगत ध्येय पाने की कोशिश करते है, राईट? उन्होने यही कहा है, राईट? ये अधूरा है… बिल्कुल अधूरा… क्यूँकि बेहतरीन परिणाम तब आयेगा जब एक समूह का हर व्यक्ति अपने व्यक्तिगत ध्येय के साथ साथ समूह के ध्येय के लिये कार्य करेगा… गवर्निग डायनामिक्स… एडम स्मिथ गलत थे॥

 

 

 

ये हिन्दी ब्लागजगत भी एक समूह है। यहाँ भी तो रोज़ ही एक मूर्ख गुट, धर्म, लिंग और भाषा के नामपर दूसरे गुटो को गरियाता है और एक मूर्ख समाज के निर्माण मे अपना योगदान देता है…

हम सब लोग भी अपना अपना भला कर रहे है और अलग थलग बुद्धिजीवी बनकर बैठे हैं। क्या हम सब भी ’नैश’ की इस फ़िलोसोफ़ी को अपना नही सकते?

क्या होगा यदि हम अपने भले के साथ साथ अपने समूह के भले के लिये भी कार्य करे? या हम मूर्ख समाज ही बने रहेंगे……???