वो शाम को एक दूध की बाल्टी लेकर दूध लेने निकल जाता है और उस अकेली शाम उस अकेले घर में माँ, अकेले अकेले, उनके दूध लाने का इंतज़ार करती है…
उस मोहल्ले की एक गली की उस अकेली दूध की दूकान के पास एक कच्छे बनियान की दूकान है... उस बाप का कोई दोस्त वहाँ अकेला बैठता है.. कभी दोनों दोस्त थे, अभी अकेले है और बाप भी... उसका इकलौता बेटा बॉम्बे की किसी MNC में काम करता है और दोस्त का इकलौता बेटा नोएडा के किसी बेनामी कॉलेज में कोई बेनामी प्रोफेशनल कोर्स …
ताज़ा दूध आने में अभी वक़्त है.. रोज़ की तरह दोनों साथ साथ अकेली अकेली चाय पीते हैं…
अकेले घर में माँ, उनका इंतज़ार करते हुए अकेले चाय पी रही है और निगाहें बाहर वाले लोहे के अकेले दरवाजे पर एक नॉक सुनना चाहती हैं… उसकी निगाहें सुनती हैं आजकल… आँखों पर पॉवर वाला चश्मा है जो बेटे ने लगवाया था… उसकी उम्र में आँखें कम देख पाती हैं... सो अब वो उनसे सुनने लगी है…
बाप का वही अकेला दोस्त है… दोनों की बातें भी अकेली हैं... बाप ने अपने वंश में सबसे ज्यादा पढाई की थी... वो ला(law) ग्रेजुएट है और बेटा… मास्टर्स… मास्टर्स इन कंप्यूटर अप्लिकेशन्स... भूलती उम्र के साथ बाप को ला(law) भी अब हलकी हलकी भूलने लगी है… दोस्त से वो कंप्यूटर कि बातें करता है... MCA की बातें करता है... सेमेस्टर की बातें करता है… बॉम्बे की बातें करता है… ये बातें उसके बेटे ने उसे फोन से बतायी हैं… थोड़ी बहुत… बाकी तो वो उन सुनते हुये कानो से देख लेता है.... उसके कान अब देखते हैं... उसका पॉवर का चश्मा उसके बेटे ने नहीं, उसने ही बनवाया है.....
अकेली माँ , बाप और दूध की बाल्टी के इंतज़ार में सुबह का बासी अखबार पढ़ती है... 'सहेली' वाला पेज भी रोज़ नहीं आता… वो कुछ पन्ने पलटकर उसे पुराने अखबारों के बीच रख देती है... अकेला अखबार अब अकेला नहीं रहता... माँ फिर अकेली है... सोंचती है कि सारे अखबार एक साथ बहुत ज्यादा हो रहे हैं , किसी रद्दी वाले को बेचने पड़ेंगे... आते ही इनसे कहेगी कि जो अखबार रखने हो उन्हें अलग कर दें... (रद्दियाँ हमेशा साथ जाती हैं... अच्छे अखबार अलग अलग , अकेले घर में ही कहीं खो जाते हैं...)
इंतज़ार पूरा होता है... दूध के आने का... बाप की अधूरी सुनी बातों को पूरा कहने का... दोस्त की दूकान बंद करने का... अकेले लोहे वाले दरवाजे पर एक नॉक का... माँ का... और रात का... शाम ढल चुकी है...
अब दोनो उस घर मे साथ साथ अकेले अकेले है…
“सुबह कैलेन्डर भी बदलना है…?” (माँ रद्दियो की बात रोज की तरह भूल जाती है)
“ह्म्म…”
20 comments:
बहुत खूब ....हिरदयस्पर्शी ...ऐसे ही लिखते रहे ,,,मेरी शुभकामनाये आपके साथ है http://athaah.blogspot.com/
क्या खूब अंदाज़-ए-बयाँ है भाई जी.. हर किसी की अपनी सी कहानी अपनी सी जुबां में उतार दी कागद पे..
कहने को भीड़ में हैं....पर हैं तो सब अकेले
रास्ते भी तो अपनी अपनी जगह अकेले ही पड़े हुए हैं फिर भी मंजिल तक ले ही जाते हैं.
बहुत अच्छा लिखते हो पंकज, तुम्हारे लेख उन लेखों में से हैं जो मुझे वास्तविकता के करीब लाते हैं.
शुभ कामना!
पहली बार में तो समझ नहीं आई पंकज. फिर पढ़ा तब लगा वृद्धवस्था के अकेलेपन को आपने बड़ी सहजता और अनूठे तरीके से व्यक्त किया हैं...अच्छा तो लगा लेकिन एक पल में काफी कुछ सोच गई ......हम तो नहीं कहने वाले कि आप अच्छा लिखते हैं :-)
हम्म.. एक उदास अकेली शाम... फिर भी उम्मीद है... कैलेंडर बदलेगा इक दिन... सुबह भी आएगी... इंतज़ार ख़त्म होगा...
वाह उस्ताद मजा आ गया, सब साथ रहते हुए भी अकेले हैं, और पता नहीं कौन सी कुंडी बजने का इंतजार करते रहते हैं।
khoobsoorat andaaze bayan...bahut khoob...
एक और गौर करने वाली बात ये की जो चित्र तुमसे चिपकाया है वो इस लेख को एक 'फाइनल टच' दे रहा है. बेहतरीन!
'रद्दियाँ हमेशा साथ जाती हैं... अच्छे अखबार अलग अलग , अकेले घर में ही कहीं खो जाते हैं..'
अखबारों को देखने का यह नज़रीया भी खूब लगा.
चित्र कहानी का पूरक लगा.बहुत अच्छा चयन है.
कहानी भी बहुत अच्छी है.
बहुत बेहतरीन अंदाज रहा...
पहले तो समझ मे नही आया पर जब अर्थ समझा तो बहोत अछा लगा. एकदम वास्तविक :) बहोत खूब
savere savere aisa akelapan dikha diya ki ..akhbaar padhne ka dil nahio ho raha...har cheeez bahut ghuma ke kahi hai tumne ..neende khul gayi samjhne me... :) bahut badhiya post hai bhai ... are han tumne kuch poocha tha mere ghazal pe...uska zawaab mail bhi kiya hai ..aur apni post pe bhi chhoda hai ..dekh lena.. :)
उसके कान अब देखते हैं... उसका पॉवर का चश्मा उसके बेटे ने नहीं, उसने ही बनवाया है.....
उम्र के इस पड़ाव पर अकेलापन कानो को आँखे बना देता है...बेहतरीन पोस्ट सर....
@जिन्हें थीम समझने में कन्फ्यूजन है:
ये कहानी एक लोवर मिडिल क्लास एजेड दम्पति की कहानी है जिनके इकलौते बेटे बचपन में सुनी श्रवण कुमार की कहानियों को दरकिनार करते हुए अपना आसमान ढूँढने उनसे बहुत दूर चले गए हैं... अब सिर्फ फोन आते हैं और चंद पैसे... उम्र के इस पड़ाव पे बातें करने वाला कोई नहीं... दीवारें बोलती हैं, आँखें सुनती हैं... कान देखते हैं| माँ खुद से बतियाती है और पिता उन चीज़ों को देखा करता है जो उसने सिर्फ सुनी हैं...रद्दियाँ और कैलेण्डर जैसे मुद्दों पर बातें होती हैं एक दूसरे से बातें करते हुए, एक दूसरे के साथ होते हुए भी वे कितने अकेले हैं...
उम्र की सांझ के बीहड़ अकेलेपन को बहुत अच्छी तरह दर्शाया है...जब मन से भी इतने अकेले रह जाते हैं कि कान को आँखों की जिम्मेवारी संभालनी पड़ती है....
पंकज जी,मुझे लगता है, कहानी के पीछे का मंतव्य स्पष्ट करने की ख़ास जरूरत नहीं ...जैसे पेंटिंग और कविता के अलग अलग अर्थ निकाले जाते हैं..वही कहानियों के साथ भी है....चलिए अच्छा है..अब लोग रद्दियाँ, कैलेण्डर और law की जगह comp की बातें करते पिता की तरफ भी गौर करेंगे
अच्छा है .मेच्युर हो रहे हो ....रोज बर रोज....बरसो पहले रूबरू मिला था .बस थोड़ी क्लास अलग थी ......उस दंपत्ति की .ब्लॉग में भी बांटा है .....
स्पष्ट ... कठोर किन्तू वास्तविकता ... अकेलापन बहुत से बुज़ुर्ग परिवार ऐसे ही झेल रहे हैं ... आने वाले समय में तो ये महामारी बढ़ने वाली है ...
now this is what I call it writing...
get it into a book.. as I always say
all the very best
Manoj K
अकेलापन खाने को दौड़ता है…
शाम को ज़्यादा…
रात को और ज़्यादा…
सुबह लगती किसी मनहूस का अधूरा बयान,
दोपहर ख़ाली पतीली मगर खौलाती हुई,
और इस तरह रोज़ शाम फिर से आती है -
कि न आए अगर वापस तो कहाँ ये जाए?
-----------
कुछ इस तरह का लिखने को प्रेरित कर रही है पंकज तुम्हारी ये गद्य-नज़्म।
ज़्यादा नहीं बोलूँगा कि कहीं अकेलापन बढ़ के तारी न हो जाए, क्योंकि एक अकेलापन वो भी होता है जो भीड़ में और ज़्यादा सताता है।
बहुत अच्छी रचना है।
शायद मैं कुछ लिखूँगा इस पर…
सुन्दर चित्रण ।
Post a Comment