किताबें ही किताबें हैं.. टेबल पर उनका एक ढेर बनता जा रहा है… एक मीनार सी बन गयी है… झुकी हुई… कुछ कुछ पीसा की मीनार के जैसी… बस एक दिन गिरेगी धड़धडाकर और उसमे दबे दबे मैं भी किताबों के कीड़ो की मौत मर जाऊँगा…
ये सोंचते हुए घंटो उन किताबो को देखता रहता हूँ और वो धूल भरी टेबल से, अपना मुंह बाये मुझे एकटक देखती रहती हैं… टेबल पर जैसे एक धूल भरा रेगिस्तान उभर आया है और मैं उस रेगिस्तान में विचरते ऊँटो को देख सकता हूँ… अगले ही पल वो चींटियों में तब्दील हो जाते हैं… ढेर सारे ऊँट… ढेर सारी चींटियाँ… किताबो जैसी इमारतों पर चढ़ते हुये दिखाई देते हैं… जैसे किताबे, इमारतें न होकर, ढेर सारी बाबरी मस्जिदें हो और आज रात ही इनके गुम्बद गिराने की तैयारी हो…
शायद अभी भी उसके हाथों की मिठास है उन किताबो में… उन्हें उठाकर उसकी मिठास को अपनी साँसों के गुब्बारो में भर लेना चाहता हूँ पर इन हाथों को जैसे लकवा मार गया है, कमबख्त सिर्फ सिगरेट जलाने के लिये उठते हैं… मैं थोड़ी देर के लिये किताबों से नज़रें हटा लेता हूँ…
इस कमरे में मैं अकेला नहीं हूँ, इन फैक्ट कभी अकेला नहीं था… स्ट्रीट लाइट की एक धुंधली सी रौशनी है जो खिड़की खुले रहने पर (मुझे याद नहीं की लास्ट टाइम कब बंद हुयी थी, इन फैक्ट मुझे कुछ भी याद नहीं…) मुझे एकटक देखती रहती हैं… शायद किताबो ने ही कुछ बताया होगा… मेरी सामने वाली दीवार पर एक परछाई सी है… दैत्याकार…… किसकी है पता नहीं… शायद किताबों और रोशनी की कुछ साजिश हो… नहीं तो उन किताबों के कीड़ों की…
वो परछाई खामोश है और मैं बोल रहा हूँ... मैं खामोश हूँ, परछाई बोल रही है... लेकिन कमरे में फिर भी एक खामोशी है... इंतज़ार है कि कब इन सबमें से कोई बोले तो शायद ये खामोशी भी बोले… लेकिन कई दिनों से सबकी मौनी अमाव्य्स्या चल रही है… तुम होती तो ये जरूर बोलते… इन्हें खिलखिलाते हुये सुना है मैंने… अब शायद ये भी मेरे साथ सुबह के इंतज़ार में हैं… इंतज़ार सुबह को भी है रात के आने का, और रात को फ़िर सुबह के आने का…
क्यूँ ये रात और सुबह एक साथ नहीं आ सकते?
कमरे के एक कोने में चुपचाप मुझे देखती एक टीवी भी है… मै तो आजकल उसे नही देख पाता…उसका रिमोट भी आजकल काम नहीं करता है… शायद सेल डिस्चार्ज हो गए हैं…तुम्हारी लिखी सामानों की पर्ची अभी भी मेरे सामने पड़ी हुई है… एक एक चीज़ अब मुंहजबानी याद है मुझे…
सोचता हूँ कि क्यों तुमने जानबूझकर उसमें 'सेल' नहीं लिखे?? तुम तो कभी कुछ भी नहीं भूलती थी…
टीवी में कभी कभी किसी की धुंधली धुंधली शक्ल भी दिख जाती है… मेरी ही होगी… तुमने कभी मेरी आँखें चूमकर कहा था न कि ये दुनिया की सबसे प्यारी आँखें हैं… अभी भी आँखों में उसकी एक गिलावट/नमी सी रहती है…
सोचता हूँ कि काश सिर्फ इतना होता कि तुम कहीं नहीं जाती या सिर्फ इतना कि तुम इन बेजुबानो को बोलना सिखा देती जैसे ये तुमसे बोला करते थे या सिर्फ इतना कि ये खिड़की बंद कर जाती या सिर्फ इतना कि मैं चला जाता…… तुम यहीं रह जाती……
37 comments:
तुम होती तो ये जरूर बोलते… इन्हें खिलखिलाते हुये सुना है मैंने
-जबरदस्त आत्मालाप!! बढ़िया छूता हुआ!
यह उस कोई का पुण्य प्रताप है या फिर उस कोई का ...निर्णय मुश्किल सा है !
dil ka dard bade hi rochak andaaz me prastut kiya...
kisi ka na hona kitna bolta hai ..ye tumhari post se pata chal raha hai ...behad achhi post..
wawo sir...........bahut khub...lagta hai yaaden jhar rahi hon dimag se......
साथ साथ तो ले गये पर बीच में हाथ सरका कर चले गये ।
यादों की मिठास से खिंचे चले आये कुछ भटकते ख़याल... एक अकेले कमरे के एकांत में भी अकेले हो कर एकाकी नहीं... कितना कुछ है इसमें... पीसा की मीनार... कुछ ऊंट... विचारों का एक विशाल रेगिस्तान... बाबरी मस्जिदें और उन्हें ढहाने के लिये चढ़ती चींटियों की फ़ौज... कुछ ख़ामोश, कुछ खिलखिलाती, कुछ बोलती सी परछाइयाँ... एक इंतज़ार भी... सामानों की पर्ची... कुछ डिसचार्ज्ड सेल... हाँ दुनिया की सबसे प्यारी आँखें भी... कुछ धुंधली सी शक्लें... ढ़ेर सारी यादों को रौशन करती कभी ना बुझने वाली स्ट्रीट लाइट की रौशनी... कितना कुछ तो है फिर अकेलापन कैसा :-)
यादों और विचारों की चाशनी में डूबी बेहद ख़ूबसूरत पोस्ट !!!
बहुत बढ़िया लिखा है पंकज!
बिन्दी हिलने वाली पोस्ट के बाद अब ये है मारू लिखाई।
बधाई!
बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति ..यादों के झरोखों से निकली हुई अलंकारिक रचना.
शायद अभी भी उसके हाथों की मिठास है उन किताबो में…मिठास तो पता नहीं पर इक खुशबु तो हमें भी किताबो से आती है अक्सर और फिर किताबे बिना पढ़े रख दी गयी है कई बार, P.S.I LOVE YOU में GERRY चिट्ठी में लिख जाता है की BED के लिए साइड LAMP खरीद लो पर ...सोचता हूँ कि क्यों तुमने जानबूझकर उसमें 'सेल' नहीं लिखे..सोचता हूँ (फिर से )कि काश सिर्फ इतना होता कि तुम कहीं नहीं जाती या सिर्फ इतना कि तुम इन बेजुबानो को बोलना सिखा देती जैसे ये तुमसे बोला करते थे या सिर्फ इतना कि ये खिड़की बंद कर जाती या सिर्फ इतना कि मैं चला जाता…… तुम यहीं रह जाती.किताबो को इक बार फुर्सत में झाड़ पोंछ दे.कीड़े कूड़े सब भाग जायेंगे :)
टीवी में कभी कभी किसी की धुंधली धुंधली शक्ल भी दिख जाती है… मेरी ही होगी… तुमने कभी मेरी आँखें चूमकर कहा था न कि ये दुनिया की सबसे प्यारी आँखें हैं… अभी भी आँखों में उसकी एक गिलावट/नमी सी रहती है…हमारी आँखे भी पढ़ के मन सी हो गयी.
मन को छूती भावुक कलात्मक बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति...
@Dimple
झाडना पोछना शुरु करता हू :) फ़ुर्सत मे :)
मेरी स्वीट सी छोटी से बहन ने भी पढ लिया इसे और ईमेल से एक प्यारा सा कमेन्ट भेजा -
"kyun pareshan ho gaye aap in kitabo se
zindagi me sirf yehi sachha saath nibhati hai
na badalti hai inki baaten,na inka saath badalta hai
jab aap ho ekdum akele,tab tanhaiyon se bacha jati hai te kitabe"
बहुत भावपूर्ण ............ एहसास से भरपूर......
वाह क्या अन्दाज़ है निराली पोस्ट बधाईयां
"मैं चला जाता…… तुम यहीं रह जाती……"
प्रशंसनीय प्रस्तुति - बहुत खूब
kabhi kabhi kuch padh kr bs khamosh rh jane ka hi mn krta hai na.....yhi lg rha hai es ko padh kr.
बेहद प्रभावशाली अभिव्यक्ति
दिल के तारों को झंकृत कर दिया! और कितना दर्द छुपा रखा है? कभी इकठ्ठा उडेलो...मिल के बिनेंगे उसमे से....कुछ मेरे, कुछ तुम्हारे!!!
"ढेर सारी बाबरी मस्जिदें हो और आज रात ही इनके गुम्बद गिराने की तैयारी हो…"
Bahut hi badiya... wonderful piece of writing :)
You relate things very well... Great work done!
Regards,
Dimple
ओह!! खामोशी भी बोलती है...और जब बोलती है तो क्या बोलती है...और ख़ामोशी को चुप कराना भी मुश्किल...:)... कुछ पंक्तियाँ बहुत खूबसूरत लगीं.. 'शायद किताबों और रोशनी की कुछ साजिश हो...' बहुत खूब
बढ़िया !
मुझे लग रहा था कि ये ब्लॉग रीडर में सबस्क्राइब है क्योंकि पीडी सारा शेयर कर ही देता है... :)
चर्चा में दिखी तो पता चला छूट गयी है.
विचार बहुत अच्छे लगे पंकज.. और लेखन शैली भी, लेकिन.................. सिगरेट!!!!!!!!! मन सुलग गया सुनकर.. एक ज़हरीला, कड़वा धुंआ आस-पास घिरता दिखाई दिया.. फिर धीमा ज़हर लेता एक उम्दा सृजक
भाई दीपक,
विचारों को लेखक से नहीं जोड़ना चाहिये... लेखक किसी किरदार में उतरकर, उसकी तह तक जाकर.. उस किरदार की सोंच को भी तो सोंच सकता है... हो सकता है ऐसा कोई कमरा ही न हो, या कमरा हो तो कोई खिड़की न हो.. हो सकता है खिड़की हो, लेकिन टीवी ही न हो, हो सकता है टीवी हो, लेकिन टेबल और किताबें ही न हों.. हो सकता है ये मैं हूँ, हो सकता है ऐसी कोई शख्सियत ही न हो..
हो सकता है मैंने सिगरेट छोड़ दी हो, हो सकता है कि सिगरेट ने ही मुझे छोड़ दिया हो.. कुछ भी हो सकता है न :)
Thanks for your concern buddy.... I have read your 'ironman'.. that was nice and full of emotions.. will read more someday as soon as I get some time.. do keep dropping by.. :) Its nice to read your honest comments...
Too good....bus isi tarah likhte rehna...waiting for your next post that should be a on a positive side of life :)
...सुंदर अभिव्यक्ति.
..बेजुबान भी बोलते हैं...बे जुबान हैं इसलिए शब्द सुनाई नहीं देते...सीधे मस्तिष्क में उतर जाते हैं...ऐसा न होता तो कैसे होती ये अभिव्यक्ति..!
हृदयस्पर्शी प्रविष्टि !
अंतिम पंक्ति.."सिर्फ इतना कि मैं चला जाता…… तुम यहीं रह जाती……" पढ़ते-पढ़ते बहुत कुछ टूट कर बाहर आ गया मेरे भी मन का ! डूब कर पढ़ता रहा..बहुत कुछ महसूसता रहा सहज ही !
आभार ।
bahut sundar, pankaj ji
mann jhoom gaya
@अभिषेक ओझा:
सच बोलू तो मुझे भी पीडी की वजह से ही कभी रीयलाईज नही हुआ कि तुम्हारा ब्लोग मेरे फ़ीडरीडर मे नही है.. फ़िर तुम्हारी दोनो फ़ीड्स को जोडा.. वैसे उम्मीद है कि तुम्हे पुने मे रात मे खाने की दुकाने अब मिल गयी होगी.. :)
@हिमांशु जी:
शुक्रिया.. कवि हृदय है आपका.. एकदम नाजुक.. तभी आप डूब पाये.. हम तो उतराते रहे.. आप बहुत अच्छा लिखते है..
अभी भी आँखों में उसकी एक गिलावट/नमी सी रहती है…
this is the finest expression, i must say your writings shall take a shape of a book, must be the bestseller after 5 point someone...
go ahead and get it published
best
Manoj K
manojkhatrijaipur.blogspot.com
काश सिर्फ इतना होता कि तुम कहीं नहीं जाती या सिर्फ इतना कि तुम इन बेजुबानो को बोलना सिखा देती जैसे ये तुमसे बोला करते थे या सिर्फ इतना कि ये खिड़की बंद कर जाती या सिर्फ इतना कि मैं चला जाता…… तुम यहीं रह जाती……
hmmm bahut hi badiya likha hai aapne....
शीर्षक पढ़ के लेखक का कांफिडेंस dekha ! gazab hai :)
एक बार को लगा कि कहीं मेरे अगल-बगल कोई कैमरा तो नहीं न आप ने फिट कर दिया है या खुली खिडकी के सामने वाले मकान के टैरेस से कहीं कोई दूरबीन से मुझे बीन तो नहीं न रहा है !!
जिस कंप्यूटर पर देख कर लिख रहा हूँ, बस चुका है एक राजस्थान.
सीपीयू भी एक परत रेत जमाये हुए है.
किताबें पीसा की पांच मीनारों की तरह से खड़ी हुई हैं.
एक गिरी तो कोई न बचेगी और मैं कुचल जाऊँगा.
पता नहीं किस इन्तजार में हूँ, शायद एक दिन मुहम्मद (गोरी) या महमूद (गजनवी) बन जाऊं और हर मन्दिर, पुस्तकालय की तरह पाँचों मंदिरों को गिरा कर पुस्तक-शिकन बन जाऊं.
काश सिर्फ इतना होता ......
so many comments..khush to bahut hoge aaj tum
अपने सुख- दुःख को भी हम कन्फर्म करते रहते हैं जैसे, कुछ लोगों को पढ़ना खुद को रीवाइज़ करने जैसा होता है....कुछ पोस्ट ने बहुत रुलाया...खासकर ये की...... क्या लिख दूँ के तुम लौट आयो......कुछ को पढ़ते हुए हँसना और रोना एकसाथ हुआ, जैसे वो टमाटर उनके हिस्से के दो टमाटरों में से एक.....मेरा एक दोस्त है..... कहता है जिन्दगी जब हावी होने लगती हैं तो मैं खुद से भी भाग लेता हूँ....जिन्दगी की शामें सब पर एक जैसी आती हैं और सुबहें किसी पर देर से और किसी पे जल्दी.....जिन्दगी की बारिशें सबको भीगोती हैं किसी को कम तो किसी को ज्यादा...रेनकोट सबके हिस्से नहीं आते...ब्लॉग पर हंसने की तमाम वजहों के बावजूद तुम्हें पढ़ना उदास कर गया.....
जैसे कि उदासी भी कन्फर्म हो गयी हो....:-(
टुकड़ा टुकड़ा जिन्दगी का एक और पता मिल गया हो जैसे
बारिश-आंधी-तूफ़ान में भी खिड़की बंद नहीं करते थे क्या?
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