हे आधुनिक कवि!
जिस पल तुम परेशान होकर
’क्या कविता लिखूँ’ कि उधेड़बुन में
अपनी शर्ट की सिवन के साथ खेलते रहते हो…
उस एक पल ही, न जाने कितनी कविताओं
के पोशाकों की सिवन उधेड़ी जा रही होती है…
उस एक पल ही, किसी दुनिया में कविताओं
पर थोपी जा रही होती है वस्त्रहरण की परम्परायें
और कहीं बिना परम्पराओं के ही
किये जा रहे होते हैं वस्त्रहरण…
हे आधुनिक कवि!
जिस पल अपने लैपटाप पर कविता को टाईप करना
शुरु कर चुके होते हो तुम,
उसी पल न जाने कितनी कवितायेँ शोषित हो रही होती हैं,
उनके ही घर में… उनके ही लैपटाप पर शायद…
उनके निर्माण से ही शुरु हो जाता है उनका धीरे धीरे जलना,
फ़िर जैसे एक तीली से पूरी माचिस ही जला दी जाती है
अरे नहीं!! जलाना आधुनिक कहाँ रहा…
कवितायेँ तो आज मार दी जाती हैं खुलेआम
तुम्हारे समाज की हथेलियों में फंसाकर…
और मच्छ्ररों के लिये बाजार से स्प्रे ले आते हैं…
हे आधुनिक कवि!
जैसे ही तुम्हें लगता है कि तुमने
एक नयी कविता का सृजन कर डाला है,
कई नयी कवितायेँ भ्रूण में ही मार दी जाती हैं।
और जब तुम अपने नग्न विचारो में तलाशते हो
अपनी कविता के आधुनिक नाम…
नग्न नामों से बुलाया जा रहा होता है उन्हे
तुम्हारे कमरे की खिड़की से दिखते हुये ’किसी भी घर’ में…
हे आधुनिक कवि!
तुम जैसे ही अपनी कविता को पोस्ट करके
छटपटाते हो चन्द टिप्पणियो के लिये,
न जाने कितनी कविताओं का
झूठा पोस्टमार्टम हो रहा होता है,
… और उन्हे छटपटाने भी नहीं देता तुम्हारा ये समाज॥
हे आधुनिक कवि!
तुम कविता लिखना बंद क्यूँ नहीं कर देते??
27 comments:
मन को अच्छा लगने वाला बहुत बढ़िया लिखे हो भाई. यह कविता तो ब्लौगर कवियों के लिए मुफीक है.
अब देखना पिछली पोस्ट की तरह यहाँ भी कोई 'क्लेरिफिकेशन/ऐक्स्प्लैनेशन' नहीं देना पड़े कि "@जिन्हें थीम समझने में कन्फ्यूजन है:"
वो क्या है न कि ब्लौग जगत में 'सब धान बाईस पसेरी' चलते ही देखा है.
बेहतर व्यंग है पंकज ...
हे आधुनिक कवि!
तुम कविता लिखना बंद क्यूँ नहीं कर देते??
पहले तो ये बताया जाये कि ये किसके लिये लिखी गई है, अपने लिये या फ़िर....? :)
और रही बात टिप्पणी की तो ये लो -
"हे आधुनिक कवि!
तुम कविता लिखना बंद क्यूँ नहीं कर देते??"
:) :) :)
हे आधुनिक कवि!
तुम कविता लिखना बंद क्यूँ नहीं कर देते??
sahi kaha hai... par likhna band naa karein janab, bahut badhiyaa likhte hain aap
aaj pahli baar pahuncha.. achchha laga
hey adhunik kavi, tum laakh dikhao aaina,
ham to na sundhrne waale...
nahi band karne waale likhna
aakhir hamein bhi to bhavishya ke baare mein sochna hain
billion yrs baad jab fir sabyata ka vikaas hoga
aaj nahi to na sahi tab to hamara naam hoga :-)
Dekha kitne door ki sochi :-)
@विवेक जी:
ये एक व्यन्ग है.. मेरे पर ही शायद.. मै कौन होता हू जो किसी और पर कमेन्ट करू.. :)
....
हाल मे ही काफ़ी कुछ सुना, देखा.. बस एक दिन ये ’कुछ कविता सा’ लिख गया... कविता लिखनी तो मुझे नही आती.. उसका शिल्प ही कुछ और होता है...
पहले इन लिन्क्स पर घूम आये, शायद कविता ज्यादा सार्थक लगे:
http://kishorechoudhary.blogspot.com/2010/04/blog-post.html
http://prashant7aug.blogspot.com/2010/05/blog-post_28.html
बेहतर व्यंग
आधुनिक ....जो एक बार ठान लेते हैं वो बंद नहीं करते...और फिर बंद भी क्यों करें?
अब देखिये ना आपकी लिखी इस रचना पर भी टिप्पणी तो आ ही रही हैं ना....
वैसे व्यंग अच्छा है..
कवि मन की ये छटपटाहट और हताशा वाजिब,है...बेमानी लगने लगता है लिखना...और अर्थहीन लगने लगते हैं,शब्द...
पर कवि दुनिया के सामने इतनी कविताओं की सच्चाई तो ला ही सकता है....कहीं किसी कोने में एक कविता की ज़िन्दगी मुकम्मल हो जाए....तो सार्थक हुआ आधुनिक कवि का प्रयास...ना हुआ तो प्रयास जारी रहें...कभी, कहीं, कुछ तो बदलेगा..
बेहतर व्यंग है
मैं दुहराना चाहता हूँ -
"कवि शिल्प से नहीं, दिल से होता है"
सो तुम हो।
बढ़िया है यह रिएक्शनरी कविता, या प्रतिक्रियात्मक कविता। या कहें - "ई-कविता" जो अ-कविता के बाद नेट की पीढ़ी में, नेट के प्रतीकों और बिम्बों के सहारे तो गढ़ी गयी, मगर रची गयी प्रतिक्रिया में। ऐसे तो हर रचना किसी न किसी बात पर प्रतिक्रिया में ही होती है मगर वह कविता जो डायरी या कग़ज़ के बदले सीधे ई-स्वरूप में ही रची गयी हो, या ब्लॉग-कविता हो और प्रतिक्रिया-स्वरूप हो, जिसके बिम्ब भी आधुनिक ई-बिम्ब हों, उसे शायद ई-कविता कहना सहा जा सकता है।
वैसे हर कविता के मूल में पीड़ा ही होती है, कभी वो किसी भेस में आती है कभी किसी भेस में - मगर है वो कविता ही।
जारी रहिए…
बढ़िया व्यंग है यह ..
बहुत गहराई में आकर ,,,काव्य रचा है .....पढ़ते ही मुह से वाह ! निकल गया ...आज तो कमाल कर दिया
लिखना तो कब का छूट गया ...
हाँ यह और बात है के हम न तो कवि हैं और न ही कहानीकार ..
उम्दा रचना .. हमेशा की तरह...
आज के दो चेहरों वाले ढोंगी समाज पर सटीक कटाक्ष... एक कहावत सुनी थी बचपन में हाथी के दाँत खाने के और दिखाने के और... पर आज का इन्सान तो पूरा का पूरा ही दिखावटी हो गया है... इतना दिखावटी की सच के आईने में ख़ुद को देख के शायद पहचान भी ना पाये... डर जाएगा यूँ सरेआम आइना दिखाओगे तो :-)
क्या लिखते हो? निशब्द हूँ मैं.
जावा पे काम भी करते हो, कहानियां भी लिखते हो, लेख भी लिखते हो, कवितायें भी लिखते हो? आदमी हो या 'एलियन'? :)
शब्दों को ज़ोरदार तमाचा कायरों के मुह पे.
"तुम जैसे ही अपनी कविता को पोस्ट करके
छटपटाते हो चन्द टिप्पणियो के लिये,
न जाने कितनी कविताओं का
झूठा पोस्टमार्टम हो रहा होता है,
… और उन्हे छटपटाने भी नहीं देता तुम्हारा ये समाज॥ हे आधुनिक कवि!
तुम कविता लिखना बंद क्यूँ नहीं कर देते??"
हम ही ऐसा करते हैं और हम ही वैसा - हमारी कथनी और करनी में अंतर यहाँ भी स्पष्ट दिखाई दे रहा है - जो हम दूसरों को सुनाने/पढवाने/सिखाने के लिए लिखते हैं वो खुद नहीं करते. अगर आप मन से भी ऐसे हैं तो इस दिशा में आपकी सोच को नमन
मुझे लगता है कि आजकल अकवि लोग ही ज्यादा अच्छा लिखते हैं. इस मामले में मैं हिमान्शु मोहन जी से सहमत हूँ.
कविता लिखना कवि की मजबूरी है. वह चाह कर भी इसे बंद नहीं कर सकता.
@निशांत:
:) :) Loved your comment
@लवली जी:
शुक्रिया..
@अविनाश जी:
शुक्रिया..
@प्रिया:
बहुत दूर की :) वैसे तुम क्यू लिखना बन्द करोगी.. और हम क्यू किसी और को कहे, ये हमारे लिये है.. रश्मि जी शायद सबसे क्लोज पहुची है.. वो दिमाग मे चल रहा था उसके..
@शेखर जी:
शुक्रिया..
@संगीता जी:
आपने सही कहा.. आखिर मै भी तो वही हू, वही आधुनिक कवि..
@रश्मि जी:
कुछ समय से ये तो अच्छा हुआ है जो आपके कदम यहाँ पड़े हैं... आपने काफ़ी हद तक कविता को समझा है.. बस वैसे ही इक रात २ बजी की छटपटाहट और हताशा से ये कविता उपजी है...
@मनोज जी:
शुक्रिया..
@रंजू जी:
शुक्रिया..
@राजेन्द्र भाई:
बहुत बहुत शुकिया आपकी जर्रानवाजी का..
@मनोज:
हमेशा की तरह तुम्हारा एक और शुक्रिया.. :)
@हिमान्शु जी:
सारे शब्द कम पड गये.. इससे ’:)’ काम चलाता हू.. :)
@रिचा:
खुद को आईने दिखाने की कोशिश है..
@स्तुति:
बचिया!! कन्ट्रोल :P
@राकेश जी:
जी मै ऎसा बिल्कुल नही कर पाता, पर करना चाहता हू और ये कविता मुझे एक आईना है.. और जैसा रश्मि जी ने कहा कभी कभी शब्द अर्थहीन लगने लगते है.. एक हताशा, छटपटाहट होती है.. उसी से ये उपजी है... बस
@मुक्ति:
तुमको वापस देखकर अच्छा लगा... तुम्हारी निष्पक्ष टिप्पणियों को एक-दो पोस्ट पर मिस किया... लेकिन चलता है.. होप कि अभी तुम ठीकठाक हो...
बज़ से:-
Somyaa mehta -
OMG! Pankaj... this poem gonna be the representative poem of new wave in hindi literature :P May Be --- nayi dhaara ka naam - " net kavita " after nayi kavita :) Good Going!!
Dr. Mahesh Sinha -
हे आधुनिक कवि!
तुम कविता लिखना बंद क्यूँ नहीं कर देते??
वाह
कहीं पुराने कहे जाने से डरते हो
ये तो हम पर ही है ...:( अब हम टिप्पणी क्या दें ? ).
वैसे हमसे भी ये कहा जाता है
हे आधुनिक कवि!
तुम कविता लिखना बंद क्यूँ नहीं कर देते??
तो हम तो यही कहते हैं
कि कवि शिल्प से नहीं भाव से होता है ,मन से होता है ,और मन पर तो किसी का वश नहीं ..
मज़बूरी है क्या करें :(
कवि आधुनिक हो या पुरातन ...
नहीं लिखेगा तो नष्ट हो जायेगा ...
लिखना उसकी मजबूरी है ....!!
बहुत ज्यादा कवियों के लफड़े में नहीं पड़ना चाहिए। ज्यादातर कवि झूठ बोलते हुए कविता लिखते हैं। ज्यादा कुछ बोलो सालों को तो रोने लगेंगे। संवेदनाओं का सूपा फटकारने का स्वांग करते हुए अपने दुनिया सबसे संवेदनशील आदमी बताने का प्रयास करेंगे। मैं इनकी रग-रग से वाकिफ हूं इसलिए जो वाकई अच्छा लिखते है उन्हे तो बधाई देता हूं बाकी इनके लिखे हुए से दो आदमी को भी फायदा पहुंच जाएगा.. ऐसा मुझे नहीं लगता।
शशक्त अभिव्यक्ति ... अपने आपसे उलाहना ... आसान नही ... आपकी ईमानदारी अच्छी लगी ...
जनधारा में पोस्ट प्रकाशित होने की बहुत बहुत बधाई ....ऐसी बहुत सारी ख़बरें पढने को मिलें ...शुभकामनाएं
मन को इतनी बेबाकी से कह पाना तो तुमसे सीखना चाहिये । पता नहीं किस की आस हमारी कविता के भावों को अशक्त बना देती है । ऐसी ही परेशानी से मैं प्रतिदिन लड़ता हूँ और जिस दिन जीतता हूँ, कविता नहीं लिखता हूँ । भावातिरेक में जिस दिन नहीं लिख पाता हूँ, उस दिन अपने आप को और भी कोसता हूँ । कविता से दुख बाँटता हूँ तो दुख होता है । खुशी बाँटता हूँ तो अपेक्षा पूरी नहीं होने पर दुख होता है । आधुनिक तो नहीं, पर कविता से मेरा क्या सम्बन्ध है, मुझे पता ही नहीं । मन का प्रश्न इतने सरल और प्रभावी ढंग से उठाने के लिये ढेर आभार ।
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