Monday, September 5, 2011

रिसेशन– नॉट अ मनोहर कहानी

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कई दिनो से वह बहुत खुश थी। आँखो की चमक काफ़ी बढ गयी थी, मुस्कराहटें मीलों जितनी चौडी हो गयीं थीं। एक हफ़्ते बाद उसके बच्चे इंडिया से उससे मिलने आ रहे थे। ऎसा उसने ही मुझे बताया था। वो अमेरिका में उनकी छुट्टियों भरे दिनों को प्लान कर रही थी। डिज़्नी लैंड के टिकेट्स भी ले डाले थे। मुझसे ये सब बताते हुये वो खो जाती थी शायद वहाँ चली जाती थी जहाँ अभी उसके बच्चे थे और उनके भी बच्चे, जो कहीं जाकर वहीं रह गये थे और वो यहीं रह गयी थी। वो मुझे अपने कंप्यूटर पर उनकी तस्वीरें दिखाती और कहती कि जब वो आयेंगे तो मुझे उनसे मिलवायेगी। मैं कहता कि मुझे अच्छा लगेगा जैसा मुझे उसके साथ अच्छा लगता है।

 

वो मीरा की पहली इंटरनेशनल फ़्लाईट थी। नये देश जाने का भी एक एक्साइटमेंट था और ऊपर से अमेरिका। लेकिन वो अमेरिका गये लोगों की तस्वीरें फ़ेसबुक पर देख देखकर ऊब गयी थी। उसने सोच लिया था कि वो स्टेचु ऑफ़ लिबर्टी के पास वाली फ़ोटो चाहे फ़ेसबुक पर डाल दे लेकिन हॉलीवुड वाले पहाड के सामने तो फ़ोटो बिल्कुल भी नहीं खिंचवायेगी। जिसे देखो वही तो वहाँ की फ़ोटो डाले हुए है। नहीं… फ़ोटो ले तो लेगी ही बस उसे फ़ेसबुक पर नहीं डालेगी ये सब सोचते हुये उसने समीर की तरफ़ देखा। वो उसकी बगल की सीट पर बैठा हुआ मैगजीन पढने में लगा हुआ था। पेरिल्स ऑफ़ ऎन अरैंज्ड मैरिज  – वो फ़िर सोच में डूब जाती है और खिडकी से बाहर बादलों को देखने लगती है।

 

वो सोमवार का दिन था। उस दिन मैं थोडा लेट था। वीकेंड की फ़्रेश डार्क बीयर और आईरिश कॉफ़ी का कांबिनेशन अभी तक दिलोदिमाग पर छाया हुआ था। अपना कार्ड स्वाईप करके मैंने अपने फ़्लोर पर एंट्री मारी। कहीं एक बे(Bay) में काफ़ी सारे लोग जमा थे, शायद किसी का जन्मदिन था। मैंने दूर से ही उन्हे हाथ हिलाया और सोचा चलो कुछेक घंटे बिना काम के कटेंगे। दो कदम बढा ही था कि देखा सामने से वो चली आ रही थी। उससे थोडी दूरी बनाकर एक सिक्योरिटी वाला भी चल रहा था जिसे देखकर कोई भी यही समझता कि वो उस की हरकतों पर निगाह रख रहा था। मैंने हाथ के इशारे से उसे हेलो कहा। उसका चेहरा बाढ आने के ठीक पहले वाली अवस्था में था जब आँखों से बहने वाली नदी खतरे के निशान को बस पार करने ही वाली होती है।  वो मेरे पास आयी और मुझे अपने गले से लगा लिया। सिक्योरिटी गार्ड अभी भी उसे देख रहा था।

 

दोनों को फ़्लाईट से बाहर आये हुये तो आधे घंटे हो गये थे लेकिन उनका सामान अभी तक नहीं आया था। अपने सामान का इंतजार करते हुये समीर सोच रहा था - पेरिल्स ऑफ़ अ मैरिज। मीरा जे एफ़ कैनेडी एयरपोर्ट पर दौडते भागते विदेशियों को वैसे ही देख रही थी जैसे हम किसी नये शहर की एक एक चीज़ को देखते हैं… समझते हैं। विदेशी भी उसे वैसे ही देख रहे थे या शायद नहीं देख रहे थे, उसे सिर्फ़ लग रहा था कि वे उसे देख रहे हैं। समीर ने सामान उतारा, गिना और फ़िर उन्हे कायदे से मीरा के पास रखकर वो उसे ’दो मिनट’ कहकर वाशरूम की तरफ़ गया। जाते हुये उसने मोबाईल निकाला और वो मैसेज फ़िर से पढा जो अभी अभी आया था और जिसे पढकर उसने सबसे पहले मीरा को देखा था। और तब मीरा एयरपोर्ट की चकाचौंध में खोयी हुयी थी…

वो सिर्फ़ इतना बोल पायी कि दे हैव फ़ायर्ड मी। उसके बाद के उसके शब्द हैप्पी बर्थडे की तालियों और उस खुशी भरे गाने के बोझ तले रह गये जैसे किसी कहानी के दर्दनाक मोड पर गलती से खुशियों भरा बैकग्राउंड संगीत बज उठे।  बे से तालियां बजाते कुछेक लोग मुझे चिल्लाकर बुला रहे थे। मैं उनकी तरफ़ से नज़रें हटाकर उसकी तरफ़ देखता रहा। कितना अज़ीब होता है न कभी कभी एक ही कदम के फ़ासले पर सुख और दु:ख दोनो का होना? एक कदम आगे बढ जाओ तो सुख के साथ थोडा हंस बोल लो, एक कदम पीछे आओ तो दु:ख से गले मिल लो। मुझे पीछे आने की भी जरूरत नहीं थी। वो मेरे सामने थी और सिक्योरिटी वाला उसके क्यूबिकल से उसका सामान निकालकर पैक कर रहा था। मैंने उसके सर पर हाथ रखा। वो बोली कि सब खत्म हो गया। बच्चे आ रहे हैं आज। खुशी मनाऊं की दुख, मुझे समझ नहीं आ रहा? मैं उसके साथ साथ बाहर आ गया। उसे हिदायत दी गयी थी कि किसी को पता न चले वरना एक डर फ़ैल जायेगा और वो चाहते थे कि सारे प्रोग्राम्ड लोग अपनी प्रोग्राम्ड ज़िंदगियों को वैसे ही जीते रहें बिना इस डर का आभास किये हुये।

लेकिन उसकी ईमेल आईडी जब कल से काम नहीं करेगी, तो डर नहीं होगा? कल से जब वो अपने क्यूबिकल, अपने बे में नहीं दिखेगी तो डर नहीं होगा? डर को हम कैसे बाँध सकते हैं? रोक सकते हैं?

हम दोनो गेट पर खडे थे। सिक्योरिटी वाला उसका सामान पैक करके ला चुका था। मैंने उससे सामान लिया और उसकी कार तक आया। उसने मुझे फ़िर गले से लगाया और इस बार फ़फ़क फ़फ़ककर रो पडी। मेरे मुँह से बस एक लाईन बार बार निकल रही थी – आई विल मिस यू मिसेज खान।……

 

वाशरूम में समीर ने पानी का टैप खोला, मुँह पर थोडा पानी डाला, थोडे से बाल गीले किये और फ़िर वो अपने आप को शीशे में देखने लगा, सोचने लगा…

बास्टर्ड्स, हाउ कैन दे फ़ायर मी विदआउट एनी नोटिस! अब मैं क्या करूं? मीरा से क्या कहूँ? उफ़्फ़!!

क्या करूं मैं? ऑफ़िस वालों ने जो घर दिया था वो भी अब मेरा नहीं रहा। अपनी बीवी को जिसको मैं इंडिया से ब्याहकर लाया है, उसे अमेरिका में कहाँ ले जाऊं? मैंने अभी शादी ही क्यों की? उस बेचारी का इसमें क्या दोष है? क्या क्या तो सपने सजाये होंगे उसने? आई एम अ मोरान।

मीरा सामान के पास खडी सोच रही थी कि इस घर में क्या क्या करेगी जिससे इंडिया वाली फ़ीलिंग रहे। पता नहीं यहाँ कोई हिंदी न्यूजपेपर आता भी होगा या नहीं वरना वही लगवा देती। सुबह सुबह चाय के साथ हिंदी अखबार हो तो लगता है जैसे घर में ही हैं। तुलसी का एक पौधा मिल जाय तो उसे भी एक गमले में लगा देगी। थोडी केयर करनी पडेगी लेकिन देखेगी, समीर से पूछेगी। एक तो ये बोलते भी कम हैं।

मैं मिसेज खान को विदा करके वापस ऑफ़िस में एंट्री कर ही रहा था कि देखा समीर का फ़ोन है। मैं उसकी शादी में भी जा नहीं पाया था, लगा कि गालियां देगा और फ़िर मिसेज खान के साथ जो कुछ भी हुआ मैं खास किसी से बात करने के मूड में नहीं था। पर जाने कैसे मोबाईल पर उंगलियां दबीं और फ़िर दूसरी तरफ़ उसकी कांपती आवाज़ थी और फ़िर आँखो के सामने एक के बाद एक बनते सीन। मेरा फ़्लोरिडा वाला घर अभी खाली पडा हुआ था। कुछेक महीने मुझे यहीं न्यूयार्क में क्लाईंट लोकेशन पर ही रहना था। मैंने उससे कहा कि रुक मैं एयरपोर्ट आ रहा हूं फ़िर तुम लोग फ़्लोरिडा चले जाना और वहीं मेरे घर पर ही रह लेना। मीरा को मत बताना कि वो घर तुम्हारा नहीं है और फ़िर अगले १-२ महीने में दूसरी नौकरी ढूंढते हैं।

 

समीर वाशरूम से आया। मीरा ने पूछा कि बडी देर हो गयी तो उसने मीरा को गले लगा लिया। मीरा कुछ भी नहीं समझ पायी और इससे पहले वो कुछ पूछ पाती, समीर ने कहा कि हमें फ़्लोरिडा जाना होगा। लेकिन आप तो एनवाईसी में रहते थे न? समीर मुस्कराया और उसे फ़िर गले से लगा लिया। मीरा का मुँह खुला लेकिन वो शब्द बाहर नहीं आये – पेरिल्स ऑफ़ एन अरैंज्ड मैरिज

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ब्लॉगर की कलम से: समीर से मिलने जब मेरा कॉलीग (जिसने जाने किस मूड में आकर मुझे ये रिसेशन कहानियां सुनायीं थीं और जो मैंने बिना उसे रॉयेलिटी दिये यहाँ छाप डालीं), एयरपोर्ट पहुँचा तो समीर ने उसे भी कुछ मीरा की तरह ही गले लगाया था। ना जी ना आप तो काफ़ी डीप जाने लगे।

मिसेज खान को ऑफ़िस से छुट्टी मिल गयी थी इसलिये उन्होने अपने बच्चों और उनके भी बच्चों के साथ फ़ुलटू मस्ती काटी और ढेर सारी तस्वीरें भी फ़ेसबुक पर डालीं। फ़ोटो एल्बम का शीर्षक था – आई एम फ़्री। बच्चों के जाने के बाद उन्होने फ़िर कुछेक कंपनीज में कोशिश की और कोशिश करने वाले की हार नहीं होती है कि तर्ज़ पर वो एक कंपनी से जुड गयीं, थोडे और ज्यादा वेतन पर।

सुनने में आया कि बाद में किसी बेनामी(हाँ यहाँ भी बेनामी)  ने शिकायत कर दी कि बर्थडे सेलीब्रेशन से उसे और बाकी लोगों को काम करने में दिक्कत होती है (पक्का उसे केक नहीं मिला होगा) और उसके बाद से सारे सेलीब्रेशन कैंटीन/कफ़ेटेरिया में होने लगे और लोगों की आध्यात्मिक शांति के लिये बे को किसी भी प्रकार के सेलीब्रेशन से मुक्त कर दिया गया। काश ये थोडा पहले हो जाता।

समीर की जब नौकरी लगी और उसने जब मीरा से वापस न्यूयॉर्क चलने के लिये कहा तो मीरा ने वापस वही सोचा जो आपको तो पता ही है। लेकिन जब समीर ने उसे सारी कहानी सुनायी तो इस बार उसने उसे गले से लगा लिया। (फ़िर आप गलत दिशा में जाने लगे।) मीरा अभी समीर से पूछना चाह रही है कि तुलसी के पौधे को फ़्लाईट से ले जा सकते हैं क्या? लेखक (हाँ हाँ टेंशन क्यों ले रहे हैं? मुझे क्या पता था कि आप इतनी कायदे से पढेंगे। चलिये लेखक नहीं ब्लॉगर, खुश? हुँह!) ब्लॉगर को ,जो खुद कभी अमेरिका नहीं गया है, ये अभी तक पता नहीं है कि हिंदी अखबार अमरीका में आते हैं कि नहीं और जब मुझे ही नहीं पता है तो मीरा को कैसे पता होगा। आपको पता हो तो जरूर बतायें। हिंदी के प्रचार-प्रसार में आपका योगदान सराहनीय रहेगा।

जाते जाते: रिसेशन के नाम पर नौकरी से निकाले गये सारे लोगों की कहानी ऎसी हैप्पी इंडिग वाली नहीं होतीं। बैठे बिठाये जाने क्या क्या छिन जाता है- नाम, रुतबा, सपने, ज़िंदगी। कुछ चीजें नहीं छिनती और वो शाश्वत रहती हैं जैसे लिये गये लोन्स, क्रेडिट कार्ड की ई.एम.आई. और विदेश जाने और वहाँ बसे रहने की चाहत। कहानियों में भले कोई बौराया, बोर टाईप का ब्लॉगर (अपनी ही बात कर रहा हूँ साहेब, आप फ़िर दिल से ले बैठे) उन्हे किसी सरफ़िरे हंसीन मोड पर छोड आये लेकिन असलियत में ये कहानियां दु:खों, तकलीफ़ों की ऎसी ऎसी अँधेरी गुफ़ाओं से गुज़रती हैं  जहाँ रोशनी तो दूर, साँस लेने के लिये ऑक्सीजन भी नहीं मिलती।

Sunday, August 21, 2011

इति श्री रामलीला मैदान कथा…

दिन :- शनिवार, २० अगस्त, २०११

समय: शाम ७ बजे से ११ बजे तक

सीन १ -

वॉलंटीयर्स पूरियां, पानी बांटते हुए। जनता पूरी-पानी खा लेने के बाद पॉलीथीन्स को वहीं फ़ेंकती हुयी। वॉलंटीयर्स और कुछ भले लोग उन्हे वापस कूडेदानों में डालते हुये। मैं सोचता हूँ कि हमें इसी जनता के हाथ में जन-लोकपाल बिल देना है।

सीन २ -

स्टेज पर कोई कुछ भी बोलता हुआ, कोई आरक्षण पर तो कोई सेकुलरिज़्म पर। मुद्दे हाईजैक हो चुके हैं। अन्ना बेचारे चुपचाप लेटे हुए हैं। जनता हर थोडी-थोडी देर में ’वंदे मातरम’ के नारे लगाती हुयी। थोडी-थोडी देर पर देशभक्ति के गाने। आह, मुझे ’भीड’ से डर क्यूं लगता है मैं  उनपर विश्वास क्यों नहीं कर पाता।

सीन ३ -

एक बूढा आंदोलनकारी अपने तरीके से अलग-थलग कुछ मोमबत्तियां जलाये हुए अपनी दुनिया में खोया हुआ है। उसके ऊपर एक खायी पीयी घर की अमीर महिला झुककर ’से चीज़’ का पोज़ देती हुयी। बाकी दो हम - उम्र महिलायें तस्वीरें लेती हुयीं। पहली नज़र में मुझे लगा वो बूढे सज्जन इनके साथ हैं फ़िर अहसास हुआ कि ये तो 'OMG revolutionary. mumma look' वाली आंटिया हैं। कुछेक सभ्य और सेंसिटिव महिलायें लोगों के बैठने के लिये दरों को साफ़ करती हुयी, जोर शोर से देशभक्ति के गाने भी गाती हुयी।

सीन ४ -

’मैं अन्ना हूँ’ टोपी लगाये और बीईंग ह्यूमन लिखी टी-शर्ट पहने एक लडका मुझे अपनी तस्वीर खींचने के लिये कैमरा देता है। मैं एक तस्वीर लेता हूँ। वो कहता है थोडी पास से लीजिये और खुद ही पास वाली रेंज में आ जाता है। मैं एक तस्वीर लेता हूँ। जाने क्यों वो मुझे उस टोपी में एकदम नेहरु जैसा लगता है। मैं उससे मज़ाक करता हूँ कि अन्ना की टोपी में एकदम नेहरू लग रहे हो, वो थैंक्स बोलकर चला जाता है। अभी उसे और एंगल्स से तस्वीरें खिंचवानी हैं। उसे अन्ना की टोपी में नेहरू लगना भाता है। वहीं एक वॉलंटीयर जनलोकपाल और लोकपाल बिल के अन्तर बताने वाला पर्चा बांट रहा है। मैं सिर्फ़ उससे पूछता हूँ कि ये क्या है दोस्त? वो मुझे २ मिनट बहुत जोश से भरी कुछ बातें बताता है। मेरे हाथ आगे बढाने पर वो हाथ मिलाता है और तभी रुकता है। मैं उसे अप्रीशियेट करता हूँ वो मुस्कराता है। उसे खुशी है कि किसी ने उसे अप्रीशियेट किया। मुझे खुशी है कि वो खुश है।

सीन ५ -

भीड में मैं खडा हूँ, कुछ लोग स्टेज़ पर जाने के लिये रास्ता ढूंढ रहे हैं, उनके साथ एक अंग्रेज़ भी है। मैं जिधर खडा हूँ, उसकी दूसरी तरफ़ से स्टेज़ पर जाने का रास्ता है। मैं वहीं देशभक्ति के गानों में इन्वॉल्व हूँ। तभी अरविंद गौड अनाउंस करते हैं कि हमारी क्रांति विदेशों में भी फ़ैल चुकी है और यूके से हमारे साथ एक भाई जुडे हैं जो कुछ कहना चाहते हैं। ३-४ लोग स्टेज पर आते हैं, वो अंग्रेज भी उनके साथ है। अरविंद जी माईक पर धीरे से कहते चले जाते हैं कि हिंदी में बोलियेगा। यूके वाले एन आर आई भाईसाहेब जिनके साथ सबसे बडी बात यही है कि वो एन आर आई हैं। आकर कुछ कहने की कोशिश करते हैं, नहीं कह पाते तो अंग्रेजी में कहते हैं और फ़िर माईक उस अंग्रेज को दे देते हैं। वो कहता है आई लाईक इंडिया, आई लाईक इंडियन पीपल और बाकी सारे खुश होकर वंदे मातरम के नारे लगाते हैं। न्यूज वाले इसी घटना को ऎसे दिखा रहे होंगे कि एक अंग्रेज ने भी इस मुहिम को समर्थन दिया।

सीन ६ -

रामलीला मैदान से वापसी करते हुए नयी दिल्ली मेट्रो स्टेशन पर कुछ लडकों का जत्था ’हम होंगे कामयाब’ गा रहा है। रवि उस तरफ़ खिंचता है। मैं मना करता हूं थोडी खाली जगह भी है उससे कहता हूं वहीं खडे होते हैं। वो उधर ही जाना चाहता है| मैं भी उसका साथ देता हूँ। वो गा रहे हैं, वो नारे लगा रहे हैं। कुछेक लोग उनके पास खडे मुस्करा रहे हैं। मेट्रो आती है। वो पूरा जत्था उसमें घुसने लगता है। अंदर से एक बूढा उतरना चाह रहा है। मैं चिल्लाता हूँ अरे पहले उतरने तो दो। भीड मेरी नहीं सुनती। सब भीतर चले जाते हैं। मैं और रवि बाहर हैं। अंदर जाने को ही होते हैं कि रवि कहता है मेरा मोबाईल तुम्हारे पास है। मैं जेबें टटोलता हूं और ना में सर हिलाता हूँ। वो कहता है कि किसी ने मार लिया यार। बूढा तभी नीचे उतरता है। मैं सॉरी वाली नज़र से उससे आँखे मिलाता हूं। उसकी शर्ट के कुछ बटन्स खुल गये हैं और वो बुदबुदा रहा है जो मुझे एकदम समझ में आता है। मन में मैं भी शायद उन सो-कॉल्ड जोशीले युवाओं को वही सुना रहा हूँ। हम रवि का नोकिया एन ८ ढूंढ रहे हैं। फ़ोन गायब होने के बाद स्विच ऑफ़ हो चुका है। ’अन्ना तुम संघर्ष करो’ की सारी तस्वीरें और वीडियोज उसके साथ ही चले गये। आखिर क्रांति कुर्बानी माँगती है। रवि उदास है। कहता है कल भी आने का मन था अब शायद ना आ पाऊं। मन ही मन वो भी शायद वही बुदबुदा रहा हो।

सीन ७:

मेट्रो में भी हम ’मैं अन्ना हूँ’ वाली टोपी पहने हुये हैं। इसीलिये शायद एक सरदार लडका हमारे पास आता है और पूछता है कि रामलीला मैदान में क्या माहौल है? कुछ देर बात होती है। पता चलता है कि वो हमारे पास के सेक्टर में ही रहता है। बात धीरे धीरे खत्म हो जाती है और हम अलग अलग सीटों पर बैठ जाते हैं। उसे एम.जी. रोड उतरना है। वो उतरने से पहले हमारे पास आता है हाथ मिलाता है फ़िर पूछता है कि आईये, मैंने अपनी कार यहीं पार्क की हुयी है। आपको भी आपके घर ड्रॉप कर दूंगा। हम एक दूसरे को देखते हैं फ़िर उसके साथ उतर जाते हैं। वो हमें घर छोडता है, हमारा नं० लेता है, किसी वीकेंड पर मिलने का वादा भी करता है। हमें समझ नहीं आता कि हम शक्ल से इतने अच्छे थे या ये अन्ना टोपी या ये लडका ही इतना अच्छा है। लडके को ही अच्छा मानते हुये हम दोनो अपने घर चले आते हैं…

Wednesday, July 13, 2011

जो भी हैं बस यही कुछ पल हैं…

छुट्टियों कि उम्र कितनी होती है? मेरी भी खत्म होनी थीं। बस अब जैसे इन तस्वीरों में उनके जीवाश्म बचे हैं ये बताने के लिये ये हुआ था… मेरे ही साथ… कभी। कि ज़िंदगी कुछ पल थमी थी, बारिशों की बूंदो के साथ साथ थोडे सुख बहकर आ गये थे। कि भुने भुट्टों के साथ घर पर बने नमक का स्वाद था। शाम की चाय थी, दहकती बहकती गर्मी थी और रात में बिजली चली जाने पर छत पर कभी कभार बहने वाली ठंडी हवा… एक सारा आकाश (राजेंद्र यादव वाला नहीं) था और उसके तले बस एक चारपाई… एक नया बना कमरा था (जिसे पापा ऑफ़िस के लिये और मैं लायब्रेरी के लिये इस्तेमाल करता हूँ), टेबल फ़ैन था और निर्मल वर्मा द्वारा अनुवादित कुछ चेक साहित्य। कि रात बहुत जल्दी होती थी और दिन भी बहुत जल्दी निकलता था… कि नींद थी और बहुत थी।

कि नैनीताल की एक शाम थी.. कुछ बौराये-पगलाये दोस्त थे… उनके साथ बिताया एक अतीत था जो काँच के गिलासों से छलक आता था। कि कुछ ताश के पत्ते थे… एक दूसरे की बहुत सारी टॉग-खिंचाई थी, कुछ इललॉजिकल बहसें थी और कुछ बेहूदा, बेहद बेहूदा बातें भी।

कभी-कभी, जब ज़िंदगी ऎसी लगती हो जैसे मुँह में एक चम्मच हो और उसपर काँच की एक गोली। सामने एक पूरा सफ़र हो और चलने के साथ साथ काँच की इस गोली को संभालने का एक उत्तरदायित्व। ऎसे किसी छुट्टियों भरे मोड़ पर दोस्त मिलते हैं और जाने क्या क्या गिरता-टूटता है, जाने कहाँ कहाँ का फ़ंसा कचरा बह जाता है। ऎसे वक्त साहिर के ये बोल बरबस याद आ ही जाते हैं कि जो भी हैं बस यही कुछ पल हैं (शब्दों से थोडी छेडछाड के लिये साहिर से माफ़ी आखिर छुट्टियां खत्म हुये अभी दिन ही कितने हुये हैं!)

 

मोबाईल जो मेरी तरह पुराना हो चला है, उसी से ली गयी कुछ तस्वीरें…

 

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और कुछ प्रबल के कैमरे से क्लिक की हुयी…

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Sunday, June 26, 2011

डर…

वो समय डरावना था। हालांकि डरावनी फ़िल्मों जैसा उसमें कुछ भी नहीं था। यहां तक कि उसके आस पास जो किताबें बिखरी रहतीं थीं वो भी किसी ऎसे जेनर में नहीं आती थीं जिसका डर से दूर दूर तक कोई नाता हो। दिन में घर में सूरज की रोशनी रहती थी। रात में बल्ब कमरों में दूधिया रोशनी बिखेरते थे। गर्मी में पंखा घूमता रहता था और उसके घूमने की आवाज भी डरावनी नहीं होती थी। यहाँ तक कि उन कमरों में ऎसी कोई तस्वीर भी नहीं थी जिन्हे गलती से देखकर डरा जा सके। फ़िर भी डर था…

 

डर जो आँखे बंद करने पर बगल में सरक आता था। आँखे खोलो तो सब वैसा ही होता था जैसा नींद लगने से पहले था। बंद करो तो लगता डर सा कुछ उसके ऊपर ही लेटा हो। आँखे खोलता तो सीने पर किताब होती। उसे उठाता और सर के आस पास बेड में बने हुये किसी भी खाने में डाल देता और फ़िर सो जाता। सपने आते जो पता होते कि सपने ही हैं फ़िर भी वो उनमें फ़ंसता जाता। एक सपने से दूसरे में, दूसरे से तीसरे में, एक भूलभुलैया सा वो उनमें भटकता रहता। वो सपने के भीतर ही छटपटाने लगता, भागने की कोशिश करने लगता, हाँफ़ने लगता जबकि उसके जागते हुये भीतर को पता होता कि ये एक सपना ही है, असल में वो बिल्कुल नहीं हाँफ़ रहा, वो तो आराम से सो रहा है। वो अपने हाथ पैर हिलाना चाहता लेकिन वो हिलते नहीं। अब वो और परेशान हो उठता और कोशिश करता कि जाग जाय। उसे लगता कि वो इन सपनों में ही मार दिया जायेगा और  उसे जानने वाले कभी जान भी न पायेंगे वो किसी हास्यास्पद मौत नहीं मरा बल्कि किसी साजिश के तहत उसका कत्ल हुआ है। अगर पैरलल वर्ल्ड सिद्धांत हमें एक साथ कई दुनिया में उपस्थित रखता है तो क्या ऎसा भी होता होगा कि एक साथ कई लोग एक ही सपना देख रहे हों और अगर ऎसा हो सकता है तो कोई तो चश्मदीद गवाह होगा जिसने उसे भागते, छटपटाते और मरते देखा होगा? लेकिन सपनों पर हम यकीन कहाँ करते हैं, क्या मेरे जानने वाले करेंगे?

 

इसी उधेडबुन में वो एक आखिरी कोशिश करता और जाने कैसे उठकर बैठ जाता। इस ’जाने कैसे’ के फ़ार्मूले को वो समझना चाहता था कि वो उस आखिरी कोशिश में ऎसा क्या कर देता है कि इस दुनिया में लौट आता है। वो इस दुनिया में लौट आता है,  वो ’ऎसा कुछ’ कर देता है कहीं ये भी एक सपना तो नहीं?…

 

Saturday, April 16, 2011

वे दिन

फ़ोन पर एक लंबे सन्नाटे के बाद मैंने कहा, रिजर्वेशन करवा देता हूँ। ’रहने दो, इंटरसिटी से ही आ जाऊंगा।’ मैंने कहा ’दिक्कत होगी।’ ’नहीं होगी! रहने दो।’

दो दिन के बाद वो यहाँ थे। वे इंटरसिटी से भी नहीं आये थे बल्कि किसी ट्रेन में रिजर्वेशन करवाकर ही आये थे। माँ के जाने के बाद हम अक्सर ऎसा करते थे। बिना एक दूसरे को बताये एक दूसरे की बात मान लेते थे। नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर वो खड़े थे। हाथ में एक बैग था जिसमें मेरी मंगवाई हुयी एक किताब थी और उसके अलावा मेरे और उनके कुछ कपड़े। कुछ समय पहले भी मुझे लखनऊ की एक बस में बिठाते वक्त वो ऎसे ही खड़े थे। उस समय हम दोनों को डर था कि हम दोनो कहीं टूट ना जायें। उनका डर मेरा वहम भी हो सकता है लेकिन मैं सच में नहीं जानता हूँ कि अगर वो मुझे विदा करते हुये टूट गये होते, तो मैं क्या करता? उस वक्त आखिरी क्षण तक मैं यही सोचता रहा कि इस बार उनके गले लगूंगा और डरता रहा कि अगर वो टूटे तो क्या मैं उन्हें संभाल पाऊँगा? इसी उधेड़बुन में बस ड्राईवर ने चलने का संकेत दिया और मैं उनके पैर छूकर बस में बैठ गया। बस चली और उसके साथ साथ वो भी चल दिये। मैं देर तक देखता रहा कि वो शायद मुड़ें और मुड़कर मुझे देखें। वो नहीं मुड़ें बल्कि आगे वाले मोड़ से बस मुड़ गयी। और पूरी यात्रा में मैं यही सोचता रहा कि अगर वो पलटकर पीछे देख लेते तो मैं क्या करता?

वे सामने ही खडे थे। वे मुस्करा रहे थे। मैंने उनके पैर छुये, उनके गले लगा और दोस्तों के जैसे उनके गले में हाथ डाल दिया। न जाने मुझे क्यों लग रहा था कि ये दुनिया इनके लिये एकदम नयी है और इस वक्त मैं इनका दोस्त, बडा भाई या पिता हूँ जिसने ये दुनिया ज्यादा देखी है। उनका कहना था कि ये दुनिया तो नहीं लेकिन इस दुनिया के कुछ तत्व उनके लिये तो अवश्य ही नये हैं। जैसे एस्केलेटर्स पर चलते हुये जब उनसे आँखे मिलती हैं, बडी मासूमियत से खुद ही कहते हैं - लिफ़्ट में पहले भी चढ चुका हूँ, एस्केलेटर्स पर पहली बार है और उसके बाद वो व्यस्त हो जाते हैं सीढियों को ऊपर जाते देखते हुये जिससे सही समय पर चलती हुयी सीढी से पैर बाहर रख सकें। बरिस्ता में कोल्ड कॉफ़ी पीते हुये कॉफ़ी की चॉकलेट और आईसक्रीम से बनी आकर्षक काया की जगह मेनू पर लिखे टेढ़े-मेढ़े रेट्स को निहारते रहते हैं।

उन दिनों हम एक शहर के बाद दूसरा शहर घूमते हैं। मेट्रो में साथ साथ अगले स्टेशन का इंतजार करते रहते हैं। मेट्रो के रूट के नक्शे को समझते रहते हैं। मेट्रो से कुतुबमीनार और छतरपुर के मंदिर देखते रहते हैं। इंडिया गेट के पास बैठकर लावे खाते हैं। जब तक थक न जायें, सीपी के चक्कर लगाते हैं। अक्षरधाम में कैन वाली कोक पीते हैं। गुडगाँव की व्यस्त सड़कों को एक दूसरे का हाथ पकड़कर पार करते हैं। सदर घूमते हैं और गुडगाँव के एक दो मॉल भी। घर में साथ बैठकर आईपीएल देखते हैं, रामनवमी को साथ व्रत रखते हैं और पास में बने एक मंदिर में भी जाते हैं।

फ़िर एक दिन शाम को उन्हें जाना है। वो सुबह जल्दी ही उठ जाते हैं। गैस की कुछ दिक्कत भी है। एक दो घंटे बाद मेरी भी आँख खुलती है। देखता हूँ कि वो मुझे सोते हुये देख रहे हैं। मैं अपने बिस्तर से सरकते हुये उनके पास पहुँच जाता हूँ और उनकी गोद में सर रख देता हूँ। वो मेरे सर पर हाथ फ़ेरते हैं, मैं फ़िर से सो जाता हूँ।

उस शाम वो वापस घर चले जाते हैं। उनके पीछे छूट जाते हैं तो ये कुछ दिन,  जिन्हें मैं किसी फ़्रिज में हमेशा के लिये नहीं रख सकता इसलिये सहेजकर कभी किसी कहानी में रखना चाहता हूँ। शायद इसी कहानी में…

Jagjit Singh Live (An old memoir)

This is an old post which was lying up with my English blog which is no more and as that blog is no more, I want to keep this post here to cherish it forever.

I offer my apology for the bad English used over here and please feel free to skip this post. I promise I wont come back to you and ask you about this post. Smile

 

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Oct 2008:

To be very honest, I'd never been to a concert before. There were a few concerts when I was in college - Euphoria, Jal, Kailash Kher etc but I've never taken them very seriously. So yesterday night, I've been officially to a concert and that was of 'Jagjit Singh'. It was a melodious evening where only emotions were in the air- each and every type of emotion.

I’d always wondered about the crew behind the jagjit singh's live performances and yesterday that crew was there with him on the stage and they were simply amazing yesterday night. They played, they enjoyed, they made us thrilled, they added sweetness to jagjit's voice, they went beyond the expectations. They made that show a musical extravaganza. Let me introduce them:

Abhinav Upadhyay: He was playing 'Tabla' and was leading the troupe from the front. I saw him smiling only and praising for others. It was very common to hear a 'Wah' from him for the troupe. Thanks for the autograph Sir, you gave that though you were so busy.

Heera Pandit: He was on 'Dholak' and awesome with that. He got surprised when I requested for the autograph. I was able to see the 'happiness' on his face. Thanks 'sir' for the autograph.

Mr. Peterson: He was on guitar. An old man with a young instrument and when he played with the six strings, ghazals altogether became a very different flavor. When we asked him for the autograph, he thanked us twice and then gave his precious autograph. Thanks Sir

Sanjay Das: He was also on guitar along with Mr. Peterson. A young guy who has electrified the audience with his skills. Each and every person was just clapping and shouting for him and after each and every harkat, even these guys were congratulating each other. When I said to him that 'Aaj aap logon ne bahut masti ki'. He was quick to say that ' haan humein bada maza aaya' and he was smiling and asking us what to write for the autograph. Thanks Sanjay.

Deepak Pandit: He had the masterpiece in his hand - the violin and he played that masterpiece magnificently. Best part of the show was the combination of three- Sanjay with guitar, Deepak with violin and Paras with Flute. Their combination, chemistry and synchronization made a musically(Classical) challenged person i.e. me to shout and say 'Wah' various times.

Paras Nath: A young legend in the making. I believe that he will be a classical star very soon. He was putting in his flute everything which can intoxicate a normal human being. Nobody remain untouched and I heard people discussing about him after the concert also..

I was not able to meet Paras and Deepak as I was taking autograph from Jagjit Sir and as there were a lot of people like me, it was taking time and when we came back, to our bad luck they were not there.

Jagjit sir was in a black kurta-pyjama and he was as always amazing, electrifying, serene, relaxed, humorous and AWSOME!! There were 12 ghazals (including 2 fresh ones) in the show but even those were not able to fulfill the quest of the audiences. Everyone was shouting for 'one more' but as the time was not enough, those wishes remained unfulfilled.

I'll go into detail about all of the ghazals which have been performed there by Jagjit singh. I want to dedicate this post to the crew who work for Jagjit Singh and add sweetness to his live performances. From now onwards, when you watch a live performance of Jagjit Singh, identify these faces which are still 'gumnaam' but they only know the way to make a 'Tajmahal'.

Sunday, February 6, 2011

नोट्स…

Nirmal_Verma___Kathakar__Muzib

1- मैं सोचता हूँ कि पहाड़ सालों तक एक जगह कैसे रह लेते हैं… बिना कहीं गये सिर्फ़ एक जगह… और इसके विपरीत नदियाँ जाने कहाँ से कहाँ तक आती जाती रहती हैं… कितने तो रूप बदलती रहती हैं… बहती रहती हैं…। शायद तब मैं सो रहा था इसलिये मुझे सही से याद भी नहीं कि जाने कब किसी ने मेरे भी पैरों में नदी बाँध दी थी …और तबसे मुझे पहाड़ अच्छे लगते हैं… भीतर किसी दावानल को समेटे हुए जो हर पल सुलगते रहते हैं… भीतर जलते रहते हैं… अकेले… अधूरे… उदास…।

 

2- उस दिन जब वो पारदर्शी काँच के उस पार थी, मैं उसे देख सकता था… उसे महसूस कर सकता था… उसके होठों को पढ सकता था… लेकिन हाथ बढाकर भी उसे छू नहीं सकता था…

आज उसे किचेन में देखते हुये मुझे उसके पारदर्शी शरीर के पार एक दुनिया दिखती है…  उसके सपनों की एक दुनिया… मैं उस दुनिया को महसूस कर सकता हूँ…  । आज मैं उसे भी स्पर्श कर सकता हूँ लेकिन उसके पार वो दुनिया फ़िर अनछुयी रह जाती है…।

 

3- मेरी खिडकी के बाहर के रंग सामान्यत: एक जैसे ही रहते हैं… पर रोज उसकी आँखों में एक अलग मौसम होता है। उसकी आँखें रंग बदलती हैं और काफ़ी हद तक मेरे घर के भीतर के मौसमों को भी…। उसे गौर से देखता हूँ… वो दिनभर मेरे इस घर में जैसे एक खेल खेलती रहती है। वो अपने मौन से बात करते हुये कहती है कि ‘ही लव्स मी‘ और फ़िर मेरे भी मौन रह जाने पर जैसे एक सोच में डूब जाती है  कि ‘ही लव्स मी नॉट‘…

मैं उसके इन रंगो की तितलियाँ बनाना चाहता हूँ जो इस बंद ब्लैक एन वाईट कमरे में रंगो की इकलौती उम्मीद सी उडती रहें…।

 

4- निर्मल को पढते हुये लगता है जैसे किसी ने काँच के कुछ टुकडे बिखेर दिये हों… उन टुकडों को पढो तो चुभते हैं और देखने पर सबको उनमें अपना अक्स ही दिखता है… उन्हें पढकर इस बात पर आश्चर्य होता है कि कम्बख्त अप्रैल में पैदा होने वाला एक और इंसान कितना अधूरा था…। निर्मल की कहानियां जितनी अधूरी और अकेली हैं उतनी ही उनकी कहानियों के पात्र और उतने ही उनके बीच बुने गये रिश्ते। कंप्लीटली इनकंप्लीट…  

 

मेरे कुछ नोट्स ‘निर्मल‘ के लिये…

तस्वीर मानव के ब्लॉग से

Thursday, January 6, 2011

धुन्ध से उठती ’निर्मल’ धुन…

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जब हम प्यार करते हैं, तो स्त्री को धीरे धीरे उस दीवार के सहारे खडा कर देते हैं, जिसके पीछे मृत्यु है; हम दीवार के सहारे उसका सिर टिकाकर उसे सहलाते हैं, चूमते हैं, बातों में उसे बहलाते हैं, बराबर यह आशा लगाये रहते हैं – कि वह कहीं मुडकर  दीवार के पीछे न झाँक ले।

जब हम कहानी लिखते हैं-या उपन्यास-तो एक फ़िल्म चलने लगती है- इस फ़िल्म में छूटे हुये मकान हैं और मरे हुये मित्र, बदलते हुए मौसम हैं और लडकियाँ, खिडकियाँ, मकडियाँ हैं और वे सब अपमान हैं जो हमने अकेले में सहे थे और बचपन के डर हैं और क्रूरताएँ हैं जो हमने माँ बाप को दीं थी और माँ-बाप के चेहरे हैं, छत पर सोते हुए और छते हैं, जुलाई की रातें हैं, रेलों की आवाजें हैं और हम यह एक अदृश्य स्क्रीन पर देखते रहते हैं मानो यह सब किसी दूसरे के साथ हुआ है, हमारे साथ नहीं- हम अपनी नहीं, किसी दूसरे की फ़िल्म देख रहे हैं; यह ’दूसरा’ ही असल में लेखक है, मैं सिर्फ़ स्क्रीन हूँ, परदा, दीवार,… लेकिन अँधेरे में हम साथ-साथ बैठे हैं; कभी कभी हम दोनों एक हो जाते हैं, तब पन्ना खाली पडा रहता है और दीवार पर कुछ भी दिखाई नहीं देता!

 

- “हर रोज कोई मेरे भीतर कहता है कि तुम मृत हो। यही एक आवाज है, जो मुझे विश्वास दिलाती है, कि मैं अब भी जीवित हूँ।”

 

- “वह हर किताब का पन्ना मोड देता है ताकि अगली बार जब वह पढना शुरु करे तो याद रहे, पिछली बार कहाँ छोडा था। एक दिन जब वह नहीं रहेगा, तो इन किताबों में मुडे हुए पन्ने अपने-आप सीधे हो जाएँगे- पाठक की मुकम्मिल ज़िंदगी को अपने अधूरेपन से ढकते हुए…”

 

- “जिस दिन मैं यह सोचकर भी लिखता रहूँगा, कि इसे पढकर सब लोग- मेरे मित्र और हितैषी अफ़सोस करेंगे, और आलोचक हँसी उडाएँगे – तभी मैं सफ़लता के चक्कर से मुक्त होकर कुछ ऎसा लिख पाऊँगा – जिसका कोई अर्थ है।”

 

- “मैं हमेशा अकेलेपन पर शोक करता रहा हूँ – लेकिन अकेलेपन का सौन्दर्य और सात्विक ऋजुता? इसका छोटा-सा किन्तु सम्पूर्ण अनुभव आज शाम हुआ… सर्दियों का अँधेरा और तीन तरफ़ से बंद मेरा कमरा – सिर्फ़ दरवाजे के परे कुछ तारे दिखाई दे जाते हैं, बाहर बिल्कुल शांति है और मैं प्रूस्त पढ रहा हूँ। न बच्चे, न गृहस्थी , न कोई मित्र – कोई नहीं। मैं और मेरी किताब; प्रूस्त के हर लम्बे वाक्य में मेरी टूटती साँसों के पैराग्राफ़ और उनके इर्द-गिर्द मँडराती भावनाओं का बवंडर जमा होता जाता है – और उसके परे कुछ नहीं, सिर्फ़… मेरी सिगरेटें, मेरी छत और किताबें…

   मैं बाहर ठहरे और सर्द अँधेरे को देखता हूँ और मुझे लगता है, कि जापानी भिक्षुक ऎसे ही शांत और ध्यानावस्थित क्षणों में अपनी कुटिया में बैठे हायकू लिखा करते होंगे…”

 

वह घर आये; कहने लगे, कहानी-संकलन में एक खाली पन्ना बचा रहता है; क्या मैं पुस्तक किसी को समर्पित करना चाहूँगा?

मैं सोचने लगा; कुछ समझ में नहीं आया। पुरानी कहानियों की यह किताब किसके लिये क्या मानी रखेगी? फिर पुराने घर की याद आयी – जहाँ वह रहती थीं – जहाँ ये कहानियाँ लिखी गयी थीं और वह दूसरे कमरे में बैठी रहती थीं और हालाँकि घर वही है, जहाँ मैं रहता हूँ, वह चली गयीं जब मैं यहाँ नहीं था…

मैंने अपनी पीली कवरवाली कापी निकाली और पूरे कोरे पन्ने पर लिख दिया ’माँ की स्मृति में’ और तब खाली, शून्य सफ़ेदी पर यह वाक्य इतना ही छोटा जान पडा, जितनी वह खुद थीं। दुनिया में उनकी जगह वही थी जैसे किताब के खाली पन्ने पर उनका नाम…

 

 

 

*तस्वीर: मानव की ’निर्मल और मैं’ श्रृंखला से…