Friday, December 24, 2010

देजा वू

“जिया! मुझे लगता है पहले भी मेरे साथ ये सब घट चुका है। ये सब कुछ… मेरा इस वक्त जागना… बेमौसम नवंबर में बारिश होना… ”

“देजा वू?”

“शायद!… कितना खूबसूरत शब्द है न? देजा वू… कितनी ही भावनाओं को कितनी आसानी से कह देता है। कुछ और जोडना-घटाना ही नहीं पडता। बस सिर्फ़ एक शब्द। काश मैं भी कभी ऎसा कुछ लिख पाता!”

जिया उसकी किताबों वाली अलमारी से हटकर अब खिडकी पर आ गयी थी। खिडकी के काँच के उस पार नवंबर की बेमौसम बारिश थी और इस पार मनु।

“मनु! बेमौसम बारिश अक्सर उदास क्यों कर जाती है?”

“बेमौसम बारिश की बूंदों की बेचैनी और छटपटाहट उदास कर जाती है… जैसे अपनी ही आवाज की प्रतिध्वनि उदास कर जाती है। ऎसा लगता है कि उन्हें जिनतक पहुँचना था उन्होने अपने कान बंद किये हुये थे। जैसे वो उदास बैरंग चिट्ठियाँ थीं…”

“…जिन्हें उनके पते नहीं मिले?”

“और उन्हें वापस हमारे पास ही आना पडा। पता है, ये बडा भयानक है कि आप जिन्हें कुछ कहना चाहें, वो उसे ना सुन सकें। मैं अभी भी किसी फ़िल्म के ऎसे दृश्य को सोचते हुये भी डर जाता हूँ जहाँ कोई व्यक्ति कुछ कहना चाहता है और बगल से कोई ट्रेन तेजी से निकल जाती है। कहने वाला कह देता है और जिसे सुनना चाहिये, वो उन्हें सुन नहीं पाता। उन बच्चों के जैसे जो इस संसार में आ तो जाते हैं, लेकिन उन्हें कोई नहीं अपनाता…। उन कहानियों के जैसे जिन्हें कोई नहीं पढता।”

मनु अक्सर ऎसी बातें करते हुये अपनी कुर्सी से खडा हो जाता और कमरे में टहलने लगता। उसकी आवाज अब हर एक कोने से आती हुयी लगती। जिया की एक निगाह बाहर छिलती, रिसती बूंदो पर थी और एक निगाह मनु के चारों तरफ़ से छीलने को आते हुये शब्दों पर।

“लिखकर मैं कभी कभी अपने आप को पा लेता हूँ। लेकिन न जाने कितनी ही बार अपने आप को कहीं खो भी देता हूँ।”

“ये डरावना है!”

“और वो देखना, जो आपके साथ कभी हुआ ही न हो? कहीं से भी किसी भी व्यक्ति के भीतर चले जाना। उसके भीतर उसके जैसे ही होकर रहना और उसकी ही ज़िंदगी जीना जैसे वो जीता है। वैसे ही आसपास को स्पर्श करना, महसूस करना जैसे वो करता है। उसके ही जैसे सोचने को अपनी सोच से अलग रखते हुये सोचना।”…… “यूं ही कभी कभी उन घटनाओं का हिस्सा बन जाना जो आपकी अपनी कभी थीं ही नहीं इन फ़ैक्ट अपने जीते जी आप ने ऎसी किसी भी घटना के घटने के बारे में भी नहीं सुना… “

“बेहद अजीब है…”

“लिखना कुछ वैसा ही है। बेहद अजीब।”

मनु अपनी एक किताब उठाकर उसे सहलाने लगा। उसे सहलाते हुये वो घर की दीवारों के पार किसी दुनिया में चला गया।

“लिखना किसी खाली पडे घर में घुस जाने जैसा है जहाँ रहने वाले लोग अब वहाँ नहीं रहते। लिखना उन घरों में रहने जैसा है।”

उस कमरे में जैसे सब कुछ चुप हो गया। कई शब्द चुपचाप उसकी किताब से निकलकर उस कमरे में चारों तरफ़ फ़ैल गये। बस धीरे धीरे हल्की होती हुयी एक ध्वनि रही जिससे ये आभास होता रहा कि अभी अभी यहाँ देर तक रहने वाला कुछ कहा गया है।

“उन घरों में रहने जैसा जहाँ आपकी कही हुयी बातें दीवारों से टकराती हैं और फ़िर वापस आपके ही पास आ जाती हैं। हमें एक क्षण को लगता है कि ये तो वहाँ के रहने वालों की आवाज है लेकिन असलियत में वहाँ कोई नहीं होता।”

“तो लिखना अपनी ही आवाज को किरदारों की आवाज में सुनना है?”

मनु ने खिडकी खोल दी। जिया अभी भी खिडकी की एक तरफ खडी थी। खिडकी खुलने से बारिश थोडी तेज सी लगने लगी।

“लिखना अपनी आवाज को खो देना है…” मनु धीरे से बुदबुदाया।

उसका बुदबुदाना वैसे ही रह गया। खिडकी के पल्लों की चरमराहट और बारिश की तेज आवाज किसी ट्रेन के जैसे उसके कहे के ऊपर धडधडाती गुज़र गयीं।

जिया कभी कभार उस कमरे में अभी भी चली जाती है। उसे अब देजा वु शब्द मनु जितना ही खूबसूरत लगता है। उस कुर्सी पर अब कोई नहीं बैठता लेकिन मनु की वो बातें जैसे हमेशा से वहीं हैं। वहीं कहीं कूडे के डिब्बे में मुडे तुडे आधे अधूरे कागजों के संग या उसकी किताबों वाली अलमारी में रखी किसी किताब में छुपी हुयी या उसकी मेज पर फ़ैली मैगजीनों में दबी हुयी……।

वो घर अभी खाली है। जुलाई की धूप में भी कभी कभी उसे उसी खिडकी के बाहर नवंबर की बारिश सा आभास होता है। वो एक पल तो उसमें डूब जाती है फ़िर अगले ही पल मुस्कराते हुये सोचती है… देजा वु।

Sunday, December 12, 2010

लाईफ़ इन सेक्टर्स…

atomic किसी सेक्टर के एक कफ़े कॉफ़ी डे में घुंघराले बालों वाला एक लडका, एक खूबसूरत आँखों वाली लडकी की तस्वीर टिसू पेपर पर बना रहा है। तस्वीर कुछ यूं बनती है कि लडकी तुरंत ही अपने पैरों से उसे फ़ुटबाल की तरह किक मारती है। घुंघराले बालों वाला लडका, कबाब में हड्डी बने एक और लडके की तरफ़ देख मुस्कराते हुये कहता है कि “देखा! आजकल आर्ट की कोई  इज्जत नहीं दोस्त…”| फ़िर लडकी की तरफ़ देखकर बशीर साहेब का एक शेर कहता है:-

कोई हाथ भी न मिलायेगा जो गले मिलोगे तपाक से,
ये नये मिजाज का शहर है, जरा फ़ासले से मिला करो ॥

 

 

इसी नये मिजाज के शहर के किसी और सेक्टर में, मोमो की एक दुकान के पास इस शहरी समीकरण के लिये एक नया लडका, दूसरे से पूछता है कि “यहाँ मोमो कुछ ज्यादा ही नहीं चलते?””जिस शहर में चिंकियां चलतीं हैं दोस्त, वहाँ मोमो भी चलते हैं”

सामने नेक्स्ट के एक बडे शोरूम में बाहर रखी एलईडी पर धौला कुआँ रेप केस की ब्रेकिंग न्यूज आ रही है… अपोजिशन पार्टी के कार्यकर्ता हाथों में बैनर लिये प्रोटेस्ट कर रहे हैं – Save North East Girls

”शुक्र है, मुझे इन दोनो में से किसी का भी ’शौक’ नहीं!” नया लडका न्यूज देखते हुये बुदबुदाता है…

पास ही खडी कार से एक गाना बाहर आ रहा है - गल मिट्ठी मिट्ठी बोल…

 

कार की आगे वाली सीट पर एक लडका और एक लडकी के बैठे होने का आभास होता है। कार के काले शीशे चढे हुये हैं और इस गाने की आवाज के अलावा, उन शीशों के पीछे कुछ बनते, कुछ टूटते रिश्तों की कोई भी आवाज बाहर नहीं आती… बस सामने रखी एलईडी पर इस ब्रेकिंग न्यूज के वक्त ऎड बढ जाते हैं। बाजार को अभी भी इन खबरों का ’शौक’ है। नया लडका कार के काले शीशों से नजरें हटा कर मोमो को देखता है फ़िर नजरों को एलईडी की तरफ़ मोड देता  है। प्रियंका चोपडा कह रही हैं - व्हाई शुड ब्वॉयेज हैव ऑल द फ़न…

 

पास ही किसी और सेक्टर में एक बीयर शॉप के पास तीन कारें रुकती हैं… उनमें से तीन लडके उतरते हैं… काली पॉलीथीन में छुपी बीयर की बोतलें लेते हैं और फ़िर एक ही कार में बंद हो जाते हैं। बीयर की दुकान वाला नये ग्राहक से बडे गर्व से कहता है “सर बडी अजीब जगह है ये। यहाँ लोग कम हैं और कारें ज्यादा” नया ग्राहक मुस्कुराता है “अपनी ही दुकान पर पीकर बैठे हो? कितने पैसे हुये?” “सर यहाँ मकान और जमीनें कितनी भी मँहगी हो, कुछ चीज़ें बडी सस्ती हैं”

“क्या?” मुसकुराते हुए…

“अमीर लोग, गरीबों की ज़िंदगी और एल्कोहल…”

 

कार में बैठे लडके बीयर की बोतल फ़ोडने के लिये लड रहे हैं… कार का दरवाजा खुलता है… बीयर की बोतलों के फ़ूटने की आवाज के पीछे कार के म्यूजिक सिस्टम से आती एक दबी सी हल्की सी गाने की आवाज है…

ये शहर है अमन का, यहाँ की फ़िज़ा है निराली,
यहाँ पे सब शांति शांति है……

 

बीयर की बोतलों के काँच अभी भी जमीन पर दूर दूर तक बिखरे पडे हैं……