कभी कभी बाम्बे, काट्ने के लिये दौडता है और कुछ भी समझ मे नही आता। ऐसे वक्त पूरी कोशिश करता हू कि दिमाग को कुछ भी सोचने का मौका ना दू। आज सुबह से तीन मूवीज़ देख चुका हू पर मन अभी भी कन्ट्रोल मे नही है।
भुपिन्दर जी का एक गाना है जो मेरी इस स्थिति को काफी अच्छे से बया करता है:-
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एक अकेला इस शहर मे, रात मे और दोपहर मे
आबदाना ढूढ्ता है, एक आशियाना ढूढ्ता है॥
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दिन खाली खाली बर्तन है और रात है जैसे अन्धा कुआ..
इन सूनी अन्धेरी आखो से आसू कि जगह आता है धुआ..
जीने की वजह तो कोइ नही, मरने का बहाना ढूढ्ता है॥
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इन उमर से लम्बी सड्को को, मन्ज़िल पे पहुचते देखा नही..
बस दौड्ती फिरती रहती है, हुमने तो ठहरते देखा नही..
इस अजनबी से शहर मे, जाना पहचाना ढूढ्ता है॥
एक अकेला इस शहर मे…………..