बचपन में हमें जहाँ देखो, अपने दोस्तों के सामने खड़ा कर देते थे और बोलते थे “सोनू को २० तक टेबल आती हैं”. और उनके मित्रगण, कोई तुंरत बोलता 'सोनू '२' का सुनाओ' और बस हम तान लगाकर शुरू हो जाते। फिर तो बस रंगारंग पहाडों का फरमाईशी प्रोग्राम शुरू हो जाता। २, ४ , ६ और हम सुनाते जा रहे हैं और कुछ तो जानबूझकर १३, १७ और १९ का सुनाने को बोलते।
याद है की दसवीं तक रोज़ लाइट जाने के बाद छत पर बैठकर अंधेरे में पहाड़े सुनाते था और मार तो हमेशा खाते था। एक बार मकानमालकिन आंटी ने न जाने क्या घुट्टी पिला दी पिताजी को, “लड़का बड़ा हो गया, अभी तक मारते रहोगे।” बस उसके बाद से पहाड़े सुनाना बंद हो गया इस वार्निंग के साथ की अब वो सिर्फ़ मार्कशीट देखा करेंगे। तब से रात में लाइट का जाना अच्छा लगने लगा।
उनके साथ क्रिकेट मैच देखना हमेशा दिलचस्प होता था। सारे प्लेयर डांट खाते थे, अजय जडेजा तो बेचारा सिर्फ़ चयूइंग गम खाने के लिए भी डांट खाता था और गालों पर व्हाइट क्रीम लगाने के लिए भी डांट।
एक दर्जी था जो उनकी बड़ी इज्ज़त करता था, कपड़े कभी अच्छे नहीं सिल पाता था पर जाने पर चाय पिलाता था। पचास बार तो बाबु जी करता था। बस हमें ले जाकर नपवा देते थे वहां और हमारी कातिल जवानी जैसे चिल्लाती थी की नहीं आज तो बख्श दो।
बाल कटवाने ले जाते थे तो बस जैसे उन्हें एक ही हेयर स्टाइल पता थी - ‘छोटे कर दो’ और नाई को तो जैसे वीटो पॉवर मिल जाती थी। हमारे अमिताभ और मिथुन बनने के सपने तो उन नाइयों ने ही चूर कर डाले नहीं तो हम भी आज बॉम्बे मैं इंजिनियर की जगह बॉलीवुड में होते।
अभी ड्राइंग रूम बना नहीं है तो उसी में थोडी खेती कर लेते हैं। माँ का कहना है की इन्हे किसान होना चहिये था, ग़लत प्रोफेशन में आ गए हैं। उस छोटे से ड्राइंग रूम भर की जमीन से क्या क्या उगा देते हैं की बस पूछिए मत और जब भी कोई नया फल लगता है या पकता है तो बुला - बुलाकर दिखाते हैं - देखो सोनू, पपीता पक गया है। उन आखों से बहुत कुछ सीखा है मैंने। मुझे अभी भी याद है जब एक गाय आकर पूरा खेत बरबाद कर गई थी। मैंने उनको आँखों में उस दिन अलग रंग देखे थे – दर्द के।
अभी कुछ दिनों पहले जब घर गया था तो अपने साथ घुमाने ले गए थे, माँ को हमेशा पता रहता है की मैं कभी मोजे और रुमाल नहीं खरीद सकता हूँ, सो वही दिलवाने ले गए थे। वो दूकान वाले अंकल उनके साथ कभी पढ़े हुए थे और उनको बोले देखो रोज़ इसके बारे में बोलता हूँ, आज इसे ले आया। मुझे समझ में आ गया की ये मेरे मुँह से आधी अधूरी बातें सुनकर यहाँ सुनाते होंगे। मैंने तुंरत ही पैर छूए। काफ़ी देर बैठकर उन लोगों की बातें सुनी, बहुत अच्छा लगा।
उस दिन फिर से पापा की नज़रों से सब कुछ देखा जैसे वो बचपन में दिखाते थे। वो अपने कोर्ट ले गए। आजकल वकील लोग तख्त पे नहीं बैठते हैं, सिविल कोर्ट में भी अब केबिन बन गए हैं। वो मुझे कोर्ट ऐसे दिखा रहे थे जैसा न जाने कौन सा हिस्टोरिक प्लेस हो और मैं भी वैसे ही देख रहा था। सवाल भी पूछ रहा था “पापा! वो क्या है?” और जवाब भी सुने।
किसी दिन उन्हें ये पोस्ट जरूर दिखाऊंगा, उसके लिए बस थोडी सी हिम्मत चहिये. देखिये कब तक हिम्मत जुगाड़ पता हूँ।
एक SMS पर अभी निगाह गई :
"Memories play a very confusing role...They make you laugh when you remember the time you cried together!! But make you cry when you remember the time you laughed together.."