वो समय डरावना था। हालांकि डरावनी फ़िल्मों जैसा उसमें कुछ भी नहीं था। यहां तक कि उसके आस पास जो किताबें बिखरी रहतीं थीं वो भी किसी ऎसे जेनर में नहीं आती थीं जिसका डर से दूर दूर तक कोई नाता हो। दिन में घर में सूरज की रोशनी रहती थी। रात में बल्ब कमरों में दूधिया रोशनी बिखेरते थे। गर्मी में पंखा घूमता रहता था और उसके घूमने की आवाज भी डरावनी नहीं होती थी। यहाँ तक कि उन कमरों में ऎसी कोई तस्वीर भी नहीं थी जिन्हे गलती से देखकर डरा जा सके। फ़िर भी डर था…
डर जो आँखे बंद करने पर बगल में सरक आता था। आँखे खोलो तो सब वैसा ही होता था जैसा नींद लगने से पहले था। बंद करो तो लगता डर सा कुछ उसके ऊपर ही लेटा हो। आँखे खोलता तो सीने पर किताब होती। उसे उठाता और सर के आस पास बेड में बने हुये किसी भी खाने में डाल देता और फ़िर सो जाता। सपने आते जो पता होते कि सपने ही हैं फ़िर भी वो उनमें फ़ंसता जाता। एक सपने से दूसरे में, दूसरे से तीसरे में, एक भूलभुलैया सा वो उनमें भटकता रहता। वो सपने के भीतर ही छटपटाने लगता, भागने की कोशिश करने लगता, हाँफ़ने लगता जबकि उसके जागते हुये भीतर को पता होता कि ये एक सपना ही है, असल में वो बिल्कुल नहीं हाँफ़ रहा, वो तो आराम से सो रहा है। वो अपने हाथ पैर हिलाना चाहता लेकिन वो हिलते नहीं। अब वो और परेशान हो उठता और कोशिश करता कि जाग जाय। उसे लगता कि वो इन सपनों में ही मार दिया जायेगा और उसे जानने वाले कभी जान भी न पायेंगे वो किसी हास्यास्पद मौत नहीं मरा बल्कि किसी साजिश के तहत उसका कत्ल हुआ है। अगर पैरलल वर्ल्ड सिद्धांत हमें एक साथ कई दुनिया में उपस्थित रखता है तो क्या ऎसा भी होता होगा कि एक साथ कई लोग एक ही सपना देख रहे हों और अगर ऎसा हो सकता है तो कोई तो चश्मदीद गवाह होगा जिसने उसे भागते, छटपटाते और मरते देखा होगा? लेकिन सपनों पर हम यकीन कहाँ करते हैं, क्या मेरे जानने वाले करेंगे?
इसी उधेडबुन में वो एक आखिरी कोशिश करता और जाने कैसे उठकर बैठ जाता। इस ’जाने कैसे’ के फ़ार्मूले को वो समझना चाहता था कि वो उस आखिरी कोशिश में ऎसा क्या कर देता है कि इस दुनिया में लौट आता है। वो इस दुनिया में लौट आता है, वो ’ऎसा कुछ’ कर देता है कहीं ये भी एक सपना तो नहीं?…
14 comments:
सुंदर लिखे हौ!
एक विश्व का डर दूसरे विश्व में परिलक्षित होता है।
कहाँ थे गुरु....
बड़ा शानदार लिखा है...ये कमबख्त डर भी न...
वैसे सपने में कोई उठने की कोशिश कर सकता है क्या ????
सपनों के पैरेलल वर्ल्ड की कल्पना अच्छी लगी और गवाहों की तो और भी ज्यादा :))
सपनों पर यकीन है लेकिन एक ही सपना कई लोग देख रहे हों यह शायद मुमकिन नहीं... इस लेख को पढ़ कर एक फिल्म याद आ गई...Leonardo DiCaprio की 'Inception'(2010) क्या पता कल्पना कभी सच हो जाए..
वो इस दुनिया में लौट आता है, वो ’ऎसा कुछ’ कर देता है कहीं ये भी एक सपना तो नहीं ?…
वाह !!! गज़ब लिखा है ठाकुर... डर "होकर भी नहीं था" :P
पढ़ा भी बहुत अच्छे से है... बस पॉड कास्ट का वॉल्यूम थोड़ा कम है... हेडफ़ोन लगा के सुनना पड़ा :)
@2021293087579584730.0
हाँ यार... रात तीन बजे एकदम से पॉडकास्ट बनाने का मन किया.. और जितनी जल्दी जोश आया, उतनी ही जल्दी चला भी गया.. आवाज कम रह गयी है.. फ़ोन की भी अपनी परेशानियां हैं, मेरी अपनी भी कुछ .. आवाज़ थोडी बुलंद करनी पडेगी.. :-)
बहुत अच्छा लिखा है ..सुनना ज्यादा प्रभावशाली लगा ...कई बार गर्मी भी रातों में नीद के रास्ते हम ऐसी दुनिया में पहुँच जाते है और बीच बीच में खुलती आँख ..यकीन दिलाती है ये सपना है पर आँख बंद करने पर सपने ज्यादा ताकतवर हो जाते है ...
ये तो पता नहीं कि कई लोग एक साथ कई लोग एक ही सपना देखते है कि नहीं पर एक जैसे सपने जरूर होते होंगे...कैसा रहस्मय संसार है सपनो का...सपना देखते देखते कई बार अचानक से आंख खुलती है और ये नही पता चलता झुटपुटा हो रहा है या पौ फट रही है..कहाँ सोये थे कहाँ जागे...कितना जरूरी हो जाता है तब ये जानना ...ज़िन्दगी एक लम्बा सपना है...एक दिन खत्म हो जायेगा...
kamaal hai...
aaj itani fursat mein bhi aapki aawaaz sunnaa naseeb nahin....!!!
likhaa bahut tabiyat kaa hai...
अजीब बात है imaging Argentina देख रहा था शायद दो दिन पहले.....नींद सपने..ओर एक अजीब से डर को सामने रखती है ये फिल्म देर तक सो नहीं पाया ....लगा इसी धरती पर कितना कुछ है ..जो अदेखा है .अजाना है ...... अजाना रहे तो बेहतर है जानने का भी एक भय होता है
bhut khub likha hai....kai baar sapne ka darr vastvik darr se takatvar hota hai
suna hi.. padha nahi..... sunna hi jyada achcha lag raha tha.... aise hi sunate rahiye.....
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