जब हम प्यार करते हैं, तो स्त्री को धीरे धीरे उस दीवार के सहारे खडा कर देते हैं, जिसके पीछे मृत्यु है; हम दीवार के सहारे उसका सिर टिकाकर उसे सहलाते हैं, चूमते हैं, बातों में उसे बहलाते हैं, बराबर यह आशा लगाये रहते हैं – कि वह कहीं मुडकर दीवार के पीछे न झाँक ले।
जब हम कहानी लिखते हैं-या उपन्यास-तो एक फ़िल्म चलने लगती है- इस फ़िल्म में छूटे हुये मकान हैं और मरे हुये मित्र, बदलते हुए मौसम हैं और लडकियाँ, खिडकियाँ, मकडियाँ हैं और वे सब अपमान हैं जो हमने अकेले में सहे थे और बचपन के डर हैं और क्रूरताएँ हैं जो हमने माँ बाप को दीं थी और माँ-बाप के चेहरे हैं, छत पर सोते हुए और छते हैं, जुलाई की रातें हैं, रेलों की आवाजें हैं और हम यह एक अदृश्य स्क्रीन पर देखते रहते हैं मानो यह सब किसी दूसरे के साथ हुआ है, हमारे साथ नहीं- हम अपनी नहीं, किसी दूसरे की फ़िल्म देख रहे हैं; यह ’दूसरा’ ही असल में लेखक है, मैं सिर्फ़ स्क्रीन हूँ, परदा, दीवार,… लेकिन अँधेरे में हम साथ-साथ बैठे हैं; कभी कभी हम दोनों एक हो जाते हैं, तब पन्ना खाली पडा रहता है और दीवार पर कुछ भी दिखाई नहीं देता!
- “हर रोज कोई मेरे भीतर कहता है कि तुम मृत हो। यही एक आवाज है, जो मुझे विश्वास दिलाती है, कि मैं अब भी जीवित हूँ।”
- “वह हर किताब का पन्ना मोड देता है ताकि अगली बार जब वह पढना शुरु करे तो याद रहे, पिछली बार कहाँ छोडा था। एक दिन जब वह नहीं रहेगा, तो इन किताबों में मुडे हुए पन्ने अपने-आप सीधे हो जाएँगे- पाठक की मुकम्मिल ज़िंदगी को अपने अधूरेपन से ढकते हुए…”
- “जिस दिन मैं यह सोचकर भी लिखता रहूँगा, कि इसे पढकर सब लोग- मेरे मित्र और हितैषी अफ़सोस करेंगे, और आलोचक हँसी उडाएँगे – तभी मैं सफ़लता के चक्कर से मुक्त होकर कुछ ऎसा लिख पाऊँगा – जिसका कोई अर्थ है।”
- “मैं हमेशा अकेलेपन पर शोक करता रहा हूँ – लेकिन अकेलेपन का सौन्दर्य और सात्विक ऋजुता? इसका छोटा-सा किन्तु सम्पूर्ण अनुभव आज शाम हुआ… सर्दियों का अँधेरा और तीन तरफ़ से बंद मेरा कमरा – सिर्फ़ दरवाजे के परे कुछ तारे दिखाई दे जाते हैं, बाहर बिल्कुल शांति है और मैं प्रूस्त पढ रहा हूँ। न बच्चे, न गृहस्थी , न कोई मित्र – कोई नहीं। मैं और मेरी किताब; प्रूस्त के हर लम्बे वाक्य में मेरी टूटती साँसों के पैराग्राफ़ और उनके इर्द-गिर्द मँडराती भावनाओं का बवंडर जमा होता जाता है – और उसके परे कुछ नहीं, सिर्फ़… मेरी सिगरेटें, मेरी छत और किताबें…
मैं बाहर ठहरे और सर्द अँधेरे को देखता हूँ और मुझे लगता है, कि जापानी भिक्षुक ऎसे ही शांत और ध्यानावस्थित क्षणों में अपनी कुटिया में बैठे हायकू लिखा करते होंगे…”
वह घर आये; कहने लगे, कहानी-संकलन में एक खाली पन्ना बचा रहता है; क्या मैं पुस्तक किसी को समर्पित करना चाहूँगा?
मैं सोचने लगा; कुछ समझ में नहीं आया। पुरानी कहानियों की यह किताब किसके लिये क्या मानी रखेगी? फिर पुराने घर की याद आयी – जहाँ वह रहती थीं – जहाँ ये कहानियाँ लिखी गयी थीं और वह दूसरे कमरे में बैठी रहती थीं और हालाँकि घर वही है, जहाँ मैं रहता हूँ, वह चली गयीं जब मैं यहाँ नहीं था…
मैंने अपनी पीली कवरवाली कापी निकाली और पूरे कोरे पन्ने पर लिख दिया ’माँ की स्मृति में’ और तब खाली, शून्य सफ़ेदी पर यह वाक्य इतना ही छोटा जान पडा, जितनी वह खुद थीं। दुनिया में उनकी जगह वही थी जैसे किताब के खाली पन्ने पर उनका नाम…
*तस्वीर: मानव की ’निर्मल और मैं’ श्रृंखला से…
16 comments:
विचारों को आड़ोलित करते हुये शब्द।
कई बार तम्हें पढ़ कर लगता है किसी लंबी कहानी का भावार्थ पढ़ रही हूँ. छोटे छोटे पैराग्राफ में पूरी फिलोसफी. दिल्ली का मौसम असर कर रहा है न?
Subah ban gayi boss..
nirmal varmaka hangover...
:)
abhi ye hangover jaari rakhiyegaa... mazaa aa raha hai
जियो उस्ताद ! क्लास बना हो अपना :)
@5406326918952326953.0
पूजा,
ये निर्मल वर्मा का लिखा हुआ है। उनकी किताब ’धुन्ध से उठती धुन’ से।
बाकी तब भी तारीफ़ का शुक्रिया ;) निर्मल के जरिये ही सही..
जियो ! बहुत बढ़िया लिखते हो (हमेशा ही). और पसंद भी बहुत बढ़िया करते हो (इस पोस्ट की तरह). अब सही है ना ? :)
निर्मल जी एक अपना अलग अंदाज था .कुछ कोमल....कुछ रहस्यात्मक ....उनक पढने के लिए आपका एकालग किस्म का मूड होना चाहिए .मुझे याद है ..मैंने उन्हें लगातार पढ़ा था कई दिनों तक....खास तौर से उनके यात्रात्मक संस्मरण ....
kya bat h
bahut khub
is bar mere blog mai
"main'
pankaj ji , maine kabhi nirmal varma ko nahi padha...unki lekhni se vakif karane ke liye dhanywaad...waise pathk ko bhi kuchh credit milna chahiye...nirmal ji ko padhne aur unhe humse parichit karane ka credit to aapko hi jata hai....
andar se baahar tak man nirmal-nirmal ho gayaa......!!!!
आपका अंदाज बहुत बढ़िया है ..इस प्रस्तुति में आपका नजरिया ..क्या कहें ...भावनाओं को उंडेल कर रख दिया है आपने ..आपका शुक्रिया
कुछ पंक्तियाँ स्मृति मे ताजा हो गयीं..मगर कई एकदम ताजी पढ़ने को मिली..गद्य की निर्मलता मन की अनजान गलियों से कल-कल कर बहती है..शुक्रिया!!
खैर! लिखा किसी का भी ....लेकिन पढ़ कर ऐसा लगा की एक मूड में नहीं लिखा गया है.......अलग- अलग मूड हावी है...जुदा किस्म के टेम्परामेंट का एक कॉकटेल है.... जों है जैसा है....असर करता है और खीचता है
pankaj lgta hai ki log bina padhe hi tarif krte hai,ye v ek bimari hai,khair.....achi panktiya chuni hai nirmal ji ki.
और निर्मल हमारी केमिस्ट्री को अंदर से हिला देते हैं, जब वे कहते हैं 'प्यार एक इल्यूजन है'.... धुँध से उठती धुन पढ़कर लगता है कि वे 'धुरंधर' बौद्धिक हैं... नहीं.... ?
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