Friday, December 26, 2008

कुछ मेरे बारे में....

मुझे अपना हिन्दी ब्लॉग पुनरजीवित किए हुए आज ५ दिन हो गए। बस पूजा जी ने न जाने कैसे हमारी एक भूली बिसरी पोस्ट पढ़ ली जो हमने अपने इंग्लिश ब्लॉग पे पोस्ट की थी। कुछ बचा ही नहीं था अपनी वास्तविक रचनाओं के अलावा। बस हमने पूजा जी के ब्लोग्स का अध्यन उसी वक्त किया और जैसे पुराना कवि जाग गया जो थोड़ा बहुत लिख लेता था या लिखने में गर्व महसूस करता था। हमारी तरफ़ से पूजा जी को ये ओफिसिअल धन्यवाद॥


चिट्ठाजगत पे नया नया शामिल हुआ। काफ़ी लोगों को पढ़ा, सब एक से एक धुरंधर। तब पता चला की वो दोस्तों की गर्ल फ्रेंड्स को एक कविता सुनाना कितना आसान था और यहाँ बैठे महान लोगों को अपनी एक पोस्ट पढ़वाना भी कितना मुश्किल।


ज्ञान जी और समीर जी तो ब्लोग्स का रुख किधर भी मोड़ देते हैं और कुछ ही पलों में वो मोड़, पक्की सड़कें बन जाते हैं और हम जैसे लोग उन पर चलना शुरू कर देते हैं। बस हमें एक शिकायत है जैसे वो नए लोगों का स्वागत करते हैं, हमारा नहीं किया। चलिए कोई बात नहीं, हम ही अपनी कृत्यज्ञता जाहिर कर देते हैं। आप दोनों को सादर नमस्कार ।


नीरज जी को ऑरकुट से जानता हूँ और उनके जगजीत सिंह के प्रेम की वजह से भी। ताऊ की हरयान्वी स्टाइल ने तो बस दीवाना कर दिया। कुश की coffee अच्छी लगी क्यूंकि मुझे एक वही jaria दिखा आप लोगों को अच्छे से समझने का। डॉक्टर साहेब की गलतियों ने काफ़ी कुछ याद दिलाया, लिखने से पहले सोंचना पड़ेगा :)। चवन्नी चाप भी काफ़ी पसंद आए। रंजना जी ने जब मेरे लिखे को सराहा तो आत्मविश्वास जगा। जिस जिसको पढ़ा सब एक से एक। अभी लगता है एक नया जीवन मिला है। रात में खवाबों में भी चिट्ठाचर्चा की बिंदी पे हँसी आती है। एक दो मित्रों को चर्चा पढाई थी, पूछते रहते हैं की बिंदी हिली की नहीं :) अब हम उन्हें क्या बताएं हम भी काफ़ी स्लो थे कभी ;)


आपको क्या लगा इतनी बकवास क्यूँ की हमने?? कुछ नहीं बस एक एक्साम है ७ जनवरी को और ये शब्द हमें कुछ और करने ही नहीं दे रहे तो सोंचा की आप सब लोगों को नएवर्ष की शुभकामनायें भी दे दूँ, आप लोगों का आशीर्वाद भी ले लूँ और कुछ दिन के लिए अपने मन को शून्य में ले जाने की कोशिश करूं। वादा नहीं कर सकता की ७ जनवरी से पहले कुछ नहीं लिखूंगा, लिखा तो आप सबके सामने होगा। पर कोशिश करूंगा की आप लोगों को तब तक बख्श दूँ। :)


हमारे एक मित्र हमारे बारे में लिखते हैं.....


“भगवन की अपरम्पार माया है इतने हरामखोर आदमी ने इतना सीधा चेहरा पाया है !

लड़कियों के दिल पे अब बस इसी का साया है, लगता शरीफ है पर दारू सुट्टा सब आजमाया है!!

पुराने लखनऊ में हर आदमी से साला मार खाया है!!

जितना टेढा ख़ुद है उतना ही टेढा दिमाग पाया है,

ना जाने कितने एक्साम्स में जाने कितनो का बेडा पार कराया है !

अपनी क्नोव्लेद्ग से हर जगह साले ने भोकाल मचाया है,

जाने साले ने कौन सी चक्की का आटा खाया है !!

सबकी जिन्दगी नर्क करने के लिए ये ज़मीन पे आया है,

लेकिन दोस्त इसके जैसा किस्मत वालों को ही मिल पाया है!! “


आप सबके जीवन में नव वर्ष वो सारी खुशियाँ लाये जिनके बारे में आपने कभी भी सोंचा हो। अलविदा कुछ दिनों के लिए। मिलते हैं एक ब्रेक के बाद....

तब तक पढ़ते रहिये॥


प्रेम - मेरी परिभाषा

मेरा नाम

प्रथम प्यार

स्वप्न

फिर वही शुरुआत

दोस्ती लहरों से


ये मेरी बचपन की डायरी के कुछ पन्ने हैं.. अभी तक सहेज के रखे थे, अच्छा लगेगा अगर आप बस अपनी दृष्टि दाल देंगे और मुझे भी रास्ते दिखा देंगे....


धन्यवाद……

Thursday, December 25, 2008

शब्दों को मरते देखा है.......

दहाडों को डरते देखा है,
वसंत को झरते देखा है
अपने ह्रदय के एक कोने में,
हमने शब्दों को मरते देखा है।

रफ्तारों को थकते देखा है,
कलमों को रुकते देखा है,
अपनी आंखों के किनारों से
हमने शब्दों को बहते देखा है।

आधारों को ढहते देखा है,
तूफानों को भी, सहते देखा है,
रातों में उठ उठ कर,
हमने शब्दों को टहलते देखा है।

राहों को चलते देखा है,
साँसों को थमते देखा है,
अपनी बर्फीली सोंचों में भी,
हमने शब्दों को जलते देखा है।

भँवरे को कलियाँ, मसलते देखा है,
'करीब' को फासलों में बदलते देखा है,
अपने मन के रेगिस्तानों में भी,
हमने शब्दों को चरते देखा है।

आत्मा को भी मरते देखा है,
इश्वर को भी डरते देखा है,
हाँ! मेरी कोख में भी कभी शब्द हुआ करते थे,
मैंने इक इक करके, सबको मरते देखा है।

Wednesday, December 24, 2008

मेरी कविता ही नहीं है!!!!

ऑफिस से आया,
फ्रेश हुआ,
फिर सोंचा कुछ लिखूं,
अपनी पुरानी डायरी उठाई,
कुछ पन्ने पलटे,
एक सूखा गुलाब का फूल,
जैसे गिरते गिरते रह गया,

एक सिहरन सी दौड़ गई
पूरे जिस्म में,
अभी भी जैसे वो मेरी आंखों
में देख रही थी,
उसकी गर्म और तेज़
साँसें, मेरे गालों पर अभी भी
दौड़ रही थीं।
कितना डरती थी वो गालों
पर भी किस करने में, और
मुझे न जाने क्या मिल जाता था?
अभी भी गालों पे एक
गिलावत है ........

जब वो हंसती थी, तो
मैं श्रृंगार लिखता था,
रोती थी, तो मेरी
कविता भी रोती थी
मेरे शब्द उसके साथ
नाचते थे, खेलते थे
और बातें करते थे।

वो कितना रोयी थी, जब
मैंने उसे अपनी पहली कविता
सुनाई थी, बोलती थी "तुम मुझसे
कितना प्यार करते हो, बेवकूफ!!"
और मैं सिर्फ़ उसके
आँसू गिनता रहा था।

वो लाल सूट और दूधिया
दुपट्टा, और वो अच्छे से बंधे हुए बाल,
वो आँखें जिनमें मेरा ह्रदय दीखता था,

वो भरे हुए गाल जो ठण्ड में
लाल हो जाते थे, और में उसे
'टमाटर' बुलाता था।

वो उसकी उँगलियाँ जो
हर वक्त मेरे बालों को
ही ठीक करती रहती थीं,

उसकी बिंदी के तो हिलने का
मैं इंतज़ार करता था, की कब वो
हल्का सा हिले और मैं बोलूँ
की "रुको! बिंदी ठीक करने दो"।

उसको याद भर करने से,
मुस्कराहट लबों पे अपने आप
आ जाती है,
इस सूखे फूल में वो मुझे दिखती है..........

लोग मुझसे पूछते हैं, की मैं क्यूँ
नहीं लिखता?,
मैं सिर्फ़ इतना कहता हूँ की
मेरी कविता ही नहीं है।।

Tuesday, December 23, 2008

क्या है जिंदगी?

एक शराबी की, मदिरा है जिंदगी,
एक तबायफ की, मुन्जरा है जिंदगी,

एक दीवाना बोला, दिलरुबा है जिंदगी
एक बूढा बोला, इन्तहा है जिंदगी,

किसान बोला, खेतों में जिंदगी,
एक जवान बोला, हाथों पे जिंदगी,

एक लेखक बोला, साहिल है जिंदगी,
एक होनहार बोला, जाहिल है जिंदगी,

मैं इसे अब तक समझ न पाया,
तो क्या विचार दूँ?
अपनी जिंदगी क्या 'जिंदगी' के पीछे
गुजार दूँ!!

छोटी सी कमलिनी के लिए
सविता है जिंदगी,
मैं तो कवि हूँ,
मेरे लिए कविता है जिंदगी।।

Monday, December 22, 2008

जब मैं खुश था .......

वो दिन
जब मैं खुश था।

तब रीबोक् की टी शर्ट
नहीं पहनता था,
एक थान से कपड़े कटते थे,
और पूरे घर के कपड़े बनते थे।
पर मैं खुश था।

सिर्फ़ एक असेम्ब्लेड
ब्लैक एंड व्हाइट टीवी था,
और उस पर भी सिर्फ़ दूरदर्शन
आता था।
पर मैं खुश था।

दिन भर की न्यूज़ रात
साधे आठ बजे आती थी,
और तब बातें करने से ,
पापा से डाट पड़ जाती थी

पर मैं खुश था।

सुबह सुबह माँ चाय
के साथ उठाती थी,
और हर एक घंटे पर जबरदस्ती
कुछ न कुछ खिलाती थी,
मैं लड़ता था उससे,
पर मैं खुश था।

हर सीज़न में,
नई सब्जियां आतीं थीं,
जो पापा बड़े प्यार से लाते थे और
खुश होकर अपनी बारगेनिंग स्किल्स
के बारे में बताते थे,
मैं बोर होता था :)
पर मैं खुश था।

बारिश में पकोड़ीयां बनती थीं,
सर्दी मैं मक्के की रोटी और
गर्मी में रूहाफ्ज़ा, और
बिजली हमेशा कम ही रहती थी,
पर मैं खुश था।

क्रिकेट मैचेज तो त्यौहार होते थे,
और विकेट गिरने पर,
मैं और पापा एक साथ चिल्लाते थे,
माँ को कुछ भी समझ में
नहीं आता था,
पर मैं खुश था।


माँ रात में बालों में,
सरसों का तेल लगाती थी, और
न जाने कब मेरी आँख लग जाती थी,
तब आंखों में इतने बड़े सपने
नहीं आते थे,
तब दस बजे सब सो जाते थे,
सुबह कुछ जल्दी ही हो जाती थी,
मैं हमेशा देर से ही उठता था, डाट
पड़ती थी, लेकचर मिलते थे,
पर मैं खुश था।
बहुत खुश था।।

Sunday, December 21, 2008

दूर क्षितिज में

उनको याद करता हूँ
तो मन कहता है,
की जाकर मिल उनसे
कह दे, कि जो किया तुने
वो भावावेश में किया,
जो कहा तुने
वो भावावेश में कहा,

मान ले की हर गलती तेरी थी,
क्यूंकि...

अगर वो धरती बनी रही,
और तू अपने आप को
आसमा समझता रहा,
तो मिलोगे तो तुम दोनों
अवश्य ही,
पर कहीं....
दूर क्षितिज में........ ।

फिर वही शुरुआत

मैं फिर वही शुरुआत चाहता हूँ,
वो कॉफी, वो नोवेल और वो तुम्हारी सारी बात चाहता हूँ।

इतनी दूर आ गया हूँ की दीखता नहीं है कोई,
पर अभी भी अपने हाथों में तेरा हाथ चाहता हूँ।

रौशनी जब तक रही मैं चलता रहा,
बस अब एक न ख़त्म होने वाली रात चाहता हूँ।

तमाम उम्र कहाँ कौन साथ देता है,
मुझे मालूम है, पर मैं तेरा साथ चाहता हूँ।

आज बहुत दिनों बाद लेखनी उठाई है मैंने,
आज आंखों मैं तुम्हारा फिर से कोई ख्वाब चाहता हूँ।

दोस्ती लहरों से

कुछ इस तरह ज़िन्दगी का साथ निभा रहा हूँ मैं,
हर पल, हर वक्त जिए जा रहा हूँ मैं।

हर बार हारता हूँ और हर बार हँसता हूँ,
इस ज़िन्दगी में कुछ तो किए जा रहा हूँ मैं।

मेरे आंसुओं से कभी बाढ़ आ जाया करती थी,
इन आंखों में अब एक बंजर जमीन बना राह हूँ मैं।

इतने घरोंदे टूटे की लहरों से दोस्ती हो गई,
उसी रेत पर अब एक घर बना रहा हूँ मैं।

कई बार जहर दिया है इस ज़िन्दगी ने मुझे,
अब कोई और दवा दो कि जिए जा रहा हूँ मैं।

दुःख

किसी मैगजीन मैं देवेन्द्र मल्होत्रा जी की ये पंक्तियाँ पढ़ीं थीं । चार पंक्तियों मैं देवेन्द्र जी ने जैसे ज़िन्दगी का सार कह दिया हो जबसे इसे पढा है तबसे ऐसा ही कुछ लिखने की ख्वाहिश है। देखिये कब पूरी होती है ---

दुःख
आओ
बैठो मेरे पास, कुछ दिन रहो
मुझे सहो
जैसे मैंने सहा, कभी कुछ कहा ?

-- देवेन्द्र मल्होत्रा

वो

आज बहुत दिनों के बाद फिर देखा उसे,
कहीं कुछ भी तो नहीं बदला........

वही बंधे हुए केस,
वही बार बार उठती गिरती पलकें,
वही खिलखिलाकर हँसना,
वही ह्रदय को भेदती निगाहें,
वही प्रेम से रक्त वर्ण होते कपोल,
वही अपने आप को सर्वश्रेष्ठ मानने का अहम,
वही तेवर
वही चंद्र सा शीतल चेहरा
वही मेरे नेत्रों को शीतलता देता उसका तन
वही सुन्दरता के अंहकार से भरा हुआ
गंगोत्री सद्रश स्वच्छ निर्मल मन
कहीं कुछ भी तो नहीं बदला................

वही उपर उठते रहने की इच्छा
वही बाधाओं को हटाने का साहस
वही निर्भीकता
वही अपराजेय बने रहने की कामना
वही कुछ कर दिखने का संकल्प
वही उसकी नज़रों की तलाश
वही किसी से मिलने की आस
वही मुझे चिढाती उसकी हँसी
वही बताना मुझे अपनी हर खुशी
कहीं कुछ भी तो नहीं बदला.......

हाँ गर बदलें हैं तो उसके कर्तव्य
बढ़ी हैं तो उसकी उम्मीदें
बढ़ा है तो मेरा विश्वास की
वो सक्षम है
इन उम्मीदों और कर्तव्यों को पूर्ण करने में ....... ।

Touch My Words

Just touch my words with your eyes
feel my every alphabet
Just pronounce my words with your live lips
and you will get my eyes as your eyes,
my lips as your lips, my voice will be yours


For a moment You'll be within me or
I'll be within you.
None will be the container but
we will be contained in each other.

May be that time you'll get the meaning
of those words which died before their birth
You will see their remains
in my heart, in my every vein too
which will show you that they really
tried to come outside but
always got a havoc, a whirlpool of emotions.

May be you can get their last desire
which they can't express now

May be you can create another creation
with those remains....
So just touch my words with your eyes…

'प्रेम' - मेरी परिभाषा

मैंने किसी को कुछ फूल भेजे थे

कुछ खिली,
कुछ अधखिली कलियाँ,
एक डोर मैं बंधी…
कोशिश थी अपने निस्वार्थ नेह को
अभिव्यक्त करने की।

उसने मुझे वही सूखे,
मुरझाये हुए फूल
उसी डोर मैं बांधकर भेजे हैं
एक पत्र भी है संलग्न
जिसकी कुछ पंक्तियाँ निम्न हैं--
"हम रहे न रहे
तुम रहो न रहो
हमारा यौवन रहे न रहे
पर यह प्रेम डोर रहेगी...
हमेशा रहेगी"

आज भी मेरी आँखें हैं नम

आज रात मुझसे बोले
आसमा के सारे सितारे
की “कहाँ है वो?
जिसके लिए हर रात
निकलते हैं हम
वो हमें रात्रि के अन्धकार मे भी देख ले,
यही सोंचकर तो चमकते हैं हम”।


मैंने कहा “वो आज नहीं आया
वादा तो था पर
शायद इस रात
हमारी आखिरी मुलाक़ात होती
क्यूंकि तुम सब तो उसे देख ही लोगे
किसी और के साथ
पर मैं नहीं देख पाऊँगा
उसके नवीन जीवन की
वह नवीन रात…


मरने के बाद शायद
मैं भी बन जाऊं सितारा
पर चमकूंगा सबसे कम…
की जान जाए मेरा सनम…
की आज भी मेरी आँखें हैं नम”।

मेरा नाम

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एक दिन मैं
उसके घर के सामने से निकला,
घर के बाहर कागजों के
कुछ चीथडे पड़े हुए थे...

मुझे उम्मीद थी की वो
मेरे ख़त के टुकडे होंगे..
मैंने उन्हें उठाया,
घर लाया
फिर करीने से लगाया…
तब पाया......

की वो एक कागज़ था
जिस पर कई बार मेरा नाम लिखा हुआ था................."

स्वप्न!!

3433979070_87836e6c1f तुम्हे क्या कहूं ख़ुद ही बताओ,
अपने नैनो की भाषा
हमें भी समझाओ ।

शायर की ग़ज़ल कहूं या कहूं
'पंकज' की कविता,
आंखों को तेरी कमल कहूं
या सूर्योदय मैं सविता ।

झील सी इन आंखों को हौले हौले
उठाने के बाद जैसे ही देखती हो,
हल्का सा मुस्कुराकर ,
जब कुछ कहती हो ।
पता नही क्यों कोई
झकझोरता है दिल को,
लगता है की हेमंत मैं आया हो
पवन का झोंका,
नस-नस मैं होती है चुभन
ह्रदय कहता है अब स्पर्श
कर ही लूँ तेरा तन,
स्पर्श करने से हाथ मैं आती
नही हो,
फिसलती हो ऐसे ॥

जैसे मैंने स्पर्श किया हो कोई स्वप्न
कोई स्वप्न...

मैं

आज किसी की याद आई
दो आंसू भी गिरे
और न जाने कहाँ खो गए
मैं बस ढूँढता रहा फर्श
पर उनके निशाँ

पर कुछ न मिला
तुब उठाई मैंने अपनी
पुरानी एक डायरी
और ढूढना शुरू किया
उसका नाम…
पर कुछ पन्ने गायब
मिले, और
नहीं मिला उसका नाम भी

कुछ शब्द दिखे जो की
इतने बेरहमी से काटे गए थे
की उन्हें पढ़ पाना नामुमकिन था....

तभी मन में ख्याल आया
की उसकी एक तस्वीर
थी मेरे पास,

मैंने पूरी अलमारी छान डाली,
ब्रीफ़्केस छान डाला,
अपने कमरे का हर एक
कोना छान डाला,
तुब मिली एक तस्वीर और
वो भी मेरे तकिये के नीचे से
पर ............

पर ये तो 'मैं' था
वही पुराना 'मैं' ……

प्रथम प्यार..

पता नहीं कौन हो तुम मेरी
किस जन्म का है ये बन्धन
क्यों मिलती हो मुझसे
क्यों फिर चली जाती हो
क्यों मुझे सिर्फ़ तुम
सिर्फ़ तुम याद आती हो..
मैं तुम्हारे दीवानों में
एक अदना सा दीवाना हूँ........

चाँद जैसा आवारा नहीं
जो रातों मैं तुम्हरे घर
के चक्कर लगाऊ,
पवन जैसा बेशरम भी नहीं
जो तुम्हरे तन को स्पर्श करता
हुआ चला जाऊं,
समंदर भी नहीं, जिससे करती
होगी तुम बातें,
उन सितारों मैं से कोई भी
सितारा नहीं
जिन्हें गिनती होगी तुम
सारी सारी रातें,
वो फूल नहीं, जिसकी पेंखुरी
तोड़ तोड़ कर गिराती होगी तुम,
जब कभी मेरे बारे मैं सोंचते हुए
अपने घर के चक्कर लगाती होगी तुम,
मुझसे कहीं अच्छा है तुम्हारा
वो दुपट्टा जो छोड़ता न होगा तुम्हे ,
चाहे करती होगी कितने यतन
और वो तुम्हरे हाथों के कंगन
तुम्हे स्वप्न से उठाते होंगे
जब कभी सोते हुए तुम्हारे
हाथ आपस मैं लड़ जाते होंगे
वो दर्पण तुम्हे रोज़ ही देखता होगा
जब करती होगी तुम श्रृंगार
पर मैं तुम्हे शायद ही देख पाऊँ इस
जीवन मैं ऐ मेरे प्रथम प्यार........

धरती भी कभी आसमा से मिल नहीं पाती
पर क्षितिज इन दोनों को मिलाता है,
समंदर भी दो किनारों को पास लाता है
अब देखना है की वो मेरा इश्वर
मुझे तुमसे मिलवाता है
या यूँ ही एक गरीब को विरह
की आग मैं जलाता है... ।

मेरे ख़त

आज जब मैंने उठाये अपने सारे ख़त
जलाने के लिए
तो वे बोले मुझसे
मत जलाओ हमें, मत सताओ हमें


सताओ उस बेवफा को जाकर
क्या मिलेगा तुम्हे हमको जलाकर।
मैंने कहा देखता हूँ तुम्हे
तो याद आती है वो जुदाई 
जब होगे ही नहीं तुम तो
कैसे याद आएगी उसकी बेवफाई

 

अचानक चिल्लाया उसका पहला ख़त
"गर जलाकर हमें तुम भूल जाओगे उसे तो
तो बेशक जला दो हमें
मगर एक वादा करो ,
हमें जलाने के बाद
हमारी राख में
तुम ढूंढोगे नहीं
उसके हाथों से लिखा वो
तुम्हारा नाम,
या उसका बेवफाई भरा वो
आखिरी पैगाम........" ।