फ़ोन पर एक लंबे सन्नाटे के बाद मैंने कहा, रिजर्वेशन करवा देता हूँ। ’रहने दो, इंटरसिटी से ही आ जाऊंगा।’ मैंने कहा ’दिक्कत होगी।’ ’नहीं होगी! रहने दो।’
दो दिन के बाद वो यहाँ थे। वे इंटरसिटी से भी नहीं आये थे बल्कि किसी ट्रेन में रिजर्वेशन करवाकर ही आये थे। माँ के जाने के बाद हम अक्सर ऎसा करते थे। बिना एक दूसरे को बताये एक दूसरे की बात मान लेते थे। नयी दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर वो खड़े थे। हाथ में एक बैग था जिसमें मेरी मंगवाई हुयी एक किताब थी और उसके अलावा मेरे और उनके कुछ कपड़े। कुछ समय पहले भी मुझे लखनऊ की एक बस में बिठाते वक्त वो ऎसे ही खड़े थे। उस समय हम दोनों को डर था कि हम दोनो कहीं टूट ना जायें। उनका डर मेरा वहम भी हो सकता है लेकिन मैं सच में नहीं जानता हूँ कि अगर वो मुझे विदा करते हुये टूट गये होते, तो मैं क्या करता? उस वक्त आखिरी क्षण तक मैं यही सोचता रहा कि इस बार उनके गले लगूंगा और डरता रहा कि अगर वो टूटे तो क्या मैं उन्हें संभाल पाऊँगा? इसी उधेड़बुन में बस ड्राईवर ने चलने का संकेत दिया और मैं उनके पैर छूकर बस में बैठ गया। बस चली और उसके साथ साथ वो भी चल दिये। मैं देर तक देखता रहा कि वो शायद मुड़ें और मुड़कर मुझे देखें। वो नहीं मुड़ें बल्कि आगे वाले मोड़ से बस मुड़ गयी। और पूरी यात्रा में मैं यही सोचता रहा कि अगर वो पलटकर पीछे देख लेते तो मैं क्या करता?
वे सामने ही खडे थे। वे मुस्करा रहे थे। मैंने उनके पैर छुये, उनके गले लगा और दोस्तों के जैसे उनके गले में हाथ डाल दिया। न जाने मुझे क्यों लग रहा था कि ये दुनिया इनके लिये एकदम नयी है और इस वक्त मैं इनका दोस्त, बडा भाई या पिता हूँ जिसने ये दुनिया ज्यादा देखी है। उनका कहना था कि ये दुनिया तो नहीं लेकिन इस दुनिया के कुछ तत्व उनके लिये तो अवश्य ही नये हैं। जैसे एस्केलेटर्स पर चलते हुये जब उनसे आँखे मिलती हैं, बडी मासूमियत से खुद ही कहते हैं - लिफ़्ट में पहले भी चढ चुका हूँ, एस्केलेटर्स पर पहली बार है और उसके बाद वो व्यस्त हो जाते हैं सीढियों को ऊपर जाते देखते हुये जिससे सही समय पर चलती हुयी सीढी से पैर बाहर रख सकें। बरिस्ता में कोल्ड कॉफ़ी पीते हुये कॉफ़ी की चॉकलेट और आईसक्रीम से बनी आकर्षक काया की जगह मेनू पर लिखे टेढ़े-मेढ़े रेट्स को निहारते रहते हैं।
उन दिनों हम एक शहर के बाद दूसरा शहर घूमते हैं। मेट्रो में साथ साथ अगले स्टेशन का इंतजार करते रहते हैं। मेट्रो के रूट के नक्शे को समझते रहते हैं। मेट्रो से कुतुबमीनार और छतरपुर के मंदिर देखते रहते हैं। इंडिया गेट के पास बैठकर लावे खाते हैं। जब तक थक न जायें, सीपी के चक्कर लगाते हैं। अक्षरधाम में कैन वाली कोक पीते हैं। गुडगाँव की व्यस्त सड़कों को एक दूसरे का हाथ पकड़कर पार करते हैं। सदर घूमते हैं और गुडगाँव के एक दो मॉल भी। घर में साथ बैठकर आईपीएल देखते हैं, रामनवमी को साथ व्रत रखते हैं और पास में बने एक मंदिर में भी जाते हैं।
फ़िर एक दिन शाम को उन्हें जाना है। वो सुबह जल्दी ही उठ जाते हैं। गैस की कुछ दिक्कत भी है। एक दो घंटे बाद मेरी भी आँख खुलती है। देखता हूँ कि वो मुझे सोते हुये देख रहे हैं। मैं अपने बिस्तर से सरकते हुये उनके पास पहुँच जाता हूँ और उनकी गोद में सर रख देता हूँ। वो मेरे सर पर हाथ फ़ेरते हैं, मैं फ़िर से सो जाता हूँ।
उस शाम वो वापस घर चले जाते हैं। उनके पीछे छूट जाते हैं तो ये कुछ दिन, जिन्हें मैं किसी फ़्रिज में हमेशा के लिये नहीं रख सकता इसलिये सहेजकर कभी किसी कहानी में रखना चाहता हूँ। शायद इसी कहानी में…
43 comments:
नम आँखों से पढ़ा, पंकज...और कुछ भी लिखना मुश्किल लग रहा है.......महसूस तो सब करते हैं...पर उन अहसास को इस तरह शब्दों में कितने उतार पाते हैं..
मन भर आया...कुछ यादें जेहन में उभर आई मिलती हुई सी...
यही यादें जीवन का संबल बन आपके साथ बनी रहें।
ye yade anmol khazana hai.......
mashtishk se accha rakhwala kahee nahee.......
apne ahsaas hum sabhee se mantne ke liye aabhar........
dil se likhee har post dil par asar dikhatee hai.......
Aise hi hamesha unka sambal bane rahiyega... aap bahut aage jayenge.. papa kehte hain k bado k aashirvaad bhagvaan bhi nahi kat sakte :)
रुला दिया.......... !
अच्छी पोस्ट लगी भाई..इनफैक्ट अभी डैडी आये थे..कुछ ऐसा ऐसा ही लगा था...लिफ्ट वाली बात तो तो डिट्टो वही... :)
जब माँ नहीं होती तो पिता ही उसकी भूमिका निभाने लगते हैं. सारी सख्ती जाने कहाँ छोड़ देते हैं... फिर धीरे-धीरे हमारे दोस्त हो जाते हैं और उसके बाद बच्चे...उम्र बढ़ने के साथ बचपना भी बढ़ता जाता है. हमें उनकी देखभाल करनी होती है.
मैं भावुक हुयी, पर रोई नहीं. बाऊ को गए ये पाँचवाँ साल है और मैं अब बड़ी हो गयी हूँ :-)
कुछ ही पंक्तियों के बाद नजर धुंधला गई.फिर भी लेखन की खूबसूरती और भाव ने पूरा पढ़ने को मजबूर किया.
जितना भी कहूँगी कम ही पढ़ेगा ..इसलिए कुछ नहीं कहूँगी.
क्या लिखते हो यार..पढ़ते पढ़ते कैसा कैसा लगता रहा क्या कहूँ..फ़ील करूंगा देर तक..दिल की जेबें गर्म रहती हैं बहुत...
यह बंधन निरे हाड़-मास का नहीं आत्मा का है.एक दुसरे से गुथा हुआ.पुत्र के होने पर पिता सदाजीवी हो जाते है.वह आज भी हैं,कल भी रहेंगे.पिता से पुत्र तक,पुत्र से उसके पुत्र तक ..वह सृष्टि के स्रोत है.वह जलाशय ..पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिवार सींचते चले जाते है..जो आपने लिखा उसे महसूस किया जा सकता है और यह महसूस किया बताया नहीं जा सकता..
सोने वाली बात सच निकली ना...आप ने खुद साबित कर दी...गलतफहमी नहीं थी..
PS:सहेज कर रखने वाली पोस्ट.
Aah! Very touching & nostalgic!
liked the way you pour out words... :)
डॉक्टर अनुराग की किसी पोस्ट के सापेक्ष लगी मुझे ये पोस्ट ,लेखन का तरीका भी कुछ -२ वैसा ही ..भ्रम भी हो सकता है ..
इस बात को कॉम्प्लीमेंट की तरह भी लिया जा सकता है ,आलोचना की तरह भी ..
जो भी ,
काफी गहरी पोस्ट है ....
पता नहीं, इस कथा में अपने को किससे आइडेण्टीफाई करूं - मैं के साथ या वे के साथ!
सोने जैसी खरी इन अनमोल यादों को कहानी ना कहो पंकज... संजो के रखने वाले एहसास !!
कुछ नहीं.
कमाल है. उदास कर देने वाली पोस्ट. लिखने वाले ने खुद कितनी उदासी में लिखी होगी!! कई जगह कमज़ोर न पड़ने का ज़िक्र है, लेकिन यकीनन कमज़ोर क्षणों में लिखी गई मजबूत पोस्ट.
@181067914681999284.0
@स्वप्निल: :-)
@3105261043503879916.0
@दर्शन:
सच कहूँ तो डॉ साहेब की दुनिया के आस पास भी भटक सकूं, ऎसा ख्वाब में भी नहीं सोचता मैं। उनकी दुनिया के रंग बडे सच्चे होते हैं और बहुत ज्यादा ईमानदार भी। बहुत दिनो से कुछ लिखा नहीं था, कुछ बडे प्यारे और अज़ीज़ दोस्त चाहते थे कि कुछ लिख दूं। इस पोस्ट में एक कहानी कहना चाहता था। लिखते लिखते जाने कब इसमें ईमानदारी आती गयी और शायद थोडे थोडे से डॉ साहेब,निर्मल और मानव भी। काम्प्लीमेंट और आलोचना दोनो के ही लिये कभी भी शुक्रिया रहेगा...
जाने क्यों चाहता था कि इसे पढने वाले इसे एक कहानी की तरह ही पढें शायद टूटे हुये लोग मुझे खुद भी पसंद नहीं आते खैर.. सबको बहुत बहुत शुक्रिया इतनी ढेर सारी प्यारी प्यारी बातों के लिये :-)
मुझसे पूरा पढ़ा नहीं गया... कारण की यह दिल के बहुत पास लगा.... कुछ दिन पहले ही ऐसे एहसास से गुज़रा हूँ... यह इस ब्लॉग पर पढ़ी हुई मेरी नज़र में सबसे बेहतरीन संस्मरण/डायरी के पाने हैं... इतना सच कि आत्मकथा ... इतना लज़ीज़ कि परिवार... इतना तकलीफ कि विरह और इतना साधा हुआ कि जैसे योगी का दिल.
लेकिन मैंने पढ़ ही लिया पूरा.
पंकज, तुम्हारी ये पोस्ट कई बार पढ़ी और हर बार यह पोस्ट एक नया ही भाव लेकर आई, वाकई ये तुम्हारी बेहतरीन कहानियों में से हो सकती है।
किस्मत वाले हो ....जो वे हैं तुम्हारे पास !
संवेदनशील भी... जो पिता के दिल से सीधे जुड़े हो, उनका दर्द महसूस करते हो ! शुभकामनायें !!
Too good pankaj...very touching , pure and true feelings......felt like i knew every bit of it...don't know why..
Too good Pankaj, hawa mehsoos hoti hai ....na dikhai deti aur na sunai...so in ehsaason pe kya comment...aaj dobara padha
khud roye so roye hme v rula diya dost....bhut marmik hai kahani v or anubhav v....
रात आधी कहे जाने लायक हो चुकी है और तुम्हारा पोस्ट पढ़ने के बाद दूर अपने गाँव में बैठे पापा याद आ रहे हैं...बहुत ही ज्यादा, इतना कि बस पलके भीग जाये वाली याद...|
कई बार चाहा ऐसा ही कुछ लिखूँ...आज तुम्हें पढ़ रहा हूँ तो सोच रहा हूँ कि अच्छा किया नहीं लिखा| इतना खूबसूरत कहाँ लिख पाता पापा को लेकर| बरिश्ता वाली बात से याद आया कि उन्हें कैफे काफी डे में नब्बे रुपये की डेविल्स ओन्स पिलाता और फिर झूठा कहता कि काफी बस तीस रुपये की है और वो हैरान रह जाते कि इस जमाने में भी इतना सस्ता मिलता है इतना बढ़िया आइटम...और फिर अगले दिन देहरादून की सड़कों पे सकुचाते हुये फिर से डेविल्स ओन्स पीने की इच्छा जगाते और मुझे अपनी जिंदगी सार्थक होती दिखने लगती....
आज तक उनसे गले नहीं मिल पाया हूँ| मान कह रही थी पिछली छुट्टी में कि उनका भी खूब मन करता है मुझसे गले मिलने का, लेकिन जब मैं पैर छू लेता हूँ तो बस आशीर्वाद देके रह जाते हैं|
थैंक्स पंकज, इस खूबसूरत पोस्ट को साझा करने के लिए.... i feel so ... so connected with you.god bless !
....ab mei apne pa ko dekh rha hu ankho me!
निशब्द हूँ...
aaj agar papa hote to aise hi unhe main badalti hui duniya se parichit karwa rahi hoti.... thodi senti ho gayi main.
Pankaj ji ,
kya likhoon ?ajeeb se mile jule bhavon
ne gher liya hai ,man bhar aya hai,bas dua hai ki Khuda ap par un ka saya banae rakhe aur ap ko un ka aashirwad milta rahe .(ameen)
aur kuchh likhne ki sthiti men nahin hoon filhaal.
So simple and so beautiful.. You are so gifted Pankaj... Have tears in my eyes. :) Awesome.
@पंकज
पिछले महीने पापा आये थे ..कई द्रश्य हु -बहु घटे थे ..चांदनी चौक से मेट्रो से पापा को हुडा सिटी सेंटर तक लाना कितने मासूम लग रहे थे ये कहते हुए एक बार आ जाऊं फिर अपने आप आ जाऊँगा ..और मेरे दिल का ये डर वो कही परेशान ना हो अकेले ,हल्दीराम में खाने के बाद चाय ना पीने की जिद ...क्योंकि इतनी महंगी चाय पीना फिजूलखर्ची है ....और भी बहुत से लम्हे सजीव हो gaye थैंक्स
एक कविता है "वालिद की वफात पर" निदा फ़ाजली की और एक कविता है सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की "दिवंगत पिता के लिये"(यद्यपि उसका संदर्भ तुम्हारी भावभूमि से नहीं उपजा है).दोनो ही पिछले कई वर्षों से किसी भी सीली सी सुबह यकबयक याद आ जाती है. फिर याद आयी.
तुमने तो पढ़ी ही होगी....
बहुत अच्छा. आपका लेखन किसी पुरानी पहचान सा. लिखते रहें.
जनसत्ता पर आपको पढकर अच्छा लगा। काफी अच्छा लिखा है। शुभकामनायें..
Pankaj ji,
Main bahut der ae aapki is post ko padh saka. fridgh me sambhal kar rakhane wale sabdon ne sachmuch bhigo diya. Bahut he maarmik hai. Badhai.
Speechless!!
kitna mushkil hota hai bhavnao ko vyakt karna,chahe andar kitna bhi toofan sa ho, par hum sab koshish karte hain ki bahar se hum shant lage....
बहुत भावनात्मक पोस्ट .... ऐक्सिलेटर पर पहली बार चढ़ने का दृश्य याद आ गया .... मेरी भी शायद यही हालत थी ।
कितना अंदर तक उतरकर लाए हो, बंधु... आभार...
ye post maine pehle bhi padhi thi kab yaad nahi, bus itna yaad hai ke tab bhi man bheega tha ab bhi man bheega hai....
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