“Books are a narcotic.” ― Franz Kafka
"Books to the ceiling,
Books to the sky,
My pile of books is a mile high.
How I love them! How I need them!
I'll have a long beard by the time I read them."
-Arnold Lobel
कल पुस्तक मेले जाना हुआ। बहुत सोचा विचा्रा था कि पहले पुरानी किताबें जो अभी तक नहीं पढी हैं वो पढी जायेंगी। तभी नयी किताबें खरीदी जायेंगी। लेकिन हमारा सोचा हुआ ही कहाँ होता है?
कुछेक घंटो तक हम जैसे किसी सम्मोहन में थे और जब देवांशु फ़्लिप्कार्ट का नाम लेकर होश में लाया तो एक हाथ में कमलेश्वर के समग्र उपन्यास और दूसरे में कमलेश्वर की समग्र कहानियां…।’सब कुछ पढना बचा रहेगा’ मन में सोचकर उन्हे वापस उनकी जगह रखकर हम उस स्टॉल से और उस सम्मोहन से कैसे तो बस निकले।
फ़िर भी कुछ किताबें थीं जो खरीदी गयीं। किताबें जिन्हें कुछेक दोस्तों ने रेकमेंड किया था, कुछ जिनका जिक्र कभी किसी ब्लॉग पर चलते-फ़िरते पढ लिया, कुछ जिन्हें वहाँ देख-दाख कर उठाया और ज्ञानपीठ स्टॉल पर सब देख चुकने के बाद जब उनसे ही रेकमेंडेशन पूछी तो वहाँ बैठे एक मित्र ने दो किताबें सजेस्ट कीं (सजेस्ट तो काफ़ी कीं, मैंने दो ही लीं)। ये सज्जन थे कुमार अनुपम। उनसे किताबों पर कुछ भली बातें भी हुयीं। मैं उनकी कविताओं की किताब एन.बी.टी. स्टॉल पर ढूंढता रहा और फ़िर फ़ेसबुक से पता चला कि साहित्य अकेदमी ने उनकी पहली कविता की किताब – ’बारिश मेरा घर है’ छापी है। हिंदयुग्म का स्टॉल नहीं दिखा कहीं (हो सकता है मुझसे मिस हो गया हो)। लेकिन इस बार हिंदी या कहें कि भारतीय भाषाओं की किताबों के स्टॉल पिछले मेले के हिसाब से ज्यादा थे। वाणी, राजपाल, साहित्य अकेदमी, ज्ञानपीठ, किताबघर, पेंगुईन हिंदी, डायमंड, एन.बी.टी. इत्यादि।
अभिषेक बाबू अपने गैंग के साथ वहीं मिले और फ़िर वहीं हुयी एक दुर्घटना का जिक्र देवांशु कर ही चुके हैं।
इस बार वहाँ जाकर ये जरूर पता चला, कि कौन सी किताबें लेनी हैं कभी कभी ये अपने आप में बहुत बडा सवाल है। कितना कुछ है पढने को। कितना कुछ है जिसके बारे में कहीं कुछ इंटरनेट पर भी नहीं है जैसे ’खेल खेल में’ में निर्मल वर्मा ने कुछ शानदार चेक कहानियों के अनुवाद किये हैं जिनमें से दो मिलान कूंदेरा की थीं और शानदार थीं। काफ़ी नये लेखक अपनी किताबों की सोशल मीडिया के माध्यम से अच्छी मार्केटिंग कर लेते हैं। कुछ लोग जो ये सब नहीं कर पाते, ’बुकबक’ उनकी इसी समस्या को दूर करने का एक प्रयास था जो कुछेक पर्सनल और टेक्निकल दिक्कतों के कारण अभी होल्ड पर है।
किताबों के बीच अच्छा दिन गुज़रा। ’हरे कृष्ण’ गाते हुए और किताबें बेचते हुये कुछेक विदेशी दिखे जो आंटी के लिये जरूर कुतुहल का सबब थे। गीताप्रेस से गीता के साथ साथ २-२ रूपये की कुछ जीवन और समाज सुधार की किताबें भी ली गयीं। एन.बी.टी. ने भी कुछेक लेखकों की कुछ चुनिंदा कहानियों के अच्छे और ठीक ठाक मूल्य के संकलन निकाले हैं। ऎसे संकलनो से कम से कम उन लेखको से परिचय हो जाता है जिन्हें आपने नहीं पढा है या कम पढा है। ’मृतुन्जय’ ४५० रूपये की थी तो उसे अभी रहने दिया गया, ’खिलेगा तो देखेंगे’ मिली ही नहीं और मेरे सामने ही कोई ’जहालत के पचास साल’ की आखिरी प्रति भी ले गया।
ब्लॉग में अवार्ड्स के अलावा भी इन दिनों अगर आपने कुछ अच्छा पढा हो तो किताबों के नाम जरूर शेयर करें। कुछ किताबें जो मैंने इस बार मेले से लीं, उनके नाम निम्नलिखित हैं।
१- आदम की डायरी – अज्ञेय
२- बयान – कमलेश्वर
३- बीच बहस में – निर्मल वर्मा
४- छुट्टी के दिन का कोरस – प्रियंवद
५- ग्लोबल गाँव के देवता – रणेन्द्र
६- मोनेर मानुष – सुनील गंगोपाध्याय
७- दस प्रतिनिधि कहानियां – उदय प्रकाश
८- दस प्रतिनिधि कहानियां – श्रीलाल शुक्ल
९- मन एक मैली कमीज है – भवानीप्रसाद मिश्र
१०- महाभोज – मन्नू भंडारी
११- जैनेद्र कुमार की कहानियां
१२- मन्नू भंडारी की कहानियां
१३- फ़णीश्वरनाथ रेणु की कहानियां
१४- राजेंद्र यादव की कहानियां
* तस्वीरों के लिये देवांशु का शुक्रिया। ऊपर वाली तस्वीर में जो और किताबें हैं वो देवांशु ने ली हैं।
(कमलेश्वर से परिचय हिमांशु जी ने करवाया था। ये पोस्ट तब लिख रहा हूँ जब आप इस दुनिया में नहीं है। कमलेश्वर को जब जब पढूंगा, आपकी निगाहें मेरे आस-पास रहेंगी सर! …)
15 comments:
dekhe.....hum tumse mile aur tumne blog mein wapasi kar di.... :)
By the way, Nirmal verma ke anuwaad main bhi khareede hain...khel khel mein bhi...aur bhi kai kitaaben!
आप बहुत अच्छा लिखते हैं, बस लिखते रहा कीजिये !!!
पुस्तकों की लिस्ट नहीं हमें तो डायरेक्ट पुस्तकों से मतलब है, आप पढ़ो या ना पढ़ो, हम पढ़ते रहेंगे :)
हमने जो किताबें खरीदी हैं वो ये हैं :
१.यत्र तत्र सर्वत्र : शरद जोशी
२.यथासमय : शरद जोशी
३.मैला आँचल : फणीश्वर नाथ रेणु
४.जुलूस : फणीश्वर नाथ रेणु
५. नीम का पेड़ : राही मासूम रज़ा
६. गबन : प्रेमचंद्र
किताबें अक्सर अरसे से पड़ा खालीपन बाँट लेती हैं, किताबें पढना अच्छा लगता है, अगर न भी पढो तो भी ढेर सारी किताबों के पन्ने पलटते पलटते वक़्त यूँ गुज़र जाता है कि पता ही नहीं चलता.. बंगलौर में तो ऐसा कोई पुस्तक मेला नहीं लगता, हम तो लैंडमार्क या क्रौस्वर्ड से ही संतोष कर लेते हैं... पर साथ में कुछ लफंदर दोस्त भी चाहिए होते हैं जिन्हें भी किताबों से उतना ही लगाव हो... ऐसे किसी दोस्त को मैं बहुत मिस करता हूँ, अक्सर मॉल में घूमने वाले तो कई दोस्त मिलते हैं पर किताबों के साथ वक़्त गुज़ारने वाले बहुत कम...
आपको ब्लॉग पर वापस देखकर अच्छा लगा... लिखते रहिएगा...
badhiya baat ..
ab achchaa likhte rahen....
हम तो पिछली बार जितनी किताबें लाये थे, पढ़ नहीं पाए थे. कुछ फ्लिप्कार्ट से भी मंगाईं थीं, वो भी पड़ी हैं. लेकिन फिर भी आज सोच रहे हैं कि पुस्तक मेले घूम ही आयें (और हर बार की तरह सिर्फ घूमना तो होगा नहीं :)) इस समय 'कितने पाकिस्तान' पढ़ रही हूँ और बहुत गुस्से में हूँ :)
अंत में, ब्लॉगिंग जारी रखो मेरे दोस्त. जब अच्छे लोग जगह छोड़ते हैं, तब बेकार के लोग उस जगह को भर देते हैं. ऐसा मत होने दो प्लीज़.
बढ़िया कहा ...आपकी यह पोस्ट मुझे मेरे निश्चय से डगमगा रही है .की इस बार नहीं जाना क्यों की ..वहां जा कर मैं भी उस सम्मोहन से बच नहीं पाती ..नतीजा ..फिर से सिर्फ घर में किताबे और किताबे :)
घर की खिड़कियाँ खुली रहें, ऐसे ही... ब्लॉग को पढ़ते हुये पाता हूँ की आस पास ही हो।
छुट्टी के दिन का कोरस mujhe ye chahiye...:)
"एक था पंकज" ह्म्म्म
कहानियों की कहानी पर एक कहानी लिखिये...
हिन्दी किताबों को मिस कर रहा हूँ...
बहुत सी किताबें पढने के लिए जमा हो रखी हैं. फिलहाल हमने खरीदना बंद कर रखा है. अब हम किताबों की दूकान के आस पास नहीं जाते. नहीं तो और उठा ही लायेंगे... और वो पड़ी पड़ी गालियाँ देंगी - पढना नहीं तो लाया क्यूँ :)
पिछली चार किताबें किसी और की दी हुई पढ़ी हैं. जिनमें से तीन पसंद नहीं आई :)
सोच रहा हूँ कुछ लोगों को नोटिस दे दूं कि किताबें गिफ्ट करने के पहले मुझसे नाम पूछ लिया करो !
बड़े दिनों के बाद दिखे हो.. लिखते रहा करो कुछ कुछ :)
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