“जिया! मुझे लगता है पहले भी मेरे साथ ये सब घट चुका है। ये सब कुछ… मेरा इस वक्त जागना… बेमौसम नवंबर में बारिश होना… ”
“देजा वू?”
“शायद!… कितना खूबसूरत शब्द है न? देजा वू… कितनी ही भावनाओं को कितनी आसानी से कह देता है। कुछ और जोडना-घटाना ही नहीं पडता। बस सिर्फ़ एक शब्द। काश मैं भी कभी ऎसा कुछ लिख पाता!”
जिया उसकी किताबों वाली अलमारी से हटकर अब खिडकी पर आ गयी थी। खिडकी के काँच के उस पार नवंबर की बेमौसम बारिश थी और इस पार मनु।
“मनु! बेमौसम बारिश अक्सर उदास क्यों कर जाती है?”
“बेमौसम बारिश की बूंदों की बेचैनी और छटपटाहट उदास कर जाती है… जैसे अपनी ही आवाज की प्रतिध्वनि उदास कर जाती है। ऎसा लगता है कि उन्हें जिनतक पहुँचना था उन्होने अपने कान बंद किये हुये थे। जैसे वो उदास बैरंग चिट्ठियाँ थीं…”
“…जिन्हें उनके पते नहीं मिले?”
“और उन्हें वापस हमारे पास ही आना पडा। पता है, ये बडा भयानक है कि आप जिन्हें कुछ कहना चाहें, वो उसे ना सुन सकें। मैं अभी भी किसी फ़िल्म के ऎसे दृश्य को सोचते हुये भी डर जाता हूँ जहाँ कोई व्यक्ति कुछ कहना चाहता है और बगल से कोई ट्रेन तेजी से निकल जाती है। कहने वाला कह देता है और जिसे सुनना चाहिये, वो उन्हें सुन नहीं पाता। उन बच्चों के जैसे जो इस संसार में आ तो जाते हैं, लेकिन उन्हें कोई नहीं अपनाता…। उन कहानियों के जैसे जिन्हें कोई नहीं पढता।”
मनु अक्सर ऎसी बातें करते हुये अपनी कुर्सी से खडा हो जाता और कमरे में टहलने लगता। उसकी आवाज अब हर एक कोने से आती हुयी लगती। जिया की एक निगाह बाहर छिलती, रिसती बूंदो पर थी और एक निगाह मनु के चारों तरफ़ से छीलने को आते हुये शब्दों पर।
“लिखकर मैं कभी कभी अपने आप को पा लेता हूँ। लेकिन न जाने कितनी ही बार अपने आप को कहीं खो भी देता हूँ।”
“ये डरावना है!”
“और वो देखना, जो आपके साथ कभी हुआ ही न हो? कहीं से भी किसी भी व्यक्ति के भीतर चले जाना। उसके भीतर उसके जैसे ही होकर रहना और उसकी ही ज़िंदगी जीना जैसे वो जीता है। वैसे ही आसपास को स्पर्श करना, महसूस करना जैसे वो करता है। उसके ही जैसे सोचने को अपनी सोच से अलग रखते हुये सोचना।”…… “यूं ही कभी कभी उन घटनाओं का हिस्सा बन जाना जो आपकी अपनी कभी थीं ही नहीं इन फ़ैक्ट अपने जीते जी आप ने ऎसी किसी भी घटना के घटने के बारे में भी नहीं सुना… “
“बेहद अजीब है…”
“लिखना कुछ वैसा ही है। बेहद अजीब।”
मनु अपनी एक किताब उठाकर उसे सहलाने लगा। उसे सहलाते हुये वो घर की दीवारों के पार किसी दुनिया में चला गया।
“लिखना किसी खाली पडे घर में घुस जाने जैसा है जहाँ रहने वाले लोग अब वहाँ नहीं रहते। लिखना उन घरों में रहने जैसा है।”
उस कमरे में जैसे सब कुछ चुप हो गया। कई शब्द चुपचाप उसकी किताब से निकलकर उस कमरे में चारों तरफ़ फ़ैल गये। बस धीरे धीरे हल्की होती हुयी एक ध्वनि रही जिससे ये आभास होता रहा कि अभी अभी यहाँ देर तक रहने वाला कुछ कहा गया है।
“उन घरों में रहने जैसा जहाँ आपकी कही हुयी बातें दीवारों से टकराती हैं और फ़िर वापस आपके ही पास आ जाती हैं। हमें एक क्षण को लगता है कि ये तो वहाँ के रहने वालों की आवाज है लेकिन असलियत में वहाँ कोई नहीं होता।”
“तो लिखना अपनी ही आवाज को किरदारों की आवाज में सुनना है?”
मनु ने खिडकी खोल दी। जिया अभी भी खिडकी की एक तरफ खडी थी। खिडकी खुलने से बारिश थोडी तेज सी लगने लगी।
“लिखना अपनी आवाज को खो देना है…” मनु धीरे से बुदबुदाया।
उसका बुदबुदाना वैसे ही रह गया। खिडकी के पल्लों की चरमराहट और बारिश की तेज आवाज किसी ट्रेन के जैसे उसके कहे के ऊपर धडधडाती गुज़र गयीं।
जिया कभी कभार उस कमरे में अभी भी चली जाती है। उसे अब देजा वु शब्द मनु जितना ही खूबसूरत लगता है। उस कुर्सी पर अब कोई नहीं बैठता लेकिन मनु की वो बातें जैसे हमेशा से वहीं हैं। वहीं कहीं कूडे के डिब्बे में मुडे तुडे आधे अधूरे कागजों के संग या उसकी किताबों वाली अलमारी में रखी किसी किताब में छुपी हुयी या उसकी मेज पर फ़ैली मैगजीनों में दबी हुयी……।
वो घर अभी खाली है। जुलाई की धूप में भी कभी कभी उसे उसी खिडकी के बाहर नवंबर की बारिश सा आभास होता है। वो एक पल तो उसमें डूब जाती है फ़िर अगले ही पल मुस्कराते हुये सोचती है… देजा वु।
31 comments:
Pure Awesome
Bahut achha laga ye padhneka anubhav!
Pure Awesomeness...simply superb :)
कहे के ऊपर धडधडा के गुजरना अच्छा लगा. इसके विपरीत कई बार एक अजीब सी शांति में बिन कहे भी बातें एक्सचेंज हो जाती हैं... जिन्हें कहना है जिन्हें सुनना है दोनों बिन कहे सुने समझ जाते हैं पर... खैर...
लिखने का दर्द खूबसूरती से बयां हुआ है...अच्छी रचना
लिखना भले ही वाह्य विषयों पर हो पर अन्ततः अपने हृदय कक्षों को टटोलते हैं हम। अपने बारे में जानना कितना आवश्यक है न। स्वयं को टटोलना कितना जाना पहचाना सा लगता है। देजा वू।
मेरी भाषा में "खतरनाक"..
Awesome post maalik...
तुम कमाल का लिखते हो पंकज...सुबह फिर पढ़ने आई. वो कहते हैं न फाइव स्टार वाले. इसे पढकर हम कहीं खो जाते हैं :)
... behatreen
वाह लाजवाब .....बेहतर तरीके से आपने अपनी बात कही है .बेहतरीन
लिखना अपने आपको खो देना है क्योंकि जो चीज़ अपनी होती है दिल के भीतर कहीं छुपी, वो लिख देने पर बाहर आ जाती है और सबकी हो जाती है.
लिखना घुप अँधेरे में दिया जलाने जैसा है क्योंकि जो चीज़ें पहले से होती हैं और दिखती नहीं, वो दिए के उजाले में दिखने लग जाती हैं.
लिखना खुद में ही छुपी उन बातों को पाना है, जिन्हें उनके होने के बावजूद हमने कभी महसूस नहीं किया.
...ऊपर तुम्हारा लिखा एक भूल-भूलभुलैया में खो जाने जैसा है.
ये आराधना ना...जो भी सोचा था टिप्पणी में लिखूंगी..उसकी टिप्पणी पढ़..सब भूल गयी :(
बस बढ़िया लिखा है...यही बच गया :)
:) मैं क्या कहूँ ... लिखना क्या क्या है ..कभी इस पर सोचा नहीं था ..कल तक तुम्हारे buzz तक तो बिलकुल नहीं ... :)... और आज यहाँ आया तो देखा लिखना क्या क्या होता है ...बहुत खूबसूरत हैं ये बातें ... और हाँ बेमौसम की बरसात भी इस पोस्ट में उदास नहीं लगी .. :)
सब तो लिख दिया सबने ,अब मैं क्या लिखूं:).बस मान लो बहुत बहुत अच्छा लिखा है.
यह बिलकुल सच है ...इसे कभी भी नजर अंदाज नहीं किया जा सकता ...बहुत -बहुत आभार
http://kabaadkhaana.blogspot.com/2010/12/blog-post_25.html
देजा वू....जाने कितनी बार होता है मेरे साथ भी। आज दिनों बाद विचरण करने निकला हूँ ब्लौग जगत में। तुम्हारे शब्द,तुम्हारा लिखा अच्छा लगता है।
देजा वू...वो एक फिल्म कितनी अलग-सी थी। इस पोस्ट के मुकाबले।
लिखना दरअसल अपने अप को एक्स टेंड करने जैसा है ..१२ साल की उम्र से ३५ के बीच कही भी आसानी से फलांगा जा सकता है ...बिना गिरने का डर लिए ......लिखना दरअसल अपने भीतर दोबारा कुछ रास्तो पर गुजरना है.....उन किवाड़ो को खोल कुछ कुछ सार्वजनिक करना....... इस तरह से के रौशनी पड़े भी ओर .......
कितना खूबसूरत शब्द है न? देजा वू… कितनी ही भावनाओं को कितनी आसानी से कह देता है। कुछ और जोडना-घटाना ही नहीं पडता। बस सिर्फ़ एक शब्द।
और क्या कहूँ.. बस इतना ही की काश मैं भी कभी ऎसा कुछ लिख पाती !
@6221196562012977228.0
सागर, लिंक के लिये शुक्रिया.. बेहतरीन है और तकलीफ़दायक भी..
ऋचा और दर्पण को धन्यवाद जिन्होने इसे पोस्ट किये जाने से पहले पढने का रिस्क उठाया और कंधे पर हाथ रखकर कहा कि पब्लिश के बटन को आहिस्ता से बिना डरे दबा दो।
लिखना कचोटता है। या तो आपके पात्र आप पर हावी हो जाते हैं या आप अपने पात्र पर और दोनो में यह टकराव की स्थिति तबतक बनी रहती है जब तक आप हार मानकर अपने पात्रों को मार नहीं देते और कहानी को खत्म नहीं कर देते। कहानी पूरी होते ही आप नये पात्रों की खोज में लग जाते हैं और पुराने पात्र कहीं कुहरे में गुम हो जाते हैं..
पोस्ट में लय की कमी है, बहुत कुछ बिखरा हुआ है और न जाने कितना कुछ जो मैं देख सकता था, वो मैं दिखा नहीं पाया..
खैर..पुस्तक मेले से ढेर सारी किताबें आयी हैं। शायद कुछ ऊर्जा के कुछ स्रोत मिलें और मैं भी कभी कुछ कायदे से कह पाऊं।
और वो देखना जो आपके साथ कभी हुआ ही न हो...
बेहद अजीब है...और ये भी कि बिना वजह किसी नफरत हो जाना जैसे कि बिना वजह प्यार हुआ करता है....
नफरत इतनी कि उसके शब्द तीर जैसे चुभने लगे ... उसकी कहानियाँ अच्छी होती हुई भी बेहद बुरी लगे...
कितना अजीब है ये सब... और कितना नफरत भरा...जैसे कि ये शब्द .. देजा वू...
एक शब्द अंतर से कितना निकाल जाता है। बस बैठें, तब।
ऐसा ही है रॉदेवू (rendezvous)। कभी उसे सामने रख लिखना बन्धु!
@7521409157603838999.0
@ पंकज... अच्छा तुमने पहले पढ़ाया था क्या हमें ? हमें लगा "देजा वू" है... :)
its always a pleasure to read you... और ये तो हमारे लिये किसी फिल्म की स्पेशल स्क्रीनिंग जैसा था... keep writing !!
likhna wo sab kuch hai jo tumne likha hai...iske alawa likhna kabhi khud ko pa lene jaisa aur kabhi khud ko gum ho jane dene jaisa bhi hai....
उदासी का मौसम, बिना मौसम की बारिश..और देजा-वू!!!..पोस्ट नही लीथल कॉकटेल है गुरू...आखिर तक पहुंच के देजावू सा फ़ील होता है कि फिर से शुरू करना पड़ता है...
खैर लिखने पर कही भली और अच्छी बातें कहीं..फ़ूड फ़ॉर थाट!! कुछ बातें समझने की कोशिश की गयी तो कुछ को सहेजने की..!
और दिल्ली मे भी कोई खाली पड़ा घर पकड़ लिया क्या? :-)
दिल्ली आ के देजा वू! अच्छा है सरकार :)
Hello Dear,
Wish You a very very Happy New Year! May God fulfil all your dreams. God Bless You!
Love
Sabi SUnshine
अच्छा तो ये होता है देजा-वू..तभी मुझे लगा कि ये सब पहले भी कहीं पढ़ रखा है ;)
इसे पहली भी कहीं लिखा था क्या? ऐसा लगा पहले भी कभी पढ़ा था ...मगर गलत! बार बार देखा था मगर फिर भी नया लगा -यानि जामिया वू !
“लिखना अपनी आवाज को खो देना है…”
“लिखकर मैं कभी कभी अपने आप को पा लेता हूँ। लेकिन न जाने कितनी ही बार अपने आप को कहीं खो भी देता हूँ।”
well said..!!
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