Wednesday, September 26, 2012
Sunday, September 16, 2012
Friday, September 7, 2012
होकर भी नहीं होना
Tuesday, September 4, 2012
सब कुछ पढना बचा रहेगा…
“Books are a narcotic.” ― Franz Kafka
"Books to the ceiling,
Books to the sky,
My pile of books is a mile high.
How I love them! How I need them!
I'll have a long beard by the time I read them."
-Arnold Lobel
कल पुस्तक मेले जाना हुआ। बहुत सोचा विचा्रा था कि पहले पुरानी किताबें जो अभी तक नहीं पढी हैं वो पढी जायेंगी। तभी नयी किताबें खरीदी जायेंगी। लेकिन हमारा सोचा हुआ ही कहाँ होता है?
कुछेक घंटो तक हम जैसे किसी सम्मोहन में थे और जब देवांशु फ़्लिप्कार्ट का नाम लेकर होश में लाया तो एक हाथ में कमलेश्वर के समग्र उपन्यास और दूसरे में कमलेश्वर की समग्र कहानियां…।’सब कुछ पढना बचा रहेगा’ मन में सोचकर उन्हे वापस उनकी जगह रखकर हम उस स्टॉल से और उस सम्मोहन से कैसे तो बस निकले।
फ़िर भी कुछ किताबें थीं जो खरीदी गयीं। किताबें जिन्हें कुछेक दोस्तों ने रेकमेंड किया था, कुछ जिनका जिक्र कभी किसी ब्लॉग पर चलते-फ़िरते पढ लिया, कुछ जिन्हें वहाँ देख-दाख कर उठाया और ज्ञानपीठ स्टॉल पर सब देख चुकने के बाद जब उनसे ही रेकमेंडेशन पूछी तो वहाँ बैठे एक मित्र ने दो किताबें सजेस्ट कीं (सजेस्ट तो काफ़ी कीं, मैंने दो ही लीं)। ये सज्जन थे कुमार अनुपम। उनसे किताबों पर कुछ भली बातें भी हुयीं। मैं उनकी कविताओं की किताब एन.बी.टी. स्टॉल पर ढूंढता रहा और फ़िर फ़ेसबुक से पता चला कि साहित्य अकेदमी ने उनकी पहली कविता की किताब – ’बारिश मेरा घर है’ छापी है। हिंदयुग्म का स्टॉल नहीं दिखा कहीं (हो सकता है मुझसे मिस हो गया हो)। लेकिन इस बार हिंदी या कहें कि भारतीय भाषाओं की किताबों के स्टॉल पिछले मेले के हिसाब से ज्यादा थे। वाणी, राजपाल, साहित्य अकेदमी, ज्ञानपीठ, किताबघर, पेंगुईन हिंदी, डायमंड, एन.बी.टी. इत्यादि।
अभिषेक बाबू अपने गैंग के साथ वहीं मिले और फ़िर वहीं हुयी एक दुर्घटना का जिक्र देवांशु कर ही चुके हैं।
इस बार वहाँ जाकर ये जरूर पता चला, कि कौन सी किताबें लेनी हैं कभी कभी ये अपने आप में बहुत बडा सवाल है। कितना कुछ है पढने को। कितना कुछ है जिसके बारे में कहीं कुछ इंटरनेट पर भी नहीं है जैसे ’खेल खेल में’ में निर्मल वर्मा ने कुछ शानदार चेक कहानियों के अनुवाद किये हैं जिनमें से दो मिलान कूंदेरा की थीं और शानदार थीं। काफ़ी नये लेखक अपनी किताबों की सोशल मीडिया के माध्यम से अच्छी मार्केटिंग कर लेते हैं। कुछ लोग जो ये सब नहीं कर पाते, ’बुकबक’ उनकी इसी समस्या को दूर करने का एक प्रयास था जो कुछेक पर्सनल और टेक्निकल दिक्कतों के कारण अभी होल्ड पर है।
किताबों के बीच अच्छा दिन गुज़रा। ’हरे कृष्ण’ गाते हुए और किताबें बेचते हुये कुछेक विदेशी दिखे जो आंटी के लिये जरूर कुतुहल का सबब थे। गीताप्रेस से गीता के साथ साथ २-२ रूपये की कुछ जीवन और समाज सुधार की किताबें भी ली गयीं। एन.बी.टी. ने भी कुछेक लेखकों की कुछ चुनिंदा कहानियों के अच्छे और ठीक ठाक मूल्य के संकलन निकाले हैं। ऎसे संकलनो से कम से कम उन लेखको से परिचय हो जाता है जिन्हें आपने नहीं पढा है या कम पढा है। ’मृतुन्जय’ ४५० रूपये की थी तो उसे अभी रहने दिया गया, ’खिलेगा तो देखेंगे’ मिली ही नहीं और मेरे सामने ही कोई ’जहालत के पचास साल’ की आखिरी प्रति भी ले गया।
ब्लॉग में अवार्ड्स के अलावा भी इन दिनों अगर आपने कुछ अच्छा पढा हो तो किताबों के नाम जरूर शेयर करें। कुछ किताबें जो मैंने इस बार मेले से लीं, उनके नाम निम्नलिखित हैं।
१- आदम की डायरी – अज्ञेय
२- बयान – कमलेश्वर
३- बीच बहस में – निर्मल वर्मा
४- छुट्टी के दिन का कोरस – प्रियंवद
५- ग्लोबल गाँव के देवता – रणेन्द्र
६- मोनेर मानुष – सुनील गंगोपाध्याय
७- दस प्रतिनिधि कहानियां – उदय प्रकाश
८- दस प्रतिनिधि कहानियां – श्रीलाल शुक्ल
९- मन एक मैली कमीज है – भवानीप्रसाद मिश्र
१०- महाभोज – मन्नू भंडारी
११- जैनेद्र कुमार की कहानियां
१२- मन्नू भंडारी की कहानियां
१३- फ़णीश्वरनाथ रेणु की कहानियां
१४- राजेंद्र यादव की कहानियां
* तस्वीरों के लिये देवांशु का शुक्रिया। ऊपर वाली तस्वीर में जो और किताबें हैं वो देवांशु ने ली हैं।
(कमलेश्वर से परिचय हिमांशु जी ने करवाया था। ये पोस्ट तब लिख रहा हूँ जब आप इस दुनिया में नहीं है। कमलेश्वर को जब जब पढूंगा, आपकी निगाहें मेरे आस-पास रहेंगी सर! …)