ट्रेन के आने में अभी भी समय है…
आज ’नेह’ को २ बजे वाली ट्रेन से वापस जाना है। बान्द्रा से दिल्ली जाने वाली वो ट्रेन, सिर्फ़ दो मिनट के लिये बोरीवली रुकती है। संडे होने के कारण आज प्लेटफ़ार्म पर रोज़ के मुकाबले भीड़ कुछ कम है। यहाँ छोटे शहरो की तरह लोग कभी कभार ट्रेन्स पर नहीं चढ़ते। बॉम्बे में ज़िंदगी हर पांच मिनट पर उन पटरियों पर दौड़ती है। हर पांच मिनट मे न जाने कितने ही लोग उन ट्रेन्स से उतर जाते है और कितने ही नये लोग उसमे चढ़ जाते है। न तो रुका हुआ प्लेटफ़ार्म इसकी परवाह करता है और न ही भागती हुयी लोकल्स। दौड़ती हुयी ज़िंदगी भी कहाँ किसकी परवाह करती है…
बोरीवली के प्लेटफ़ार्म नम्बर चार की भागती दौड़ती उस भीड़ में वही एक रुका हुआ सा लगता है। कुछ सोंचते हुये इधर उधर किसी भी रैंडम डायरेक्शन में टहलता हुआ दिखता है… कभी कभार मोबाईल पर समय भी देख लेता है। उस दो मिनट की मुलाकात के लिये वो आधे घंटे पहले ही प्लेटफ़ार्म पर पहुँच गया है। कुछ महीने पहले आये एक कॉल से ही तो ज़िंदगी कुछ थमी थी और दो लोगों ने इन दो मिनटो को सहेजने की रूपरेखा तैयार कर ली थी…
- पहचाना?
- ह्म्म… हाँ, शायद।
- नहीं पहचाना, आई नो…
- नेह?
- तुम्हारी ज़िंदगी मे ऎसी रांग टाईम एन्ट्री और कौन मार सकता है?
- तुम बिल्कुल नही बदली हो।
- लेकिन ज़िंदगी काफ़ी बदल गयी है… बॉम्बे आ रही हूँ लेकिन शायद मिल न पाऊ…
- ह्म्म…
- वो तुम्हारी क्रश कैसी हैं? सॉरी, मैं उनका नाम भूल गयी वो राईटर जिनके बारे में तुम बताया करते थे?
- ’एहसास’… उम्र बढ़ने के साथ साथ उनकी खूबसूरती भी बढती जा रही है…। अच्छी हैं… सुन्दर हैं…
- मुझे मेरे सामने तुम्हारे मुंह से किसी और लड़की की तारीफ़ अच्छी नहीं लगती… तुम भूल गये शायद? ऎनीवेज़… जोकिंग बाई द वे…
- ह्म्म… कोई बात नहीं…
- मुझसे मिलने का मन नहीं है न? ऎनीवेज़… जाते वक्त ट्रेन से जा रही हूँ… ट्रेन बोरीवली रुकती है… तुम आ जाओगे तो बाद का सफ़र आसान हो जायेगा…
- मै जरूर कोशिश करूँगा…
- पहले कोशिश करते तो शायद ये सफ़र भी आसान हो जाता… ऎनीवेज़… और सुनाओ?
- बस… सब बढ़िया है… तुम कैसी हो? बॉम्बे कैसे आना हुआ?
- अच्छी हूँ… खुश हूँ… अभी कुछ महीने पहले ही इंडिया आना हुआ… इन्होने दिल्ली में अपनी एक कम्पनी स्टार्ट की है। कुछ समय से उसी सिलसिले मे ये बॉम्बे में ही हैं। तुम्हें तो याद नहीं होगा? २ जुलाई को मेरा जन्मदिन है… इन्होने कहा कि बॉम्बे ही आ जाओ… फ़िर से हनीमून मनाते है। समटाईम्स ही इज़ रोमान्टिक, यू नो।
- तुम्हारा जन्मदिन मुझे याद है…
- अच्छा!! इन पांच सालों में कभी विश तो नहीं किया? ऎनीवेज़… इन्होने तो कहा कि ट्रेन से क्यूं जा रही हो पर मैंने सोंचा कि बोरीवली स्टेशन को भी देख लूंगी… शायद तुम्हारे साथ… जैसे तुम सब कुछ अपनी आँखों से दिखाते थे… वो बोरीवली से दिल्ली तक की जर्नी याद है? पूरे सफ़र तुम मुझे कुछ न कुछ दिखाते रहे थे…
- अब मुझे कुछ नही दिखता…
- क्यूं? चश्मे का नम्बर बढ़ गया है क्या? वैसे चश्मे में तुम एकदम राईटर लगते थे… लेकिन तुम न कभी भी एक्स्प्रेसिव नहीं थे… न जाने कैसे इतना कुछ लिख लेते थे… कुछ कहते हुये तो मैंने कभी नहीं सुना… वो तो मैं थी जिसने तुम्हें इतना झेल लिया… और कोई होती तब पता चलता तुम्हें…
अनाउन्समेंट: बान्द्रा स्टेशन से दिल्ली जाने वाली एक्सप्रेस ट्रेन ५ मिनट की देरी से…………
वो मोबाईल में समय देखता है। अभी १० मिनट और हैं…
- ह्म्म… कबकी ट्रेन है?
- ५ जुलाई को २ बजे बोरीवली मे ऎराईवल टाईम है… कितने अच्छे दिन थे न? तुम्हारी हर कहानी में कहीं न कहीं मैं होती थी… नहीं तो मुझसे की गयी वो ढ़ेर सारी बातें जो तुमने कभी मुझसे सामने से नहीं कही… तुम्हारी कहानियों में मैं जीती थी… याद है एक बार जब तुमने मेरे कैरेक्टर को एक कोई भद्दा सा नाम दिया था
- ह्म्म… और तुमने कहा था कि अबसे कैरेकटर्स के नाम तुम डिसाईड किया करोगी… खासकर जो तुमसे इन्सपायर्ड हो…
- हाँ और तुम्हें लगा था कि एक्नोलेजमेंट में इसका नाम भी लिखना पड़ेगा (खिलखिलाते हुये)
- ट्रेन बस दो मिनट रुकेगी?
- हाँ!! चाहो तो साथ चल सकते हो दिल्ली तक… यादों की पुरानी पेंटिंग्स पर साथ साथ नये ब्रश मारेंगे… ऎनीवेज मैं तो अभी पुरानी नहीं हुयी हूँ, यू नो…
- मैं तो नया नहीं रहा… ऎनीवेज तुम्हारे ’ऎनीवेज’ अभी भी उतने ही मीनिंगफुल हैं… ऎसे एकदम से दिल्ली तो नहीं जा पाऊंगा… प्लेटफ़ार्म पर आने की कोशिश करता हूँ…
- ओह ’एकदम से’? याद है जब तुम्हारे कहने पर ’एकदम से’ मैंने अपनी ट्रेन छोड़ दी थी… अगले एक हफ़्ते तक मुझे फ़िर कोई रिजर्वेशन नहीं मिला था। वापस घूमकर हॉस्टल भी नहीं जा सकती थी… लेकिन कितनी अच्छी शाम थी न? हम तुम हाथों में हाथ डाले जे जे फ़्लाईओवर पर घूम रहे थे… घनघोर ट्रेफ़िक में… जहाँ फ़ोर व्हीलर रेंग रहे थे… हम भाग रहे थे… बॉम्बे के सबसे बडे फ़्लाईओवर पर… पैदल… और उसके बाद ऎशियाटिक लाईब्रेरी की सीढ़ियों पर घंटो बैठे रहना… सामने वाले पार्क में हो रहे किसी नाटक को देखते रहना… उन भीनी भीनी पीली लाईट्स मे
- अब शायद सफ़ेद लाईट्स लग गयी है वहाँ… कोई बता रहा था काफ़ी समय से उधर नहीं गया…
- अच्छा!… दूधिया रोशनी भी अच्छी लगती होगी… ऎनीवेज़ और क्या क्या बदल गया है?
- बस और आटो के रेट्स बढ गये हैं…
- तुम भी तो बढ गये हो! तुम्हारी नयी कहानी पढी थी। उसके पुरुष पात्र का किसी उम्रदराज महिला के साथ एक फ़िजिकल सीन भी था… किसके बारे में सोंचकर लिखा?…… सिर्फ़ सोंचा ही न?
ट्रेन की आवाज धीरे धीरे तेज होती जा रही थी… वो दूर पटरियों की तरफ़ देखने लगा। दूर से एक ट्रेन आ रही थी… पुरानी यादों के साथ… धीरे धीरे… धीरे धीरे…