Saturday, July 31, 2010

घर लौटने का समय

- और?

- और क्या? उससे इतना प्यार करूंगी, जितना आजतक किसी ने किसी से भी नहीं किया होगा?

- सब यही कहते हैं…

- अच्छा, फ़िर इतना प्यार… इतना, कि कोई ’किसी’ से भी इतना प्यार करेगा तो मुझे ईर्ष्या होगी कि कोई किसी से भी इतना प्यार कैसे कर सकता है

- तो तुम खुद से ईर्ष्या करोगी?

- हाँ, जितना प्यार करूंगी, उतनी ईर्ष्या भी करनी पड़ेगी…

- इंट्रेस्टिंग…… लेकिन अगर तुम अपनेआप से ही उतना प्यार करो, तो? तो तुम्हे अपनेआप से ईर्ष्या भी करनी पड़ेगी? क्या ये संभव है? तुम्हे लगता है कि ये दोनो साथ साथ चल सकेगे?

 

और फ़िर वो एक सोच मे डूब जाती। उधर दूर सूरज भी धीरे धीरे डूबता जाता……

दोनो चुपचाप साथ साथ दूर तक देखते रहते। दोनो का अलग अलग ’दूर’  धीरे धीरे खिसकते खिसकते एक ’दूर’ हो जाता और तब दूरियाँ ’दूरियाँ’ नही रहतीं। वो उनके वापस घर लौटने का समय होता…

चुपचाप… साथ साथ…

Tuesday, July 20, 2010

मेरी नज़र से एक शख्सियत – अभय तिवारी

Picture0102उस गली में ’साईं’ नाम की कई बिल्डिंग्स हैं। एक बिल्डिंग के सामने से अभय भाई को फ़ोन लगाता हूँ “फ्लैट नंबर…? भूल गया?” वो बताते हैं और मैं उनके फ़्लैट के सामने खड़ा हूँ।

दाढ़ी-मूछों  वाले ये भाईसाहब, दरवाजा खोलते हैं… मैं ’नमस्कार’ करता हूँ, वो बड़े प्यार से हाथ मिलाते हैं। मैं सोफ़े पर बैठ जाता हूँ… आस पास नज़र दौड़ाता हूँ तो बस किताबें ही किताबें हैं। मेरा मन होता है उठकर सबकुछ अपने हाथों से छूकर देखूँ फ़िर चुप ही बैठा रहता हूँ।

बातें शुरु होती हैं और फ़िर चल पड़ती हैं… किसी बात पर वो कहते हैं कि “हाँ, लोग ’उदय प्रकाश’ को भी तो नहीं छोड़ते”। मैं  साहित्यिक विकलांग, पूछ्ता हूँ  कि “कौन उदय प्रकाश?” “अरे! उदय प्रकाश की कहानियां नहीं पढीं?” और वो सोफ़े से उठ जाते हैं। अपनी उस संजोयी हुई धरोहर से एक किताब निकालकर मुझे देते हैं “इसे पढ़ना।” मैं उस किताब को बड़ी नरमी से छूता हूँ… देखकर लगता है कि बहुत पुरानी किताब है। नाम देखता हूँ – “…और अंत में प्रार्थना”

 

करीब एक हफ़्ते बाद मैं फ़िर उसी बिल्डिंग के सामने हूँ। फ़ोन लगाता हूँ “फ्लैट नंबर…? फ़िर भूल गया?”

उन्होने सर पर एक गमछा बाँधा हुआ है। मैं कहता हूँ “स्मार्ट लग रहे हैं?” मुस्कराते हुये जवाब आता है “पढ़ते वक्त मैं गमछा बांध लेता हूँ  ताकि सारे विचार मस्तिष्क के साथ जुड़े रहें, इधर उधर छिटके नहीं”। “अच्छी तकनीक है, मैं भी ट्राई करूंगा” मैं कहता हूँ। उनके साथ बैठा हूँ… वो रामचरितमानस पढ़ रहे हैं… पूछते हैं “रामचरितमानस पढ़ी है?” “अपने पास-पड़ोस, रिश्तेदारों में रामायण बैठने पर मुझे ही बुलाया जाता था” मै लम्बी वाली फेंकता हूँ। वो दो चौपाईयाँ पढ़ते हैं और अपने साथ साथ मुझे भी उसमें स्वीमिंग करवा देते हैं। उनके साथ बातें करने में आनन्द आता है। कुछ जाना – अनजाना सीखता रहता हूँ… कुछ ’नहीं’ पूछने वाले सवाल भी पूछता हूँ,  जिनका अहसास मुझे घर आकर ही होता है… इस बार उनकी किताब ’कलामे रूमी’ ही ले आया हूँ। ’सरपत’ भी किसी दिन मांगकर देख ही डालूँगा।

 

अभय तिवारी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं।  थैंक्स टु पीडी, Picture0135c मैंने उनकी एक खूबसूरत सी पोस्ट  पढ़ी थी जो मैं गाहे बगाहे लोगों के सामने ऐज अ डायलाग मार देता हूँ… ’कबूतर जैसा मशहूर नहीं ’। उनको जितना पढ़ा, हमेशा एक नया प्वाइंट, एक नयी ऎनालिसिस समझने को मिली और जिसे मेरे जैसे लोग भी अच्छी तरीके से समझ पाये… अब चाहे वो फ़ुटबाल से भारत के प्राचीन रिश्ते की बात हो , या सर के पिछले हिस्से के महत्व की बात, या टाई लगाकर हिन्दी कहने की बात, या जुझारु जेसिका और एडवर्ड सईद के किस्से,  या ……आप खुद ही पढ़ लीजिये

 

कलामे रूमी’ की एक प्रति, अब मेरी हो चुकी है और मेरी डेस्क पर चमक रही है। आदतन सबसे पीछे वाला पन्ना पढता हूँ तो उनके ब्लॉग का लिंक भी है… मैं मन ही मन मुस्कराता हूँ और एक्नोलेजमेन्ट का एक पैरा पढ़ता हूँ:

सबसे पहले तो मैं धन्यवाद देता हूँ अपने पिता स्व. नरेश चन्द्र तिवारी और माँ श्रीमती विमला तिवारी को, जो मेरे शरीर, चरित्र और व्यक्तित्व के निर्माता हैं। उसके बाद मैं  अपनी पत्नी तनु का आभारी हूँ जिसने मुझे हमेशा एक नैतिक बल दिया और मेरे ऊपर सांसारिकता की सीढियां चढ़ने का कोई दबाव नहीं बनाया। फ़िर धन्यवाद देता हूँ मेरे मित्र फ़रीद खान को जिन्होने उमर में छोटे होने के बावजूद उर्दू-फ़ारसी का अक्षर ज्ञान कराने में मेरी उंगली पकड़ी ; और मेरे मित्र बोधिसत्व जिन्होने मेरी जरूरत की किताबें मुझे मिलती रहे, इसके लिये नि:स्वार्थ चिन्ता की; और मित्र प्रमोद सिंह को जिन्होने मेरे काम के प्रति उत्साह और अपने प्रति निर्ममता को बनाए रखने में निरंतर सहयोग दिया। अंत में बिबोध पार्थसारथी और विश्वजीत दास समेत अपने तमाम साथियों और मित्रों के साथ, अपनी उन पेशेवर असफलताओं का भी आभारी हूँ  जिन्होने मुझे यह काम करने का आयाम उपलब्ध कराया।

 

तभी याद आता है कि किताब पर उनके ऑटोग्राफ़ लेना तो भूल गया हूँ… चलिये बिल्डिंग तक का रास्ता तो पता है ही और आगे बस एक फ़ोन करना है और पूछना है -  “फ्लैट नंबर…? फ़िर भूल गया?” 

 


P.S. कलामे रूमी फ़्लिपकार्ट पर उपलब्ध है। पहली वाली फ़ोटो का लिंक  भी उसी पेज पर रिडायरेक्ट करता है।


पुनश्च:

टिप्पणी में सतीश पंचम जी ने अभय भाई की एक पोस्ट का जिक्र किया जिसमें मुम्बई में हिंदी किताबें रखने वाली दुकानों का जिक्र था और ये हिंदी साहित्य पढ़ने वाले मुम्बई वासियों के लिये एक सहेजकर रखी जाने वाली पोस्ट ही है।

 

पिछले पन्नो से: मेरी नज़र से एक शख्सियत - संकल्प शर्मा

Saturday, July 17, 2010

मुम्बई की एक रात…

बगल में रखा मोबाईल वाईब्रेट कर रहा है…… ATT00006

स्क्रीन पर आदित्य का नाम फ़्लैश कर रहा है और कमरे के उस घुप्प अँधेरे में मोबाईल के स्क्रीन की बार बार जलती-बुझती उस रोशनी से रिया की आँखें चुभ रही हैं । पिछले एक हफ़्ते से यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। हर रात रिया घंटों उस नम्बर को फ़्लैश होते देखती रहती है और आदित्य उन कॉल्स को तड़प तड़पकर मरते…

 

उस दिन आदि की आवाज़ में कितनी बैचेनी थी… एक हताशा थी… एक हार थी। मुम्बई की रोज की दौड़ में उस दिन वो शायद पिछड़ गया था… या शायद दौड़ा ही नहीं था। दौड़ा नहीं तो थका भी नहीं … इसलिये उसे नींद नहीं आयी होगी। सोने की भरपूर कोशिश करने के बाद भी जब बिस्तर की सिलवटों को किसी और की कमी खली होगी, तब उसने मुझे रात के उस तीसरे पहर कॉल  किया होगा…। ह्म्म… अपने खालीपन को पूरा करने के लिये… उसी के लिये ही…

ये सब सोचते हुये रिया अपने अँधेरे कमरे की खिड़की खोल देती है और उस खिड़की से दूर दिखती लैम्पपोस्ट को एकटक देखती रहती है।

’अँधेरे को उजाला आसानी से चीरता है या उजाले को अँधेरा” ये सोचते सोचते, वो भी कहीं बहुत भीतर से, उसी लैम्पपोस्ट की रोशनी से,  धीरे धीरे चिरती जाती है। धीरे धीरे, लैम्पपोस्ट की वो रोशनी  भी जलने-बुझने लगती है। आदित्य का नाम वहाँ भी फ़्लैश होने लगता है।

……आदित्य कॉलिंग

दीवाल घड़ी रात के दो बजा रही है। मुम्बई की जादुई बारिश भी शुरु हो गयी है…

उस रात भी तो बारिश ही थी न जब आदि मुझे भिगोता चला गया था। आदि की कल्पनाओं में कितनी वास्तविकता थी, कितनी विविधता थी और उसका कहने का अंदाज़… उस रात वो जो भी आब्जेक्ट्स दिखा रहा था, वो मुझे दिखते थे। मै उसकी कल्पनाओं में बहती जाती थी… मैं उसका सुनाया अपनी बंद आँखों के आसमान में  देख रही थी… उसकी बातों से ज़ेहन में  नये नये स्केचेज़ बनते जाते थे। ज़ेहन के किसी एक कोने मे ’सही/गलत’ की बातें भी सर उठाती दिखती थीं… उसे भी दिखती होगीं लेकिन जिसे दिखती थीं वो दूसरे को उसका दिखना कहाँ बताता था… वो बस बातें  करता जाता था… कुछ कुछ छिपाता… कुछ कुछ बताता। ’सही/गलत’ मुझे सिर्फ़ ताकते रह जाते थे… मैंने  भी उनसे आँखें न मिलाकर नीची ही कर रखी थीं…

…और,

और, अगली सुबह ज़िंदगी उस कमरे में बिखरी पड़ी थी। रात की खरोचें दर्द तो दे रही थीं लेकिन दिखती नहीं थीं। उनींदे ही, सबसे पहले उसने खुद को एक आईने मे देखा था। आँखें, चिटके हुये कई ख्वाबों से भरी हुयी थीं और चेहरा रात हुये किसी कत्ल का गवाह सा दिखता था। उस कमरे मे कोई लाश नहीं थी… खून के निशान भी नहीं थे… उसके शरीर पर खरोचें भी नहीं थीं… बस मन में  ’सही/गलत’ को सोचता हुआ एक गिल्ट था। एक बोझ था जिसकी वजह से वो अपने आप से दबी जा रही थी… उसे एक एकांत चाहिये था… मौत सरीखा काफ़्का का एकांत…

 

बाहर बारिश अभी भी जारी है। रिया और लैम्पपोस्ट की रोशनी के बीच बारिश की कुछ बूँदें  आ जाती हैं। रिया उन्हे पकड़ने के लिये हथेली खोलती है… हथेली पर रोशनी की एक चादर सी है और उस चादर में बारिश की बूँदें इकट्ठी होने लगती हैं… वो धीरे धीरे मुट्ठी बंद कर लेती है…

वो उस बारिश मे जमकर भीगना चाहती है… वो कमरे से बाहर आकर आसमान की तरफ़ देखते हुये अपने हाथों को पंख जैसे फ़ैला लेती है… सारी बारिश को खुद में समा लेना चाहती है… वो खुद एक ’मुट्ठी’ बन जाना चाहती है…  

उस बारिश में  रिया, ’मुट्ठी’ के जैसे खुलती, बंद होती है… उस बारिश मे रिया उड़ती है… भीगती है… बहती है… रोती है… खूब रोती है…

…और उस रात मुम्बई पानी से डूब जाती है॥

इधर अँधेरे कमरे में अभी भी मोबाईल की रोशनी जल-बुझ रही होती है

……आदित्य कॉलिंग

 

Saturday, July 10, 2010

काश सोचने के पैसे मिलते!!

think_cartoonसुबह ७ बजे माताश्री ने रोज की ही तरह फ़ोन करके पूछा कि “उठ गये” और हम भी रोज की तरह ’हाँ  ’ कहके, २ मिनट नींद में  ही बातें करके सो गये। ८ बजे मोबाईल में लगा अलार्म भी बजा… फ़िर हर १० मिनट पर बजता रहा… फिर शायद मेरे रूममेट ने उसे बंद किया… खैर…

बाहर झमाझम बारिश हो रही थी और मेरे बेड ने जैसे मुझे एक चुम्बक की मानिंद पकड़ा हुआ था। उठने की हर कोशिश नाकाम थी और आँखें  बंद करके अपने सपने में ही ऑफिस निकलने की तैयारी कर रहे थे।

करीब साढ़े दस बजे इस स्वप्न संसार से बाहर आते हुए हमने बेड छोड़ा और किचेन में घुसते ही चाय चढ़ा दी और लैपटाप ऑन करके बैठ गये। खिड़की के बाहर घमासान बरसती बारिश और हाथों में अदरक की चाय… और ऎसे वक्त ऑफिस… कयामत हो…

बस आव देखा न ताव और फ़ेसबुक पर एक अपडेट मार दी कि ’हम काम क्यूं करते है – वाई डू वी वर्क?’

…… और फ़िर चुपचाप सर झुकाये ऑफिस चले गये…

अनुराग भाई ने उसी पर पूछा कि ’दूसरा आप्शन बताओ’ तो दिमाग के घोड़े दौड़ गये और बस एक फ़ितूर सोच लाये…

कुछ खास नही बस बैठे बिठाये हम सोच रहे थे कि काश सोचना भी एक योग्यता होती और हमें सोचने  के पैसे मिलते……

…… और अगर मिलते तो ये दुनिया कैसी होती?

 

शादी की बातें कैसे होती?:

- लड़का क्या करता है?
बम्बई मे किसी बड़ी कंपनी में है… …’सोचता’ है…

- लड़की बहुत पढी लिखी है… गृहकार्य के साथ साथ उसे सोचना अच्छा लगता है… सोचने का होबी कोर्स भी किया है…

- हमारी सुशील कन्या के लिये एक सुन्दर वर चाहिये… सोचने वालों को वरीयता दी जायेगी…

 

इंटरव्यू कैसे होते?

- पहले कभी ’सोचा’ है?? हमारी कंपनी में वीकेंड पर भी ’सोचते’ हैं… क्या तुम इतना ’सोच’ पाओगे?

- तो आप पहले किस कंपनी में ’सोचते’ थे?

- अच्छा… तो आप पिछले दस सालों से ’सोचते’ हैं? क्वाईट इंट्रेस्टिंग …

- अच्छा प्रोफ़ाईल है आपका… तो अभी तक आप किन किन चीज़ो पर सोच चुके है??

- कुछ सोच के दिखाओ? (दो इंटरव्यूवर सोचते हुये सामने वाले से सवाल पूछते है

 

दोस्तों में बातें कैसे होतीं?

- साला कॉलेज में सोचने को कह दो तो गधे के हाँथ पाँव फ़ूल जाते थे… आज देखो फ़लाना कंपनी में है… पता नही कैसे सोचता होगा? वहाँ भी किसी सोचने वाले की कॉपी करता होगा …

- यार मैंने उनसे ६ लाख मांगे लेकिन वो बोले कि साढ़े पांच ही देंगे … लेकिन सीखने के लिये सोचने का इतना अच्छा प्लेटफ़ार्म भी तो दे रहे हैं…

- अबे कुछ सोचना सिखा न? सोच रहा हू इस बार सोचने का सर्टिफ़िकेशन क्लीयर कर ही लूं… तू तो सोचने में एक्सपर्ट है…

- (बार में टल्ली होकर सोच को गाली देते हुये) कहा था साले से दारू पीने आ जाना… लेकिन साले को सोचने से फ़ुर्सत मिले तब ना… अबे अब जितनी जरूरत है उतना सोचो…

 

पैरेन्टस से बातें कैसी होतीं?

- दिन भर अपने दोस्तों के साथ आवारागर्दी करते रहते हो… कभी बैठकर कुछ सोचते क्यूं नहीं??

- बेटा थोड़ा बहुत तू भी सोच लिया कर… देखता नहीं तेरे पिताजी अब सोचते सोचते कितना थक जाते है…

- शर्मा जी के लड़के को देखो… तुमसे छोटा है लेकिन अभी से  सोचता है और तुम!

 

………… और ज़िंदगी यूं ही सोचते सोचते कट जाती ॥

 


पुनश्च:

शम्स जी के जुगाड़ में थोड़ा परिवर्तन करके टिप्पणियों का जवाब देने के लिये ब्लॉग से जोड़ लिया है… कुछ समय पहले ज्ञानजी ने इसको इम्प्लीमेन्ट किया था। आप सामान्य तरह से टिप्पणी कर सकते हैं!!


Tuesday, July 6, 2010

दो मिनट…

clockट्रेन के आने में अभी भी समय है…

आज ’नेह’ को २ बजे वाली ट्रेन से वापस जाना है। बान्द्रा से दिल्ली जाने वाली वो ट्रेन, सिर्फ़ दो मिनट के लिये बोरीवली रुकती है। संडे होने के कारण आज प्लेटफ़ार्म पर रोज़ के मुकाबले भीड़ कुछ कम है। यहाँ छोटे शहरो की तरह लोग कभी कभार ट्रेन्स पर नहीं चढ़ते। बॉम्बे में ज़िंदगी हर पांच  मिनट पर उन पटरियों पर दौड़ती है। हर पांच मिनट मे न जाने कितने ही लोग उन ट्रेन्स से उतर जाते है और कितने ही नये लोग उसमे चढ़ जाते है। न तो रुका हुआ प्लेटफ़ार्म इसकी परवाह करता है और न ही भागती हुयी लोकल्स। दौड़ती हुयी ज़िंदगी भी कहाँ किसकी परवाह करती है…

बोरीवली के प्लेटफ़ार्म नम्बर चार की भागती दौड़ती उस भीड़ में वही एक रुका हुआ सा लगता है। कुछ सोंचते हुये इधर उधर किसी भी रैंडम डायरेक्शन में टहलता हुआ दिखता है… कभी कभार मोबाईल पर समय भी देख लेता है। उस दो मिनट की मुलाकात के लिये वो आधे घंटे पहले ही प्लेटफ़ार्म पर पहुँच गया है। कुछ महीने पहले आये एक कॉल से ही तो  ज़िंदगी कुछ थमी थी  और दो लोगों  ने इन दो मिनटो को सहेजने की रूपरेखा तैयार कर ली थी…

 

- पहचाना?

- ह्म्म… हाँ, शायद।

- नहीं पहचाना, आई नो…

- नेह?

- तुम्हारी ज़िंदगी मे ऎसी रांग टाईम एन्ट्री और कौन मार सकता है?

- तुम बिल्कुल नही बदली हो।

- लेकिन ज़िंदगी काफ़ी बदल गयी है… बॉम्बे आ रही हूँ लेकिन शायद मिल न पाऊ…

- ह्म्म…

- वो तुम्हारी क्रश कैसी हैं? सॉरी, मैं उनका नाम भूल गयी वो राईटर जिनके बारे में तुम बताया करते थे?

- ’एहसास’… उम्र बढ़ने के साथ साथ उनकी खूबसूरती भी बढती जा रही है…। अच्छी हैं… सुन्दर हैं…

- मुझे मेरे सामने तुम्हारे मुंह से किसी और लड़की की तारीफ़ अच्छी नहीं लगती… तुम भूल गये शायद? ऎनीवेज़… जोकिंग बाई द वे…

- ह्म्म… कोई बात नहीं…

- मुझसे मिलने का मन नहीं है न? ऎनीवेज़… जाते वक्त ट्रेन से जा रही हूँ… ट्रेन बोरीवली रुकती है… तुम आ जाओगे तो बाद का सफ़र आसान हो जायेगा…

- मै जरूर कोशिश करूँगा…

- पहले कोशिश करते तो शायद ये सफ़र भी आसान हो जाता… ऎनीवेज़… और सुनाओ?

- बस… सब बढ़िया है… तुम कैसी हो? बॉम्बे कैसे आना हुआ?

- अच्छी हूँ… खुश हूँ… अभी कुछ महीने पहले ही इंडिया आना हुआ… इन्होने दिल्ली में अपनी एक कम्पनी स्टार्ट की है। कुछ समय से उसी सिलसिले मे ये बॉम्बे में ही हैं। तुम्हें तो याद नहीं होगा? २ जुलाई को मेरा जन्मदिन है… इन्होने कहा कि बॉम्बे ही आ जाओ… फ़िर से हनीमून मनाते है। समटाईम्स ही इज़ रोमान्टिक, यू नो।

- तुम्हारा जन्मदिन मुझे याद है…

- अच्छा!! इन पांच सालों में कभी विश तो नहीं किया? ऎनीवेज़… इन्होने तो कहा कि ट्रेन से क्यूं जा रही हो पर मैंने सोंचा कि बोरीवली स्टेशन को भी देख लूंगी… शायद तुम्हारे साथ… जैसे तुम सब कुछ अपनी आँखों से दिखाते थे… वो बोरीवली से दिल्ली तक की जर्नी याद है? पूरे सफ़र तुम मुझे कुछ न कुछ दिखाते रहे थे…

- अब मुझे कुछ नही दिखता…

-  क्यूं? चश्मे का नम्बर बढ़ गया है क्या? वैसे चश्मे में तुम एकदम राईटर लगते थे… लेकिन तुम न कभी भी एक्स्प्रेसिव नहीं थे… न जाने कैसे इतना कुछ लिख लेते थे… कुछ कहते हुये तो मैंने कभी नहीं  सुना… वो तो मैं थी जिसने तुम्हें इतना झेल लिया… और कोई होती तब पता चलता तुम्हें…

 

अनाउन्समेंट:  बान्द्रा स्टेशन से दिल्ली जाने वाली एक्सप्रेस ट्रेन ५ मिनट की देरी से…………

वो मोबाईल में  समय देखता है। अभी १० मिनट और हैं…

 

- ह्म्म… कबकी ट्रेन है?

- ५ जुलाई को २ बजे  बोरीवली मे ऎराईवल टाईम है… कितने अच्छे दिन थे न? तुम्हारी हर कहानी में कहीं न कहीं मैं होती थी… नहीं तो मुझसे की गयी वो ढ़ेर सारी बातें जो तुमने कभी मुझसे सामने से नहीं कही… तुम्हारी कहानियों में मैं जीती थी… याद है एक बार जब तुमने मेरे कैरेक्टर को एक कोई भद्दा सा नाम दिया था

- ह्म्म… और तुमने कहा था कि अबसे कैरेकटर्स के नाम तुम डिसाईड किया करोगी… खासकर जो तुमसे इन्सपायर्ड हो…

- हाँ और तुम्हें लगा था कि एक्नोलेजमेंट में इसका नाम भी लिखना पड़ेगा (खिलखिलाते हुये)

- ट्रेन बस दो मिनट रुकेगी?

- हाँ!! चाहो तो साथ चल सकते हो दिल्ली तक… यादों की पुरानी पेंटिंग्स पर साथ साथ नये ब्रश मारेंगे… ऎनीवेज मैं तो अभी पुरानी नहीं हुयी हूँ, यू नो…

- मैं तो नया नहीं रहा… ऎनीवेज तुम्हारे ’ऎनीवेज’ अभी भी उतने ही मीनिंगफुल हैं… ऎसे एकदम से दिल्ली तो नहीं जा पाऊंगा… प्लेटफ़ार्म पर आने की कोशिश करता हूँ…

- ओह ’एकदम से’? याद है जब तुम्हारे कहने पर ’एकदम से’ मैंने अपनी ट्रेन छोड़ दी थी… अगले एक हफ़्ते तक मुझे फ़िर कोई रिजर्वेशन नहीं मिला था। वापस घूमकर हॉस्टल भी नहीं जा सकती थी… लेकिन कितनी अच्छी शाम थी न? हम तुम हाथों में हाथ डाले जे जे फ़्लाईओवर पर घूम रहे थे… घनघोर ट्रेफ़िक में… जहाँ फ़ोर व्हीलर रेंग रहे थे… हम भाग रहे थे… बॉम्बे के सबसे बडे फ़्लाईओवर पर… पैदल… और उसके बाद ऎशियाटिक लाईब्रेरी की सीढ़ियों पर घंटो बैठे रहना… सामने वाले पार्क में हो रहे किसी नाटक को देखते रहना… उन भीनी भीनी पीली लाईट्स मे

- अब शायद सफ़ेद लाईट्स लग गयी है वहाँ… कोई बता रहा था काफ़ी समय से उधर नहीं गया…

- अच्छा!… दूधिया रोशनी भी अच्छी लगती होगी… ऎनीवेज़ और क्या क्या बदल गया है?

- बस और आटो के रेट्स बढ गये हैं…

- तुम भी तो बढ गये हो! तुम्हारी नयी कहानी पढी थी। उसके पुरुष पात्र का किसी उम्रदराज महिला के साथ एक फ़िजिकल सीन भी था… किसके बारे में सोंचकर लिखा?……  सिर्फ़ सोंचा ही न?

 

ट्रेन की आवाज धीरे धीरे तेज होती जा रही थी… वो दूर पटरियों  की तरफ़ देखने लगा। दूर से एक ट्रेन आ रही थी… पुरानी यादों के साथ… धीरे धीरे… धीरे धीरे…