Thursday, May 13, 2010

भर्त्सना हो या जय जयकार, कोई मुझतक नहीं पहुचेगी…

छोड़ जाऊँगा rdm

कुछ कविता, कुछ कहानियाँ, कुछ विचार

जिनमें होंगे

कुछ प्यार के फूल

कुछ तुम्हारे उसके दर्द की कथाएं

कुछ समय – चिंताएं

मेरे जाने के बाद ये मेरे नहीं होंगे

मै कहाँ जाऊँगा, किधर जाऊँगा

लौटकर आऊँगा कि नहीं

कुछ पता नहीं

लौटकर आया भी तो

न मै इन्हे पहचानूँगा, न ये मुझे

तुम नम्र होकर इनके पास जाओगे

इनसे बोलोगे, बतियाओगे

तो तुम्हे लगेगा, ये सब तुम्हारे ही हैं

तुम्ही मे धीरे धीरे उतर रहे हैं

और तुम्हारे अनजाने ही तुम्हे

भीतर से भर रहे हैं।

मेरा क्या….

भर्त्सना हो या जय जयकार

कोई मुझतक नहीं पहुचेगी॥

                - रामदरश मिश्र

 

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न जाने कब इस कविता ने मेरी एक पुरानी डायरी मे जगह बना ली थी… अभी अभी इसे कविता कोश मे भी अपडेट किया…

लेकिन ये क्यूँ लिखा?? बस एं वें ही...

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30 comments:

PD said...

हम तो पूछवे करेंगे की किसपर लिखे हो बर्खुरदार? :)

वैसे कविता बढ़िया है..

nilesh mathur said...

सिर्फ एक शब्द, बेहतरीन !

कडुवासच said...

...प्रसंशनीय !!!

Amrendra Nath Tripathi said...

रामदरश जी का चेहरा देखा , खिंचा चला आया , सोचा
कुछ '' ऐं वे ही '' पढ़ लूँ ! रामदरश जी से उत्तमनगर , नई
दिल्ली में कई बार मिलना हुआ है | यादें भी खींचती हैं न !
आया तो ' ऐं वे ही ' पर पिछली तीन पोस्टों पर सरसरी दौड़ा
बैठा | खुशी हुई की नई युवा पीढ़ी अच्छा लिख रही है |
'ओल्ड एज' , शैशव-काल का आरोप कर रही है और इसी बीच
युवा-भगीरथ ब्लॉग-गंगा को भरसक अवतरिया रहें हैं , यह भी
कम प्रीतिकर नहीं है |
काफी भावुक की-बोर्ड पर टाइप करते हो , उंगलियाँ दुखती नहीं !/?
आते रहेंगे पढने बस ''ऐं वे ही'' , लिखते भी रहना बस ''ऐं वे ही '' !

दिलीप said...

badi hi achchi aur bhavprn kavita...

Sanjeet Tripathi said...

कविता नि:संदेह बहुत से अर्थ समेटे हुए है।

इनकी जल टूटता हुआ पढ़ा था, अद्भुत लेकिन विश्वस्नीय चित्रण था।

Udan Tashtari said...

मेरा क्या….

भर्त्सना हो या जय जयकार

कोई मुझतक नहीं पहुचेगी॥

- रामदरश मिश्र


नोट करके रख ली... :)

दीपक 'मशाल' said...

एंवई ही इतनी कमाल की कविता पढ़ा जाते हैं साहब.. सीरिअसली पढ़ाएंगे तो क्या गज़ब ढाएँगे???

प्रवीण पाण्डेय said...

कविता को ही निष्काम बना दिया । अलग हो लिये समर्पित कर सुधीजनों को । बिल्कुल नवीन भाव ।

कुश said...

एं वें ही कुछ बाते देर तक साथ रहती है..

richa said...

"भर्त्सना हो या जय जयकार, कोई मुझ तक नहीं पहुँचेगी"... विचारपूर्ण शब्द...

इतनी अच्छी कविता को "ऐं वे ही" पढवाने के लिये शुक्रिया :)

aradhana said...

सोना जैसी कविता... इसमें कोई शक नहीं. पर सोने पर सुहागा अमरेन्द्र की टिप्पणी. शुभकामनाएँ !

rashmi ravija said...

क्या बात है...बड़े मौके पर बड़ी सुन्दर कविता पढवा गए...:)

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...
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Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

@अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी:
रामदरश जी से मिले हो, किस्मत वाले हो भाई.. ’मानसिक हलचल’ पर तुमसे काफ़ी बाते होती रही है .. धन्यवाद.. यहाँ आने के लिये और हमारी हौसला अफ़ज़ाई के लिये भी.. :)


@Sanjeet Tripathi:
’जल टूटता हुआ’ नहीं पढी है.. अभी देखता हूँ|

@Sameer Ji:
कनाडा पहुंचाना है क्या.. उडनतश्तरी भिजवा दीजिये, हम भिजवाये देते है.. चूज कर लीजिये कि आपको क्या चाहिये? ;)

@Aradhna:
कहाँ गायब हो.. काफी टाइम से कुछ लिखा नहीं.. सब बढ़िया न?

@Rashmi ji:
कोई मौका है क्या?? ;)

सब लोगो को धन्यवाद.. वैसे अब ये कविता कविताकोश से भी पढी जा सकती है.. मैने लिन्क भी दे दिया है..

अपूर्व said...

इस सामयिक कविता के यहाँ प्रकाशन मे अंतर्निहित उद्देश्य कुछ-कुछ समझ तो आ रहा है..खैर एक ईमानदार और संवेदनशील मन ऐसा ही ईमानदार और संवेदनशील संदेश तो ले कर आयेगा..मिश्र जी की यह कविता पढ़वाने के लिये आभार..
और यह न समझना कि आप तक कुछ नही पहुँचेगा..हम पहुँचवायेगे..ताजा आलू के पराठों से ले कर विश्व-शांति दिवस के शुभकामना संदेश तक..नेटवर्क आजकल कहीं छिपने भर की जगह नही देता..वोडाफ़ोन वाले कुत्ते की तरह..और वो वाला नेटवर्क न भी मिले तो अपना फ़िल्मी फ़ार्मूला जिंदाबाद है..आखिरी से एक पहले वाली रील मे घर मे आखिरी साँसें गिनती (अब जाते वक्त राम-राम करना छोड़ सांसे क्यों काउंट करती है पब्लिक भला) माँ के लिये पडोस वाले (निर्जन मगर एक दम साफ़-सुथरे) मंदिर मे जब घने तूफ़ान-बारिश-बिजली (बोले तो पूरा ऑडियो-विजुअल इफ़ेक्ट) के बीच मंदिर के घंटे से झूल-झूल कर पचास उल्टी-सीधी सुनाने पर जब भगवान जी तक का डाइरेक्ट-कनेक्शन मिल जाता है..तो फिर आप क्या चीज हो..!!(बस जरा मूड लाइट करने के लिये) ;-)

अपूर्व said...
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Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

@अपूर्व:
स्वीट :)

प्रिया said...

gazab hain ye bhi.....sach hi to hai
"भर्त्सना हो या जय जयकार, कोई मुझतक नहीं पहुचेगी…" jaane ke baat kahan pahuchti hain . Thanks for sharing

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

@Priya

Thanks..

Himanshu Mohan said...

@Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय)
पंकज! प्रयास स्तुत्य है और आपका श्रम सफल रहा!
यह मुश्किल भी नहीं है।
बधाई,
पोस्ट और इस सुविधा दोनों की खोज के लिए।
सच बड़ी खुशी हुई, तकरीबन पौने तीन इंच (नापी है)
:)

प्रवीण पाण्डेय said...

@हिमान्शु मोहन
काम करता सा लगता है ।

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

@प्रवीण पाण्डेय
test comment..

प्रवीण पाण्डेय said...

@48533369707796205.0
Problem in copying name. Numbers seems to work alright.

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

@1384120730683764377.0

yes numbers are working fine.. let me hide this comment box..

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

@Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय)

seems Discus is better than this script..

प्रवीण पाण्डेय said...

@2317193131629054994.0
Can't @Number comes preprinted in the box so that person can start tying immediately.

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...
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Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...
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निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

बहुत अच्छी कविता है. आज फिर पढने का मौका दिया तुमने.
यह थीम तो हिन्दीज़ेन जैसी ही है. सिंपल भी है और कूल भी.