Friday, January 17, 2014

तुम्हारे लिये!!

मैं लिखना चाहता हूँ...
एक बेहद सरल कविता
इतनी सरल
जितना, सरल लिखना
स-र-ल

इतनी सरल कि
मैं अपनी जीवन की कठिनाइयों
के साथ भी, जब उस कविता की सानिध्य में जाऊं
‘सरल’ हो जाऊं...
और उसके कहने पर, मेरी कठिनाइयां बन जायें
एक दरियाई समंदरी घोड़ा...
न जानते हुए, कि एक ही नाम में
दरियाई और समंदरी का प्रयोग शायद गलत हो
और ‘कठिन’ शब्द स्वयं वर्जित हो शायद एक सरल कविता में

इतनी सरल जैसे
हर शाम, उसके साथ की चाय
‘खुलते’ हुए पानी में चाय की पत्तियों का धीरे धीरे ‘खुलना’|
हम दोनों का साथ-साथ,
उन्हें रंग बदलते देखना.
और मेरा भी उसके साथ
खौलने और घुलने जैसे शब्दों को भूल जाना...

इतनी सरल जैसे
उसकी कच्ची बातें और अधपके सपने
जैसे उसका सोना,
उसकी मुट्ठियों का खुलना-बंद होना
जैसे उसके साथ मेरा हँसना, रोना..
जैसे उसका कभी होना, मेरी ज़िंदगी में

जैसे उसका अभी होना मेरी इस कविता में...   (तुम्हारे लिये)