छुट्टियों कि उम्र कितनी होती है? मेरी भी खत्म होनी थीं। बस अब जैसे इन तस्वीरों में उनके जीवाश्म बचे हैं ये बताने के लिये ये हुआ था… मेरे ही साथ… कभी। कि ज़िंदगी कुछ पल थमी थी, बारिशों की बूंदो के साथ साथ थोडे सुख बहकर आ गये थे। कि भुने भुट्टों के साथ घर पर बने नमक का स्वाद था। शाम की चाय थी, दहकती बहकती गर्मी थी और रात में बिजली चली जाने पर छत पर कभी कभार बहने वाली ठंडी हवा… एक सारा आकाश (राजेंद्र यादव वाला नहीं) था और उसके तले बस एक चारपाई… एक नया बना कमरा था (जिसे पापा ऑफ़िस के लिये और मैं लायब्रेरी के लिये इस्तेमाल करता हूँ), टेबल फ़ैन था और निर्मल वर्मा द्वारा अनुवादित कुछ चेक साहित्य। कि रात बहुत जल्दी होती थी और दिन भी बहुत जल्दी निकलता था… कि नींद थी और बहुत थी।
कि नैनीताल की एक शाम थी.. कुछ बौराये-पगलाये दोस्त थे… उनके साथ बिताया एक अतीत था जो काँच के गिलासों से छलक आता था। कि कुछ ताश के पत्ते थे… एक दूसरे की बहुत सारी टॉग-खिंचाई थी, कुछ इललॉजिकल बहसें थी और कुछ बेहूदा, बेहद बेहूदा बातें भी।
कभी-कभी, जब ज़िंदगी ऎसी लगती हो जैसे मुँह में एक चम्मच हो और उसपर काँच की एक गोली। सामने एक पूरा सफ़र हो और चलने के साथ साथ काँच की इस गोली को संभालने का एक उत्तरदायित्व। ऎसे किसी छुट्टियों भरे मोड़ पर दोस्त मिलते हैं और जाने क्या क्या गिरता-टूटता है, जाने कहाँ कहाँ का फ़ंसा कचरा बह जाता है। ऎसे वक्त साहिर के ये बोल बरबस याद आ ही जाते हैं कि जो भी हैं बस यही कुछ पल हैं (शब्दों से थोडी छेडछाड के लिये साहिर से माफ़ी आखिर छुट्टियां खत्म हुये अभी दिन ही कितने हुये हैं!)
मोबाईल जो मेरी तरह पुराना हो चला है, उसी से ली गयी कुछ तस्वीरें…
और कुछ प्रबल के कैमरे से क्लिक की हुयी…