1- मैं सोचता हूँ कि पहाड़ सालों तक एक जगह कैसे रह लेते हैं… बिना कहीं गये सिर्फ़ एक जगह… और इसके विपरीत नदियाँ जाने कहाँ से कहाँ तक आती जाती रहती हैं… कितने तो रूप बदलती रहती हैं… बहती रहती हैं…। शायद तब मैं सो रहा था इसलिये मुझे सही से याद भी नहीं कि जाने कब किसी ने मेरे भी पैरों में नदी बाँध दी थी …और तबसे मुझे पहाड़ अच्छे लगते हैं… भीतर किसी दावानल को समेटे हुए जो हर पल सुलगते रहते हैं… भीतर जलते रहते हैं… अकेले… अधूरे… उदास…।
2- उस दिन जब वो पारदर्शी काँच के उस पार थी, मैं उसे देख सकता था… उसे महसूस कर सकता था… उसके होठों को पढ सकता था… लेकिन हाथ बढाकर भी उसे छू नहीं सकता था…
आज उसे किचेन में देखते हुये मुझे उसके पारदर्शी शरीर के पार एक दुनिया दिखती है… उसके सपनों की एक दुनिया… मैं उस दुनिया को महसूस कर सकता हूँ… । आज मैं उसे भी स्पर्श कर सकता हूँ लेकिन उसके पार वो दुनिया फ़िर अनछुयी रह जाती है…।
3- मेरी खिडकी के बाहर के रंग सामान्यत: एक जैसे ही रहते हैं… पर रोज उसकी आँखों में एक अलग मौसम होता है। उसकी आँखें रंग बदलती हैं और काफ़ी हद तक मेरे घर के भीतर के मौसमों को भी…। उसे गौर से देखता हूँ… वो दिनभर मेरे इस घर में जैसे एक खेल खेलती रहती है। वो अपने मौन से बात करते हुये कहती है कि ‘ही लव्स मी‘ और फ़िर मेरे भी मौन रह जाने पर जैसे एक सोच में डूब जाती है कि ‘ही लव्स मी नॉट‘…
मैं उसके इन रंगो की तितलियाँ बनाना चाहता हूँ जो इस बंद ब्लैक एन वाईट कमरे में रंगो की इकलौती उम्मीद सी उडती रहें…।
4- निर्मल को पढते हुये लगता है जैसे किसी ने काँच के कुछ टुकडे बिखेर दिये हों… उन टुकडों को पढो तो चुभते हैं और देखने पर सबको उनमें अपना अक्स ही दिखता है… उन्हें पढकर इस बात पर आश्चर्य होता है कि कम्बख्त अप्रैल में पैदा होने वाला एक और इंसान कितना अधूरा था…। निर्मल की कहानियां जितनी अधूरी और अकेली हैं उतनी ही उनकी कहानियों के पात्र और उतने ही उनके बीच बुने गये रिश्ते। कंप्लीटली इनकंप्लीट…
मेरे कुछ नोट्स ‘निर्मल‘ के लिये…
तस्वीर मानव के ब्लॉग से