Sunday, November 21, 2010
Sunday, November 14, 2010
कॉफ़ी हाउस की घडी…
वो हर रोज की तरह एक उदास दोपहर थी… सडकों पर इक्के दुक्के लोग चलते दिख जाते थे तो जैसे लगता था कि सब कुछ जीवित है नहीं तो सभी कुछ बडी उदासियत के साथ खामोश था जैसे कोई गमी थी… जैसे कोई उनका बहुत करीबी गुजर गया था और वे उसका गम मना रहे थे।
उस सडक से लगी कुछ दुकानें थी जो शाम को स्कूल, कॉलेज के जोडों के साथ हंसती, खिलखिलातीं थीं। लेकिन उस दोपहर वो सब भी उदास थीं। रेस्तरां शांत थे… आईसक्रीम पार्लर सुस्ता रहा था… कॉफी हाउस खामोश था… कभी कभी कोई धडधडाता हुआ ऑटो उस सडक से निकल जाता तो जैसे एक पल के लिये ये सब उठकर बैठ जाते… उस ऑटो को दूरतलक जाते देखते…। धीरे-धीरे वो आँखों से ओझल हो जाता और दूर कहीं से उसकी आवाज ’और दूर’ जाती हुयी प्रतीत होती… वो आवाज फिर कहीं चली जाती… खो जाती… कहीं दूर अंतरिक्ष में जाकर मिल जाती।
वो सडक फिर सूनी हो जाती… और दुकानें फ़िर उदास।
उसी उदास दोपहर में उस उदास कॉफी हाउस में अविनाश रोज की तरह उसके आने का इंतजार कर रहा था… । उसकी उम्र तकरीबन २५ से ३० के बीच थी, रंग गेहुँआ था और बाल इतने छोटे कि उन्हें संवारने की भी जरूरत नहीं थी। वो बार बार अपने मोबाईल को लॉक – अनलॉक करने में व्यस्त था… जैसे ऎसा करने से वो समय को आगे बढा सकता था और समय कम्बख्त जैसे उसके इस खेल में खुद ही उलझा हुआ था… एक पशोपेश में कि कितना आगे बढे और कितना पीछे…
उन दोनो की उम्र में तकरीबन १०-१५ साल का अंतर था। लेकिन वो उसे उसका हमउम्र ही लगता था। वो उससे हर वो बात नि:संकोच कह जाती थी जो उसी की उम्र के कई लडकों को ’तुम नहीं समझोगे’ कहकर टाल देती। दिया को ये बात बडी अजीब लगती कि अविनाश उम्र में उससे छोटा होकर भी उससे बडा क्यूं लगता था। वो बहुत कम बोलता था पर उन कम शब्दों को कहने के लिये भी जब वो अपने होठों को गोल करता तो वो अपने आप को ढेर सारे गोल गोल छ्ल्लों के मध्य पाती जो उसके चारों ओर इस तरीके से घूमते रहते जैसे वो कोई जिमनास्ट हो और इन छल्लों के साथ कोई करतब दिखा रही हो…। धीरे धीरे वो उसके कहे शब्दों से मिलने जुलने लगती… बात करने लगती… उन्हें सहलाने लगती…। धीरे धीरे वो छल्ले उसमें समाते जाते। … और फिर वो एकदम से चुप हो जाता, सोचने लगता। उसके चुप होने से जैसे वो फिर छोटा दिखने लगता और वो उससे बडी। वो फिर देरतक उससे बोलती रहती… बातों को किसी गहरी खान से खोदकर निकाल लाती और उसपर उडेलती रहती। तबतक जबतक उसके होंठ फिर से गोल नहीं हो जाते… और ये सिलसिला चलता रहता।
अविनाश को हमेशा आश्चर्य होता कि दिया उसे एक बच्ची जैसी क्यूं लगती है। उसकी वो ढेर सारी बिन सिर पैर की बातें जिनमें कभी कोई तत्व नहीं होता, किस खदान से आती हैं? वो इतनी बातें लाती कहाँ से है? और ये सोंचते हुये कब उसके होंठ गोल हो जाते वो जान नहीं पाता… वो एकदम से उससे बडा हो जाता और तबतक बडा रहता जबतक उसे इस बात का अहसास नहीं होता कि वो उससे बडी है …और तब वो झेंपकर चुप हो जाता…
उम्र के इस खेल को खेलते खेलते, एक-दूसरे से छोटे और बडे होते हुये कब वो सच में हमउम्र हो जाते, उन्हें भी पता नहीं चलता…
उस कॉफ़ी हाऊस की घडी अभी आगे चल रही थी… उसके आने का समय पीछे चलता हुआ नजदीक आ रहा था और थोडी देर में दोनो समय उसी जगह मिलने वाले थे। मोबाइल के लॉक से खेलते हुये उसके जेहन में कुछ रैंडम तस्वीरें बन रहीं थीं:- दिया के बच्चे कॉलेज जा चुके थे… वो घर की सफ़ाई करवा रही थी… खाना–पीना हो चुका था… वो उस कॉफी हाउस के लिये निकलने की तैयारी कर रही थी…
हर दोपहर अविनाश के साथ साथ वो उदास कॉफी हाउस, वो सडक, वो सन्नाटे, वो उदासियत; सब उसका इंतजार करते। सबकी नज़र सिर्फ़ कॉफी हाउस की उस घडी की तरफ़ होती जिसकी हर एक टिक-टिक के साथ उसके ऑटो के आने की आवाज आ रही होती।
टिक-टिक टिक-टिक टिक-टिक टिक-टिक …………………
Tuesday, November 9, 2010
’ट्रस्ट’ इज ब्लाईंड…
कभी कभी मुझे लगता है कि लडकियों का यूं उम्र भर एक पहेली रहना भी ठीक है… उनकी पहेलियों को समझते बूझते ये ज़िंदगी कब गुज़र जाती है शायद पता नहीं चलता वरना ज़िंदगी को यूं कुछ सुलझे हुये सवालों और बहुत ढेर सारी समझदारी के साथ, धीरे धीरे गुज़रते देखना भी बहुत तकलीफ़ देता है… जैसे आपको अपने मरने का दिन और वक्त पता है और आप हर लम्हे एक एक तत्व को अपने आपसे अलग जाते हुये देखते हैं… जैसे आप किसी पटाखे को जलते हुये देखते हैं… धीरे धीरे पलीते में लगी आग बारूद तक पहुँचती है और उतनी ही धीरे धीरे आपकी आँखें आपके पूरे शरीर के साथ साथ उसके फ़टने का इंतजार करती हैं… फ़टने का इंतजार?… खुद के फटने का इंतज़ार! अभी… बस अभी।
……लेकिन कभी कभी ये सब जानते हुये भी मैं इसे समझना चाहता हूँ। खासकर उस भाग को जहाँ ज़िंदगी ’होकर भी नहीं रहती’। जहाँ एक अधेड उम्र का गंवई इंसान कैंसर की लास्ट स्टेज में होते हुये रोज जीता रहता है और उसके और उसकी पत्नी के सिवा ये सबको पता होता है कि पटाखा फ़टने वाला है… सब पलीते को जलते देखते रहते हैं… धीरे धीरे…
जहाँ उसकी गंवई पत्नी आपकी समझदारी पर विश्वास करते हुये किसी डॉक्टर की गंदी हैंडराईटिंग में लिखा दवाईयों का एक पर्चा आपकी तरफ़ बढाती है और पूछती हैं कि इनसे ये ठीक हो जायेंगे न? और तब आप सच और झूठ की परिभाषायों को रिवाईज करना चाहते हैं… ’ठीक’ होने को समझना चाहते हैं… तब आप ज़िंदगी की ऎसी किस्सागोई को समझना चाहते हैं… या समझते हुये भी नहीं समझना चाहते हैं
उसी मरे हुये पर्चे (जिसकी अब कोई जरूरत नहीं) को देखते हुये मुझे याद आता है कि बचपन में मुझे मरना बेहद पसंद था… मुझे मरने में एक रोमांच दिखता था। अपने मुहल्ले के बच्चों के साथ खेले जाने वाले छोटे छोटे नाटकों में मैं मर जाता था और मरकर सबको मेरे लिये रोते देखता था… सबको मुझे ढूंढते देखता था। मुझे लगता था जैसे मेरे ’होने’ से जो नहीं हो सकता था वो मेरे ’न होने’ से हो रहा था और ये मेरे रोमांच को बढाता था।
मैंने ये भी देखा कि किसी ऊँचाई से नीचे देखते हुये मैं कभी ऊँचाई से नहीं डरता था जैसे लोग डरते हैं… मैं ’खुद’ से डरता था क्योंकि ऊँचाई से गिरने के सिर्फ़ एहसास में जो रोमांच था वो मुझे अपनी तरफ़ खींचता था और मैं डरकर पैर पीछे कर लेता था। मेरे आस पास के लोग इसे मेरा ऊँचाई से डरना ही समझते थे जैसे वो मेरे ट्रेन के डर को समझते थे क्योंकि प्लेटफ़ार्म पर जब ट्रेन आती थी, मैं सबसे पीछे खडा पाया जाता था। लोग कभी जान ही नहीं पाते थे कि मैं खुद से डर रहा हूँ… दौडती हुयी ट्रेन मुझे अपनी तरफ़ खींच रही है… और मुझे याद है कुछ सालों बाद जब मेरी समझ भी कुछ साल की हो गयी, तब मुझे यह सोचकर बडा आश्चर्य होता था कि मौत और ज़िंदगी में कौन मौत है और कौन ज़िंदगी… ये जो हम रोज जीते हैं वो ज़िंदगी है या ब्याज पर ली हुयी इन साँसों को यहाँ सौंपने के बाद जब हम कहीं दूर क्षितिज में चले जाते हैं वो ज़िंदगी है…
उस पर्चे को हाथ में लिये मैं उन दो क्षितिजों के बीच झूल रहा था… और वो दोनो क्षितिज धीरे धीरे एक दूसरे के पास आ रहे थे… और मैं उन दोनो के बीच फ़ंसता जा रहा था… दवाईयों के नामों से बनी एक अंधी सुरंग में…
’प्यार’ अंधा हो न हो, ’विश्वास’ अक्सर अंधा होता है… ट्रस्ट इज ब्लाईंड…