Friday, April 23, 2010

अहसान फरामोश सा एक दिन..

234705442_2b7a231b6d दिन कभी कभी कितनी बेतरतीब तरीके से शुरू होता है जैसे उसे भी मेरे साथ ही ऑफिस जाना है... मैं तो लेटलतीफ हूँ लेकिन उस कमीने को मुझसे भी जल्दी रहती है...
 
कहने को तो वो हमेशा मुझसे पहले ही उठता है लेकिन हमेशा ही उस एक वाश बेसिन के लिए हम दोनों फाइट करते हैं... फिर एक ही मिरर में डिफ़रेंट डिफ़रेंट एक्सप्रेशंस लाते हुए ब्रश करते हैं... मैं अपने बढ़ते हुए बालों को देखकर खुश होता हूँ… पोनी टेल रखने की ख्वाहिश आलमोस्ट पूरी होती दिखती है.. और दिन, उसे इससे कोई मतलब नहीं.. वो तो हर पल बस गुज़रता जाता है...

घर से बाहर निकलता हूँ... मोबाइल पर टाइम देखता हूँ... रोज़ की तरह 'लेट' हूँ... सब कुछ इस कमीने दिन की वजह से... क्या बिगड़ जाता अगर वो मेरे उठने के बाद उठता... थोडा सा मुझसे पीछे चलता तो क्या वो छोटा हो जाता... भरपाई करने के लिए ऑटो में बैठता हूँ.. सदियों से बोरीवली से गोरेगांव की बस नहीं पकड़ी है... एक आत्म चिंतन जरूरी सा लगता है.. रोज़ रोज़ एक तरफ के ये 60-70 रुपये बहुत भारी हैं...

बाइक खरीद लेता हूँ... पर अच्छे से चलानी नहीं आती.. कार... नहीं , पहले से काफी चीज़ें प्रायरटाइज़ हैं...वो ज्यादा जरूरी हैं ... एक अच्छी साइकिल ले लेता हूँ... पर ये गर्मी... ऑफिस जाकर फिर से नहाना पड़ेगा ...

"साहेब ब्रिज के ऊपर से या नीचे से..."
हब माल आ गया है...
"नीचे से.. राईट साइड में रोक दीजिये..."
रिक्शा से उतरता हूँ... सोंचता हूँ कि कल घर से और जल्दी निकलूंगा... सारे घोड़ागाड़ी के ख्याल फुस्स हो चुके हैं...

ऑफिस आकर बैठता हूँ... सिस्टम अनलाक करता हूँ और अपने मूड को बूट मारता हूँ... मेरी मूड मशीन न जाने किस जमाने का प्रोसेसर यूज करती है… ये बूट होने में बड़ा टाइम लेती है और जब तक ये बूट नहीं होती मेरा किसी से बात करने का मन नहीं करता...

cubicle में एक ख़ामोशी है... शायद सब मेल चेक कर रहे हैं...

और मैं ये टाइप कर रहा हूँ... मूड अभी भी बूट हो रहा है...



टाइटिल डाक्टर अनुराग की एक नज्म से बिना पूछे उठाया हुआ :)

Monday, April 19, 2010

सबसे बडा टिकट..

कहते है एक तस्वीर कई हज़ार शब्दो के बराबर होती है… :)

 

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बहुत खुश हू और बहुत एक्साईटेड भी… दिमाग मे तरह तरह के विचार भी आ रहे है.. जैसे बैनर पर क्या लिखू.. क्या पहनकर जाऊ.. इत्यादि… इत्यादि… :)

 

वैसे काफ़ी तमन्नाये ऐसी भी है जिनका पूरा होना बहुत मुश्किल दिखता है जैसे:

- ओल्ड ट्रैफ़र्ड स्टेडियम मे बैठकर रोनाल्डो को मानचेस्टर यूनाईटेड के लिये खेलते हुये देखना.. (आजकल ये रीयाल मैड्रिड मे है..)

- किसी टेनिस स्टेडियम से फ़ेडरर और नडाल को किसी ग्रैंडस्लैम के लिये जूझते हुये देखना…(उन दोनो की फ़ार्म और अपनी जेब, दोनो को देखकर ऐसा होना बडा मुश्किल लगता है…)

 

 

 

(*If I am violating any kind of law by putting this image over here. Kindly let me know. I will surely do the needful.)

Sunday, April 18, 2010

तुरई पुराण…

४ दिन पहले तुरई/तरोई खाने का बहुत मन कर रहा था… बनाये भी, खाये भी और साथ मे बज़ पर बजबजाये भी… ससुर (अजदक बाबा का फ़ेव शब्द) अब तक कोई न कोई उसपर टुनटुनाये जा रहा है…

 

आप भी इस तुरई पुराण का लुत्फ़ उठाईये, टुनटुनाईये/बज़बज़ाईये और देखिये की छोटी छोटी बाते भी ज़िन्दगी मे कितना तुरई - स्वाद लाती है… :)

 

हम तो चले फ़िर से तुरई बनाने :)

 

 

अभी तुरई की सब्जी बनाने जा रहा हू... यहा के रेस्टरा मे न जाने तुरई क्यू नही मिलती है :D

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Stuti Pandey - तुरई यहाँ पे मिलती है! :)Apr 14

Manisha Pandey - अब रेस्‍तरां में जाकर भी तुम तुरई ही खाना चाहो तो तुम्‍हारा भगवान ही मालिक है। तुरई कोई खाने की सब्‍जी होती है। इतनी बेकार।Apr 14

Praveen Pandey - तुरई पौष्टिक तो है । बाहर तो हम वही जाकर खाते हैं जो घर में बनाना कठिन होता है । जैसे पिज्जा व चाइनीज़ ।
बाहर के 70 रु के पराठे से घर का तो बहुत अच्छा होता है ।Apr 14

प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI - तुरई ....शायद तरोई है जिसे चिकने और नसहे दो रूपों में जाना जाता है .......चिकनी वाले को तो इलाहाबाद में घिया कहते थे शायद ?
काहे मनीषा जी ?
बाकी तो हम रेस्टोरेंट में केवल किसी की जेब हल्की करने या अपनी करवाने ही जाते हैं !
सच्ची कसम से !Apr 14

Pankaj Upadhyay - घर की तरोई/तुरई ज़िन्दाबाद... पौष्टिकता अमर रहे.. सिकुड के इतनी रह गयी थी कि लगा की म्यूज़ियम मे लगा दे.. अचार की तरह से फ़िर सब्जी खायी गयी..
अभी कुल्फ़ी का प्लान है.. रात की कुल्फ़ी खाने बोरीवली - वेस्ट जा रहे है... :DApr 14

Stuti Pandey - हा हा ... तुरई हवा की तरह गायब हो जाती है कडाही में जाते ही! इसलिए उसमे थोडा सा चना दाल ड़ाल के बनाया जाता है - क्वान्टिटी बढ़ने के लिएApr 14

Prashant Priyadarshi - हम इंतजार कर रहे हैं कि आज कुल्फी वाला आता है कि नहीं.. :D
लगभग हर रोज इसी समय यहाँ से गुजरता है..Apr 14

Prashant Priyadarshi - यहाँ तुरई होटल-हाट कहीं भी नहीं मिलता है.. :(Apr 14

प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI - :)
ई गुरु अब सही चीज लाये हो निकाल के !
नेनुआ
हाँ यही तो इलाहाबादी नाम है !
घिया के लिए मुआफी !
प्राइमरी के हैये हाँ !
वहु पूरी ठसक से !Apr 14

Manisha Pandey - बेशरम, अकेले-अकेले कुल्‍फी। मैं मुंबई में थी तो एक बार भी मुंह से नहीं निकला कि बोरीवली वेस्‍ट आ जाओ, तुम्‍हें कुल्‍फी तो खिला दूं कम से कम। नहीं, सवालै पैदा नहीं होता। अब जनाब कुल्‍फी चाभेंगे। भगवान करे, देही में लगे ही नहीं। पेट खराब हो जाए।Apr 14

Prashant Priyadarshi - टेंसन मत लो मनीषा.. उसे नहीं मिलेगा.. वो तो सिर्फ चेन्नई में मेरे घर के बाहर मिलता है इस समय..Apr 14

प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI - ऐ भैया ई गुरु !
ज़रा हमको लखनवी प्रकाश कुल्फी का फोटो तो दिखाओ
इन्हा सब ललचवा रहें है !Apr 14

Pankaj Upadhyay - हा हा हा :)
मनीषा - मैने सबको बोल रखा है कि मैने तुम्हे इनआर्बिट के पीछे कुल्फ़ी खिलायी है.. अब झूठ बोलकर मेरा नाम मत खराब करो!
पीडी जी - मै तो चला कुल्फ़ी खाने.. :)
मास्साब - :) फ़ोटुवा तो हमारे इस CDMA वाले डब्बे से नही आयेगी.. ब्लैकबेरी लेने दीजिये, फ़िर भेजते है.. और ’नेनुआ’ ही तो असल नाम है.. :DApr 15

Stuti Pandey - इ लीजिये... हम इहाँ वाले का दरसन करवाते हैं - दुकान का नाम है "cold stone creamery" गजबे का स्वाद रहता है !
http://z.about.com/d/raleighdurham/1/0/s/0/-/-/cold-stone.jpgApr 15

100 din - https://mail.google.com/mail/?shva=1#buzz/114995198774335996683
आप लोग समझ लीं कि ई कुल्फी ई-गुरु की तरफ से है, हम समझ सकत हैं ऊ अपने आठ ब्लॉग में बिजी होइहयं.Apr 15

Prashant Priyadarshi - ए स्तुति.. काहे चिढा रही है रे? पटने में घर है ना? आओगी तो खियार के मारेंगे.. :(Apr 15

Stuti Pandey - हा हा ...ऐ परसांत ..काहे ;ला टिडिंग भिडिंग कर रहे हो... जरंती हो रहा है का? जहिया आयेंगे तहिया न ? तब देखल जायेगा :-DApr 15

Prashant Priyadarshi - चलो जाओ कामिक्स पढ़ो.. नयका बला कामिक्स भेज रहे हैं.. :DApr 15

Stuti Pandey - हाँ...हाली हाली भेजोApr 15

प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI - @ 100 दिन !
भैया वा प्रकाश कुल्फी का असली फोटूवा या लिंक मा है
http://aromacookery.com/wp-content/uploads/2008/05/vintageindia_08.jpgApr 15

Sanjeet Tripathi - aur kauno sabji nai mili torai ke alava, ek no k mamu ho yar...i hate this sabji....
;)Apr 15

Pankaj Upadhyay - बाहर निकले तो अमूल का शो-रूम अभी भी खुला हुआ था लेकिन अब सोचे थे कि वेस्ट जाना है तो गये वेस्ट ही.. बटर स्काच खाये और साथ मे फ़ालूदा भी.. अब पेट अच्छा लुक दे रहा है.. सोया जाय..
@Sanjeet - ha ha.. अरे नही.. काफ़ी दिनो से नही खाये थे.. सोचा, चलो आज बनाते है.. बस तो बना के हम तो मगन हो लिये..
@पीडी - भैया, तुमरी कुल्फ़ी आयी की नही? इतना रस्ता तो किसी लडकी के लिये देखे होते तो वो आ गयी होती :DEditApr 15

Sanjeet Tripathi - kya yar ek to बटर स्काच aur upar se फ़ालूदा भी, sahi hai chidhao, chidhao....brahmin aadmi ki laar tapakwao.....;)Apr 15

प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI - @Sanjeet Tripathi - पंडित जी ! की कीमती लार !!Apr 15

Manisha Pandey - @ pankaj - झूठे, कब खिलाई कुल्‍फी। इनऑर्बिट के पीछे तो जाने तो तुमने तो भैंस वाले तबेले के आगे भी नहीं खिलाई। ऐसे सार्वजनिक मंच से झूठ। तौबा-तौबा।Apr 15

Praveen Pandey - अब जो भी असत्य सिद्ध होगा, उसे सारे कमेंटकर्ताओं को कुल्फी खिलानी पड़ेगी । हमारी तिथि बता दी जाये, हम पहुँच जायेंगे ।Apr 15

पद‍्म सिंह - तुरई और नेनुआ में फरक ?? बताएगा कोई ?........... (नही तो हम बताऊं)Apr 15

पद‍्म सिंह - क्या हुआ बाबू ?Apr 15

Prashant Priyadarshi - Office में होगा जी.. काहे को परेशान कर रहे हैं बाबू को?Apr 15

Pankaj Upadhyay - @PD - haan ji office mein hi hain..
@ Padm Singh - bataiye saheb aap bhi bataiye.. wasie bhi aap jo batate hain, achha hi batate hain :DApr 15

पद‍्म सिंह - भईया लोगन !
हम कौनो सब्जी-गुरु तो हैं नहीं .... ई तो शादी करके सिखा दिए गए हैं (नून, तेल और गैस का दाम भी पता है)
वैसे तो दोनों को लोग एक ही चीज़ जानते हैं लेकिन थोड़ा सा फरक है .... नेनुआ चिकना और गहरे हरे रंग का होता है ... जब कि तोरई या तोरी की धारियां उठी हुई होती हैं और वो कम हरे रंग का होता है .... नेनुआ और तोरी में तोरी ज्यादा मंहगी होती है और सब्जी भी बेहतर बनती है .... ज्यादातर जगहों पर दोनों को तोरी ही कहते हैं .... (आवा समझ में)Apr 15

प्रवीण त्रिवेदी ╬ PRAVEEN TRIVEDI - तरोई ! मतलब नसही (तरोई की धारी) अधिक गुणकारी और फायदेमंद मानी जाती है ....सो मंहगी !Apr 15

Sameer Lal - तुरई तो हमें भी प्रिय है. वैसे कहते हैं कि तुरई पसंद आने लगे मतलब या तो घर से दूर हो या फिर उम्र बढ़ रही है. :)Apr 15

अजित वडनेरकर - तुरई, तोरी को जीरा और घी के साथ छौंकिए कि अहा अहा।
मछली को जल तुरई भी कहा जाता है:)Apr 15

पद‍्म सिंह - तुरई के छिलका की तल के सब्जी भी बहुत मजेदार बनती है .... सप्लीमेंट्री की तरहApr 16

Dr. Mahesh Sinha - राज रसोई का . बड़े बड़े विशेषज्ञ हैं यहाँ :)Apr 16

HIMANSHU MOHAN - ये तुरई…उफ़
ये पोस्ट लगता है म्यूट करनी पड़ेगी
हमारे घर में भी तुरई को खूब पसन्द किया जाता है।
और ये उबाल के बनती है - सो ये भी नहीं कह सकते कि "भाड़ में जाए तुरई"4:08 pm

Stuti Pandey - हमने कल रात को ही तुरई बनायीं थी थोड़ी बच गयी है, आज भी चलेगी!6:41 pm

Sanjeet Tripathi - राम-राम, और कौनो सब्जी नई मिली आपको?6:58 pm

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Friday, April 16, 2010

ख्वाहिशो की स्टेटस रिपोर्ट

4316811677_b0e7bcf1c6 आसमान तब भी उतना ही बड़ा था… बारिशें तब भी पूरा ही भिगोतीं थीं… वो पानी के बताशे तब भी लार गिरवाते थे… और वो आइसक्रीम तो उफ़्फ़…

अस्थमा मरीज होने के कारण ठंडी चीज़ें खाना मना था… मतलब घर वालो के सामने खाना मना था… बाहर तो बस कुल्फियों के दौर चलते थे… तबियत खराब होने पर पुछाई होती थी कि क्या खाया, कब खाया… तो हम कोई हरिश्चन्द्र थोडे ही थे…

सपनो की एक दुनिया थी जहा के हम सिकंदर थे… सपनो मे हम स्ट्रीट हॉक की बाईक चलाते थे… तो कभी एक ओवर मे छह छ्कके मारते थे… आस पास काफ़ी काल्पनिक पात्र थे- सुपर कमांडो ध्रुव तब इसलिये अच्छा लगता था कि उसके पास कोई स्पेशल पावर नही थी और वो हमारे जैसा आम इन्सान ही था… ईश्वर जैसे काल्पनिक पात्र से तो हम घन्टो बतियाते रहते थे और बात बात पर कुछ न कुछ माँगा करते थे…

फ़ूफ़ा जी इरीगेशन डिपार्ट्मेन्ट मे इन्जीनियर है… हमे लगता था कि बडे पैसे वाले है… एक बार चुपके से खत लिखकर दांत चियारते हुये कुछ बोर्ड गेम्स की ख्वाहिश जाहिर कर दी… बोर्ड गेम्स तो आये पर माता श्री ने हमारी अच्छी क्लास ली और इन ख्वाहिशो को वहीं विराम लगा… अभी कुछ दिन पहले बनारस गया था… बोर्ड गेम्स की उमर तो निकल गयी थी…   फ़ूफ़ा जी बोले चलो आज तुम्हे ज़िन्दगी की सच्चाई दिखाये… कुछ फ़िलोसोफ़िकल मूड मे थे… नही तो हम कुछ अज़ीब से मूड मे रहे होगे जो उन्होने पढ लिया होगा…

जो भी हो, थोडी देर मे हम लोग मणिकर्णिका घाट पर खड़े थे… लाशें धू धू करके जल रही 4123919016_4719912769थी… लोग बिलख रहे थे… वहीँ कुछ लोग लकड़ियाँ बेच रहे थे… चन्दन की वीआईपी लकड़ियाँ भी थी… फ़ूफ़ा जी हमको समझा रहे थे कि ये कटु है लेकिन सत्य है… सबको यही आना है…

और हम सोच रहे थे कि ख्वाहिशे भी कैसी कैसी… कुछ ख्वाहिशे जो जल रही है और कुछ वही तराजुओ पर तौली जा रही है…

ज़िन्दगी की इस रेलगाड़ी में ख्वाहिशो को हर प्लेट्फ़ार्म पर चढ़ते-उतरते देखा है… बुद्धा की तरह मैं भी पशोपेश में हूँ कि ज़िन्दगी का लक्ष्य क्या होना चाहिये?

 

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अपनी पहली कविता जो मैने ८-९ साल की उम्र मे लिखी थी और जो लखीमपुर खीरी के एक लोकल डेली मे छपी थी… बडे बडे कविगण किसी बात का कोई शक न करे… उस जमाने मे वो पेपर वकीलो को फ़्री मे मिलता है… यानी उसे कोई नही पढता था… वैसे पढता उसे अभी भी कोई नही है :)

 

मेरे घर मे आयी टीवी
मैने उसमे देखी बीवी

’चित्रहार’ मे आया गाना
कल – परसो तुम भी ले आना॥

सब – पढ्ते है उपन्यास
सोमवार को आया ’उपन्यास’,

मंगलवार को आये ’हमराही’
बुधवार को ’तलाश’ की बारी

गुरुवार को ’बानो – बेगम’
शुक्रवार को ’संघर्ष’ का कार्यक्रम

नाट्क देखो बडा विशाल,
शनिवार को आया ’मशाल’,

समाचार मे आया टैंकर
रविवार को आये ’अम्बेडकर’

फिर बच्चो कि चुनिया मुनिया
सोमवार को ’नन्ही दुनिया’॥

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नवम्बर २००६ मे पहली पोस्ट डालने के बाद आज अप्रैल २०१० मे हमने सैकड़ा पूरा किया है… अपने आलसीपने पर फ़िर कभी बात करते है… फ़िलहाल बधाई के अलावा आप हमारी गुल्लक मे अपने तजुर्बे की कौडिया डाल सकते है…

ज़िन्दगी का लक्ष्य क्या होना चाहिये?

……

……

Monday, April 12, 2010

दोस्ती की कॉकटेल!!

दोस्ती एक ऐसा रिश्ता होता है जो रेडीमेड नही आता… इस दुनिया मे कदम रखते ही हमे कुछ रिश्ते बनेबनाये मिल जाते है लेकिन हमे दोस्ती के रंग और साईज़ खुद ढूढने होते है…  यहाँ तक कि हमसफ़र भी ज्यादातर घर वाले ही तय करते है, पर दोस्त… दोस्त तो हमे खुद ही ढूढने होते है… इस खोज मे कभी कभी ऐसे लोग मिलते है जो हमारी रिक्त्ता (वोइड) को भरते है और कुछ ऐसे भी मिलते है जो उन छेदो मे उँगलियाँ डाले रहने के शौकीन होते है…

आवारगी
दोस्ती का  एक किस्सा मै घरवालो से अक्सर सुDSC00063नता रहता हू… काफ़ी धुंधला धुंधला मुझे भी याद है… जब एक पूरा दिन रिन्कू और मोनू के साथ मै अपनी लखीमपुर खीरी की गलियो मे घूमता रहा था… उम्र कुछ ८-९ साल के आस पास थी और  न जाने कहाँ से कुछ बड़े नोट हमारे हाथ आ गये थे… बारिश हो रही थी और एक रिक्शे पर हम तीनो बैठ्कर यायावरी के मज़े ले रहे थे…। जहां मन मे आया रुकते थे… जो मन मे आया खाते थे… उम्र के साथ साथ इच्छाये भी कम थी और वो दिन बहुत लम्बा… बस तीन दोस्त सब कुछ उसी दिन पा लेना चाहते थे…
दिन के बाद एक रात थी और उस रात की एक सुबह भी थी… आँख खुली तो मेरे आस पास वो दोनो बैठे हुये थे और मुझे बडे प्यार से देख रहे थे। मम्मी तिल्ली का तेल और मोम मेरी छाती पर घिस रही थी… मेरी साँस फूल रही थी… अस्थमा का एक छोटा सा अटैक था जो मुझे आजतक याद है… 
उस दिन किसी ने हिमालय पर चलने की बात भी की थी। शायद रिक्शे वाले ने कुछ समझा दिया होगा नही तो उस दिन देश को तीन सुधी ’स्वामी’ और मिल गये होते…

विनीत
3405277871_050e44b77b दोस्ती के असल मायने मुझे खुद संजय गाँधी पोस्टग्रेजुएट इन्स्टियूट ऑफ़ मेडिकल साइन्सेज मे समझ आये थे जब मै वहाँ विनीत से मिलने गया था। उसे दिमागी बुखार था और मुझे लगता था कि उसके पास दिमाग ही नही है…
उस दिन वो एकदम शान्त लेटा हुआ था… डाक्टर्स ने कहा था कि वो कोमा मे है… कोमा एक बडी ज़हीन स्टेट है, इन्सान ज़िन्दगी से दूर रहकर भी ज़िन्दगी को करीब से देखता रहता है… और देखता ही रहता है… उसकी तो आँखें  बन्द थी और एक ओक्सिजन मास्क उसे एक एलीयन का लुक दे रहा था… उसे उस हालात मे देखते ही मेरा सारा मज़ाक कही हवा हो गया था… मै और शिरीष बस उसके पास ही बैठे रहे थे… उसको देखते रहे थे… ये वही ’विनीत’ था जो ऑटोरिक्शा से उतरते वक्त सबसे पीछे रह जाता था और हमेशा पूरे पैसे उसे ही देने पडते थे… हाँ, उसके बाद वो तीन-तीन रुपयो के लिये गोमती से नीचे फ़ेकने की धमकिया जरूर देता रहता था…
उस दिन तकरीबन २० साल के, वो दो लडके न जाने किस किस भगवान को याद कर रहे थे, जाने कौन कौन से मन्त्र पढ रहे थे… बस एक ही तमन्ना थी कि वो कमीना बिस्तर से उठ जाये, और हमे गोमती मे फ़ेन्क दे…
लेकिन वो नही उठा… मेरी उन जवान आँखों ने उन जवान साँसों को धीरे धीरे थमते हुये देखा था… और इन सब कुछ मे मै शान्त था.. मेरे आस-पास सब रो रहे थे और मै सिर्फ़ सबको देख रहा था… बस देख रहा था… चिल्लाते, भागते, रोते हुये लोगो को…
उस वक्त मै कोमा मे था…
ये वो समय था जब दोस्ती को कंधो पे शमशान तक छोडा था… दोस्ती को छूआ था… दोस्त के कानो मे दोस्ती के कुछ जुमले भी छोडे थे जैसे “$%$%^&!, चला गया न?”…


मासूम दोस्ती
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NITR हॉस्टल मे दोस्ती के मायने बडे सिम्पल थे… २ रुपये की छोटी गोल्ड जलती थी और फ़िर दोस्त  दोस्ती के कश लेते थे… उस गोल्ड ने वहाँ मुझे ऐसे चन्द लोगो से मिलाया था जो कहीं न कहीं से मुझे कम्पलीट करते थे…
ये वो लोग थे जिन्होने अपनी अपनी स्कालरशिप और एजुकेशन लोन को वोद्का की बोतलो मे बहा दिया था… जो पीने के बाद जितनी जल्दी गालीगलौज करते थे, उतनी ही जल्दी रोते भी थे… वो  ‘बार’ मे एक दूसरे को पीने के नाम पर चैलेन्ज करते थे  और फ़िर हॉस्टल  जाते हुए एक दूसरे को संभालते  थे… ये कभी सडको पर पडे मिलते थे तो कभी हॉस्टल के गार्डेन की खुदी हुयी क्यारियो मे… ये हर लम्हा जीते थे… लेकिन ये सभी उस जहां के सिकन्दर थे.. सब एक से एक गुणी और सब अपने अपने क्षेत्रो के धुरन्धर… लेकिन सब कहीं न कहीं से बहुत अधूरे… और एक दूसरे का साथ उन्हे पूरा करता था।
कालेज छोडते वक्त तो इन गधो ने हद कर दी थी…  ऑटो मे सामान के साथ ये सारे बैठ जाते थे और फ़िर ऑटो एक बीयर शाप के बाहर रुकता था… सब टल्ली होते थे और फ़िर आंसूओं से पूरा रेलवे प्लेटफ़ार्म भीग जाता था… पैसे लेकर रोने वाली रुदालियाँ  भी ऐसे न रोती हो, जैसे ये लोग एक बीयर मे रोते थे और सेन्टीमेन्ट्स तो बस पूछिये मत।

वो कालेज छोडना अभी भी याद है… वो ’रुदालियाँ’ अभी भी याद है… बस अब उस बात के लिये आंसू नही आते बल्कि अपनी हरकतो पर हंसी आती है… गोया, वो हमारी मासूमियत थी या दोस्ती का एक्स्प्लोरेशन?… जो भी था, बहुत प्यारा था… और बहुत ही मासूम।

बोतल मे समुद्र
Image(033)कैम्पस सेलेक्शन शुरु होने मे एक महीना था…और उसी समय ’राउत्रेय’ के भाई की शादी थी। हम सबको तो जाना ही था… आदतन कमीने लोग राउरकेला से कटक तक विदआउट टिकेट गये। वहां से हमे केनरापाडा के एक गाँव मे जाना था… साथ के काफ़ी लोगो का गाँव  का ये पहला अनुभव था…
उडीसा के किसी गाँव  का ये मेरा पहला अनुभव था। वहाँ हिन्दी समझने वाले नाममात्र लोग थे और मुझे सबसे बाते करनी थी… कोशिशे की… और कई जगह सफ़ल भी रहा। खैर…
शादी हुयी… सो-काल्ड शहरी लडके नागिन की धुनो पर गाँव  की कीचड से सनी गलियो मे लोट लोट कर नाचे… और उस गाँव  मे सेलीब्रिटी बन गये… अगली सुबह भैया ने हम लोगो के डेडीकेशन से खुश होकर हमे एक पारादीप ट्रिप स्पान्सर की… दोपहर को कुछ मोटरसाईकिले पारादीप के लिये रवाना हो गयी…
पारादीप मे मैने पहली बार समुद्र देखा था… उसे बाहों मे भरने की कोशिश भी की थी… उसकी बातो को समझने की कोशिश भी की थी… ’सी-राक्स’ पर बैठे हुये मै घंटो ’सी-हमिंग’ सुनता रहा था… और समुद्र की हर लहर मुझसे बीयर की एक घूँट मांगने आती थी… मै एक बूँद दे देता था और वो चली जाती थी जाकर वो बाकी लहरो को बताती थी और फ़िर सब एक एक करके मेरे पास आती थी।
मै भारत की जमी के एक छोर पर खडा होकर काफ़ी खुश था… इस सिरे के बाद से दूर दूर तक बंगाल की खाडी थी… पैरो के नीचे की ज़मीन वहाँ खत्म हो जाती थी और आसमान अकेला हो जाता था…
उस दिन हमने उस समुद्र को बोतल मे कैद कर लिया था… फ़िर हमने उन बोतलो को एक साथ दूर समुद्र के पार फेंका … कोशिश बस इतनी थी कि वो बोतले भारत के बाहर गिरे…
सारी की सारी वही समुद्र मे ही गिरी और खेलने लगी लहरो के साथ… और हमने इस बात की कोई परवाह नही की कि बोतल मे समुद्र था या समुद्र मे बोतले……

दोस्ती के कुछ फ़ेसबुकिये ज़ुमले-
Anurag Arya: जिंदगी का मतलब......
जेब में चंद रुपये ...
दो पुरानी यामहा ओर एक खुली सड़क है ,
जिंदगी का मतलब....
इम्तिहान से पहले की रात ,कभी समझ न आने वाली किताब
ओर पाँच बेवकूफों के बीच बंटी एक सिगरेट है ,
जिंदगी का मतलब
कुछ ग्रीटिंग्स कार्ड्स ,कुछ बेहूदा कविताये.....
लड़किया ओर सिर्फ़ लड़किया है ,
जिंदगी का मतलब
सुबह ३.३० बजे की भूख ......
होस्टल के कमरे में रखा हिटर्स ओर एक मैगी नुडल्स है ,
जिंदगी का मतलब
सर्दियों की एक शाम ,धीमी बारिश ,चार दोस्त
ओर गर्म पानी में मिली व्हिस्की है ,
जिंदगी का मतलब ...
आधी रात को बजे एक मोबाइल में बरसो से रूठे किसी दोस्त की नशे में रुंधी आवाज है
जिंदगी का मतलब ......................................दोस्ती है
Kush Vaishnav: दोस्ती तो वो है कि 'यार गाडी धीरे चला.. '
और सच्ची दोस्ती वो है कि 'भगा साले आगे स्विफ्ट में मस्त माल है..':)