Friday, April 23, 2010

अहसान फरामोश सा एक दिन..

234705442_2b7a231b6d दिन कभी कभी कितनी बेतरतीब तरीके से शुरू होता है जैसे उसे भी मेरे साथ ही ऑफिस जाना है... मैं तो लेटलतीफ हूँ लेकिन उस कमीने को मुझसे भी जल्दी रहती है...
 
कहने को तो वो हमेशा मुझसे पहले ही उठता है लेकिन हमेशा ही उस एक वाश बेसिन के लिए हम दोनों फाइट करते हैं... फिर एक ही मिरर में डिफ़रेंट डिफ़रेंट एक्सप्रेशंस लाते हुए ब्रश करते हैं... मैं अपने बढ़ते हुए बालों को देखकर खुश होता हूँ… पोनी टेल रखने की ख्वाहिश आलमोस्ट पूरी होती दिखती है.. और दिन, उसे इससे कोई मतलब नहीं.. वो तो हर पल बस गुज़रता जाता है...

घर से बाहर निकलता हूँ... मोबाइल पर टाइम देखता हूँ... रोज़ की तरह 'लेट' हूँ... सब कुछ इस कमीने दिन की वजह से... क्या बिगड़ जाता अगर वो मेरे उठने के बाद उठता... थोडा सा मुझसे पीछे चलता तो क्या वो छोटा हो जाता... भरपाई करने के लिए ऑटो में बैठता हूँ.. सदियों से बोरीवली से गोरेगांव की बस नहीं पकड़ी है... एक आत्म चिंतन जरूरी सा लगता है.. रोज़ रोज़ एक तरफ के ये 60-70 रुपये बहुत भारी हैं...

बाइक खरीद लेता हूँ... पर अच्छे से चलानी नहीं आती.. कार... नहीं , पहले से काफी चीज़ें प्रायरटाइज़ हैं...वो ज्यादा जरूरी हैं ... एक अच्छी साइकिल ले लेता हूँ... पर ये गर्मी... ऑफिस जाकर फिर से नहाना पड़ेगा ...

"साहेब ब्रिज के ऊपर से या नीचे से..."
हब माल आ गया है...
"नीचे से.. राईट साइड में रोक दीजिये..."
रिक्शा से उतरता हूँ... सोंचता हूँ कि कल घर से और जल्दी निकलूंगा... सारे घोड़ागाड़ी के ख्याल फुस्स हो चुके हैं...

ऑफिस आकर बैठता हूँ... सिस्टम अनलाक करता हूँ और अपने मूड को बूट मारता हूँ... मेरी मूड मशीन न जाने किस जमाने का प्रोसेसर यूज करती है… ये बूट होने में बड़ा टाइम लेती है और जब तक ये बूट नहीं होती मेरा किसी से बात करने का मन नहीं करता...

cubicle में एक ख़ामोशी है... शायद सब मेल चेक कर रहे हैं...

और मैं ये टाइप कर रहा हूँ... मूड अभी भी बूट हो रहा है...



टाइटिल डाक्टर अनुराग की एक नज्म से बिना पूछे उठाया हुआ :)

27 comments:

sonal said...

मूड अभी भी बूट हो रहा है...
सहज अभिव्यक्ति

प्रवीण पाण्डेय said...

वाह । दिन बाद में उठता ।
यही दौड़ लगी है ।
बहुत सहज भाव से दर्शन उड़ेल दिया ब्लॉग में ।

Shiv said...

बहुत खूब!
सहज लेखन को पढने का आनंद अलग है. बहुत बढ़िया लगा पोस्ट पढ़कर.

mukti said...

ए...मुम्बई में बाइक के बारे में सोचना भी मत...और दिन को आज सोने से पहले चुपके से चाय, कॉफ़ी या पानी में स्लीपिंग पिल्स खिला देना. देखना फिर कल क्या होता है? तुम्हारे साथ हमारा भी काम हो जायेगा. सच्ची कित्ता एहसान फ़रामोश है, तुमने उसे मुम्बई जैसी जगह में पनाह दी और वो तुम्हें लेट करवा देता है. और तुम भी तो...
...आलसी, लेटलतीफ़... ...तुम्हें नहीं कह रही...मैं भी हूँ.

संजय भास्‍कर said...

... बेहद प्रभावशाली

सुशील छौक्कर said...

भागती दौडती जिदंगी में से शब्दों के जरिये निकला हाँफता सा एक दिन.....

angel said...

:)

Stuti Pandey said...

बहुत अच्छे! सहज अभिव्यक्ति, आखिर ऐसा क्यूँ होता है??

Bhawna 'SATHI' said...

ek to phle se hi late uthate ho us pr se bal badha rhe ho..bike ke bare me soch rhe ho,shi hai,jao bata tum to gye....avi din se fight krte ho tb julfo se v krna...

विवेक रस्तोगी said...

वा भई हम तो शाम तक अपने मूड को बूट करते रहते हैं पर ये ससुरा मूड बूट ही नहीं होता और फ़िर घर चले जाते हैं :(

बेहतरीन अभिव्यक्ति, इसके साथ हमारी भी बहुत लड़ाई है बहुत तेज चलता है यह, और हम भी ऑटो से ही जाना पसंद करते हैं, नो झंझट !!

PD said...

अपना प्रोसेसर जरा स्लो है.. एक बार मूड रिबूट होने मे कम से कम एक हफ्ते लग जाया करते हैं..

abhi said...

arey bhai...apni bhi kahani kuch aap si hi hai....waise main bhi bade din se soch raha hun ki bike le lun..
auto pe kaafi paise lag jate hain kabhi kabhi :P

aur prashant...
processor to apna bhi slow hi hai :)

कुश said...

रैम बढवा लों.. अपनी भी और सिस्टम की भी..
शायद थोडी स्पीड मिल जाए.. मस्त लिखा है.. ये फोटो अनुराग जी ने भी लगायी थी शायद कभी...

Sanjeet Tripathi said...

sundar, itna sahaj bahut kam hi padhne milta hai bandhu...

ye kya baat hui ki bike acche se chalaane nahi aati?

vaise kush sahab ki salah par dhyan diya jaye ;)

Unknown said...

too good.....i can exactly see myself in this creation :)

स्वप्निल तिवारी said...

bahut badhiya yaar...main bh9i kisi ko janta hun jinka din unke uthne ke se pahle utha jata hai ...lekin daant mujhe padti hai ki..tum bike chalana kyun nahi seekh lete... ek taraf ke 60-70 unhe bhi bhari padte hain .. :)

दिगम्बर नासवा said...

BAHUT KHOOB ...BAUHUT HI SAHAJ ROOP SE LIKHTE HAIN AAP .. PAR HAMESHA GAHRI, DOOR TAK JAATI HAI AAPKI BAAT ...

kshama said...

Behad achhee shaili...bina mood boot hue aisa likhte hain,to boot honeke baad to kamal hota hoga!

Dimple said...

Hello ji,

सब कुछ इस कमीने दिन की वजह से... क्या बिगड़ जाता अगर वो मेरे उठने के बाद उठता...

Kya likhte hain aap??? Great!!
What a different perception!

Good work done!

Regards,
Dimple
http://poemshub.blogspot.com

hem pandey said...

किसी ने कहा है - अफ़सोस ! दिन में २४ ही घंटे होते हैं.

Alpana Verma said...

दिन अपनी दिनचर्या का पक्का है..वो क्यूँ रुकेगा?
[बाकि रेम बढवाने का आईडिया बुरा नहीं है..:D]

-सहज प्रभावी लेखन

richa said...

:-) वाह जी वाह अब तक तो बकौल गुलज़ार साब दिल ही कमीना था... अब तो दिन भी कमीना हो गया... gr8 post... हमारे जैसे आलसी लोग जो रोज़ ऑफिस लेट पहुँचते हैं आपसे आसानी से relate कर सकते हैं...

Udan Tashtari said...

पढ़ने कुछ और आये थे, ये दिख गया. आनन्द आया.

अनूप शुक्ल said...

ये डाक्टर साहब तुमको कहीं का न छोड़ेंगे। बताओ टाइटल चोरी सिखा दिये।

मोटरसाइकिल ले लिया जाये!

अपूर्व said...

सच मे..दिन कुछ ऐसा ही होता है..और मूड का नॉन-ऑपरेटिंग सिस्टम..किस सदी का..कि हम भी हर मंडे के मनहूस मार्निंग मे बेमन से मूड का कम्बख्त स्विच दबा देते हैं बूट होने के लिये..जो हफ़्ते भर तक बूट हो्ते रहने के बाद फ़्राइडे की शरारती इवनिंग को पासवर्ड-प्राम्प्ट देता है..मगर तब पावर-कार्ड बाहर खींचते पल भर का वक्त नही लगता..सच मे वीक किसी ’ट्रांस’ मे गुजर जाता है..वीकेंड किसी ’हैंगओवर’ मे..हाथ रह जाता है मंडे की मार्निंग का कम्बख्त अलार्म..उस बचपन के पापों का सजायाफ़्ता मुजरिम सा..जब कि निठल्ला वक्त भांग चाट कर किसी चारपाई के तले औंधा पड़ा रहता था.. और मंडे टु संडे कैलेंडर मे छपे सात हर्फ़ भर होते थे..
बढ़िया पोस्ट!!

PD said...

कौन वाली? वही डा साहब कि यामहा?? ले लो.. ले लो.. :)

मनोज कुमार said...

सहज प्रभावी लेखन