Wednesday, March 31, 2010

चंद मुलाकातों की है दिल कि कहानी!!

nonameकई  बार  यूँ  भी  होता  है  कि  ज़िन्दगी  कि  राह  पर  चंद  मुस्कुराहटें  पड़ी  मिल  जाती  हैं... कुछ  कुछ  उस  ५ रूपये के  सिक्के  कि  तरह  जो  मुझको कभी कभी  मोर्निंग ट्यूशंस  के  वक़्त  मिल  जाता  था  और  फिर  सुबह  सुबह  ही  उससे  जलेबियाँ  खायी  जाती  थीं...  

उस  सिक्के  ने  मंगलवार  के  मेरे  काफी  व्रत  भी  तुडवाये  हैं…

इन मुस्कुराहटो के लिये कभी कभी बस  सर  उठाकर  अपने  आस  पास  के  लोगों  को  देखने  भर  की  जरूरत  होती  है.. कभी  कभी  कुछ  बातें करना  भी  जरूरी  होता  है.. ऐसे  ही  चंद मुलाकातें  मैंने  यहाँ  सजाई  हैं  -

 

 

सब्जी  वाली  आंटी

अकेले  लड़के  होने  के  सुख  कम  होते  हैं  और  दुःख  ज्यादा  जैसे  आप  खाना  नहीं  बना  पाते  और  अपने  कपडे  तक  खुद  नहीं  धो  पाते.. रुमाल  और  मोज़े  तो  तब  तक  चलते  हैं, जब  तक  आपकी  आत्मा  न  बोल  दे  की  बस  भाई  अब  तो  रहने  दे.. 

मैं  आजकल  इन  सो  कॉल्ड  सुखों  से  ऊपर  उठने  की  कोशिश  कर  रहा  हूँ... आर्गेनाईज़ और  इन्डिपेन्डेन्ट बनने  का  काम युद्ध  स्तर पर चल  रहा  है..  आजकल   डिनर  खुद  से  ही  बनाने  की  कोशिश  करता  हूँ.. और  अपने  जले  हुए  खाने  को  भी  'वाह  वाह' करते  हुए  खाता  हूँ  :)


हाँ  तो  एक  दिन  चोखा  खाने  का  मन  था.. ऑफिस  से  आते  हुए  हम  सब्जी  वाली  आंटी  के  पास  पहुंचे  और  देखा  तो  वहां  टमाटर  का  नामोनिशान  नहीं.. ये  मेरे  साथ  होना  बहुत  ही  आम  बात  है.. मेरी  ख्वाहिशें  छोटी  हो  या  बड़ी, कभी  आसानी  से  पूरी  नहीं  होतीं..


- कुछ  और  ले  लो 
- नहीं, रहने  दीजिये.. आज  चोखा  खाने  का  मन   था  और  टमाटर   ही  नहीं  है  :(
- वो  आज  जल्दी  ख़त्म  हो  गए 
- हम्म… लेकिन  आज  बड़ा  मूड  था… चलिए  कोई  बात  नहीं ।
(उन्होंने  मराठी  में  अंकल को कुछ  बोला  और  किसी  बात  को  लेकर  दोनों में कुछ चर्चा हुई फिर  उन्होंने  अपना  पर्सनल  थैला  खोला  और  उससे  एक  टमाटर  निकाला)

- २  ही  टमाटर  बचे  थे, मैंने  आज  रात  के  खाने  के  लिए  रख  लिए  थे.. एक  आप  ले  लो.. वैसे  भी  एक  से  काम  हो  जायेगा..
- नहीं, नहीं.. आप अपने टमाटर रखिये.. मैं कल ले लूँगा..
- अरे   ले  लो.. इसका पैसा भी मत  देना  :)
- नही, बिल्कुल नही… आपको पूरा नहीं  होगा..
(मेरी बात काटते हुए)
- बैग लाये  हो… रुको, (पोलिबैग  में  एक   टमाटर  रख  दिया  उन्होंने… )


फिर  मैंने  उनसे  बाकी  सारी  सब्जी  ली..
वो  सिर्फ  एक   टमाटर  नहीं  था.. वो  उन  'दो' टमाटरों  में  से  एक  टमाटर  था  जो  उन्होंने  खुद  के  खाने  के  लिए  बचाया  था..


मैं  अगर  ज़िन्दगी  भर  भी  वहां  से  सब्जियां  लेता  रहूँ  तब  भी  उसका   मोल  नहीं   चुका  सकता॥


बाबु  साहिब

अपना  बनाया  खाना  खाने  का  एक  दर्द  भी  है.. आप  गलती  से  ज्यादा  बना  लेते  हैं  और  फिर  'बर्बाद  न  हो  जाए' के  डर  से  सब  खा  जाते  हैं… और  फिर  वो  होता  है  जिसकी  कल्पना  मात्र  से  भी  डर  लगता  है…  ये  पापी  और  जालिम  पेट अपना  अस्तित्व  दिखाना  शुरू  कर  देता  है…


आजकल  जिम नहीं  जा  पाता… योग  भी  धीरे  धीरे  'रेगुलरली  इरेगुलर' होता  जा  रहा  है.. लास्ट  टाइम  बाबु  सी  मिश्रा  के  ब्लॉग  पर  ही  कपालभाती  की  थी :P  तो  पेट  का  निकलना  स्वाभाविक  है  इसलिए  आजकल  अपनी  हेल्थ  कांशस आत्मा  को  ब्रेकफास्ट  के  नाम  पर  कुछ  फल  खिलाकर  चुप  करवा  देता  हूँ…


एक  फल  वाले  बाबा  से  रोज  सेब  या  केले  खरीदता  था… कभी  पर्सनल बात  नहीं  होती  थी… बस  वो  बोलते  थे  की  आज  अनार  खाइए  तो  अनार  खा  लिए… आज  अंगूर  अच्छे  लाया  हूँ, तो  अंगूर  ले  आया…

एक दिन:


- आप  क्या  करते  हैं  साहिब?
- कंप्यूटर  इंजिनियर  हूँ 
(सॉफ्टवेयर  इंजिनियर  बोलना  सवाल  जवाब  को  और  बढ़ाना  होता)
- अच्छा… हमारे  लड़के  भी  CA हैं
- अरे   वाह 
(मैंने  एक  ब्रोड  स्माइल  के   साथ  उन्हें  पूरा  अटेंशन दिया)
- बनारस  के  रहने  वाले  हैं  हम  लोग, बहुत  पहले  हम  हियाँ  आये  थे.. पहले  रिक्शा  चलाते  थे, उसके बाद ये फ़ल बेचने का काम शुरु किये…  
- अच्छा, और  आपके  बच्चे  आपसे  कुछ  नहीं  कहते?
- गुस्सा  करते  हैं  ऊ  सब, कहते  हैं  की  काहे  जाते  हो.. हम  लोग  क्या  कम  कमा  रहे  हैं... लेकिन, हम  भी  बोल  देते  हैं  की  भाई उम्र  भर  हम  यही  सब  किये  हैं, अब  आखिरी  वक़्त  कैसे  बदल  जायेंगे...
- बात  सही  है!
- इसलिए  जब  बच्चों  के  दोस्त  या  जानने  वाले  आते  हैं  तो  हम  उनसे  नहीं  मिलते  और  हमारे  जानने  वालों  से  उन्हें  नहीं  मिलाते
(उफ़्फ़्, ये बडे बडे शहरो की समझदारी )। हम  उनसे  बोल  देते  हैं  की  इसी  ठेले  से  तुम  लोग  बाबु  साहिब  बने  हो…
- एकदम  सही.. हम  जितना  ऊपर  उठ  जाएँ  हमें  अपनी  मिट्टी को नहीं  भूलना  चाहिए॥
- साहिब, हम  बैठ  जाते  हैं  तो  हमारी  चाय  और  बीडी  का  पैसा  निकल  आता  है... अब  ज़िन्दगी  भर  इसी  ठेले  से  उन्हें  बनाये  हैं  तो  आखिरी  वक़्त  अब  बीडी  के  लिए  भी  उनसे  पैसे  माँगना  अच्छा  नहीं  लगता… आप  आज  बेर  लीजिये… बम्बइया बेर  है…एकदम मीठे..

कभी  कभी  कुछ  बातें  आपको  वो  समझा  देती  हैं  जिन्हें  दूसरों  को  समझाने  के  लिए  आपके  पास  बोल  नहीं  होते.. उस  दिन  कुछ  ऐसी ही  चीज़े समझी  थी मैंने..

 

नालायक

दिसम्बर  के  आस  पास मैं ज़िन्दगी  के  एक  'कम  अच्छे  दौर'  से  गुज़र  रहा  था… ख़राब  दौर  नहीं  कहूँगा…

ज़िन्दगी  हंग  हो  गयी  थी… उस  वक़्त  इच्छाशक्ति  ढूंढ  रहा  था… जो  मेरे  लिए  ctrl alt del का  काम  करे.. लेकिन  हंग  स्टेट  में  कभी  कभी  टास्क  मैनेजर भी  हंग  हो  जाता  है, तब  इम्प्रोपर शट डाउन  के  अलावा  कोई  आप्शन  नहीं   बचता...


जब  भी  सोचने  बैठता  था  तो  सोंचता  था  की  क्या  सोंचूं…

रात्रिचर  होता  जा  रहा  था.. और  उसी  वक़्त  बतियाने  के  लिए  याहू  रूम्स  की  शरण  ली.. एक  बंदी  मिली  (नाम उसने आजतक  नहीं  बताया) जिसके  फलसफे  बड़े  अजीब  थे… कभी  मुझसे  हनुमान  चालीसा  सुनाने को  बोलती  तो  कभी  खुद  भजन  सुनाती…  रात  के  तीसरे  पहर  ऑफिस से आने के बाद मैं  उसे  याहू पर हनुमान  चालीसा  सुनाता, 'द स्पीकिंग ट्री' पर  कुछ  बातें  होती  और  उसके  बाद  सुबह  सुबह  5:15 बजे  मैं  वाक  के  लिए  चला  जाता… मै उस आध्यात्म को याहू पर ए़क्स्प्लोर कर रहा था जो मै अपने उस छोटे से शहर मे छोड आया था…

 

बाहर  सुबह  की  एक  चाय  होती, नेशनल  पार्क के सामने वाले मन्दिर मे सुबह सुबह शिव दर्शन और  फ़िर हमउम्र  बुद्धों  के  साथ  नेशनल  पार्क  के  अंदर  की  एक  सैर…

 

वहां  एक  dogy मिल  गया  था  मुझे… उसका  नाम  मैंने  रखा  था  'नालायक'… जिनती  गालियाँ  मैंने  उसे  दी  होंगी  उतनी  शायद  ही  किसी  को… मै उसके  कान  पकड़  के  उसे  थप्पड़  मारता  और  मेरी  इन  सैडिस्टिक हरकतों  के  बावजूद  वो  मुझसे  चिपक  जाता  और  कभी  'पार्ले -जी' तो  कभी  'टाइगर' बिस्किट्स खाता…


अभी  सुबह  की  चाय  कम  ही  हो  पाती  है, लेकिन  आज  भी  वो  जब  भी  मुझे  बाहर  पा  जाता  है… बस  चढ जाता  है  मेरे  ऊपर… कई  बार  तो  मैं  जान  भी  नहीं  पाता  और  एकदम  से  मेरे  पीठ  पर  कोई  दो  पैर  रख  देता है… पलटता  हूँ  तो  वो  आँखें  चुराता  है…

 

अब  उसे  कभी  कभी  'गुड  डे' भी  खिला  देता  हूँ  आखिर  वो  'नालायक' मेरे  कम  अच्छे  दिनों  का  साथी  है… और  कम  अच्छे  दिनों  में  नालायक दोस्त  ही  साथ  निभाते  हैं…

 

P.S.  आज अंगूर लेते समय एक अपडेट मिली कि फ़ल वाले बाबा के लडके की सेलरी बढ गयी है :)

 

30 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत प्यारे प्यारे पल संजोये हैं. मुस्कराहट तैर गई..आभार इस संस्मरण का.

Yashwant Mehta "Yash" said...

क्या भाई जी, रुला के छोड़ोगे क्या???

जीवन निचोड़ कर रख दिया हैं अपने तीनो कथाओ में

आज सुबह से ही बहुत बढ़िया बढ़िया पोस्ट मिल रहे हैं पढने को

जीवन पढने की मिल जाता हैं जब इन ब्लॉग नुक्कड़ो पर तो आनंद आ जाता हैं

अनूप शुक्ल said...

अभी सुबह-सुबह चाय पीते-पीते यह पोस्ट पढ़ी। चाय और जायकेदार लगी।

कम अच्छे दिन भी बीत जाने पर बहुत अच्छे से लगते हैं।

सुन्दर संस्मरण!

विवेक रस्तोगी said...

आप बहुत ही तारीफ़ के काबिल हैं, जो इन छोटे छोटे से पलों में जिंदगी के फ़लसफ़े ढ़ूँढ़ लिये, हम भी नेशनल पार्क के आगे ही रहते हैं, साँईबाबा मंदिर के पीछे की ओर, कभी मिलना हो जाये, कैसा रहेगा।

Dimple said...

Hello :)

I have read just "सब्जी वाली आंटी" till now... And it is marvellous. I will read rest of them and leave a comment for sure!

Good work done :)

Regards,
Dimple

Himanshu Mohan said...

आज की आपकी पोस्ट बहुत अच्छी लगी, दिल को छू गई। इस पर क्या टिप्पणी करनी चाहिए मुझे नहीं मालूम, मगर मुझे अच्छा लगा तो उस भावना को व्यक्त कर रहा हूँ।
अकेलेपन की भीड़भरी यादों और भीड़ में अकेलेपन के एहसास की और भी यदें हों तो शेयर कीजिएगा।

mukti said...

हम्म, कुछ ऐसा ही घटता रहता है मेरे साथ भी. ये छोटी-छोटी घटनाएँ सच में इतनी खुशी देती हैं, जितनी खुश रहने के लिये की गयी बड़ी-बड़ी कवायदें भी नहीं देतीं. मैं जिस मोहल्ले में रहती हूँ, वहाँ एक सब्ज़ी वाले भैया हैं, बिहार के. फिज़िकली चैलेन्ज्ड हैं( दोनों हाथ विकृत हैं. एक हाथ में हथेली नहीं है और दूसरे में कुछ उँगलियाँ हैं बस) पर गजब के आत्मविश्वासी और स्वाभिमानी. किसी से एक पैसा फालतू नहीं लेते. तीन बच्चे हैं उनके. पढ़ा रहे हैं किसी तरह. मोहल्ले के पीछे एक झोपड़पट्टी डालकर रहते हैं. उनके चेहरे की मुस्कुराहट मुझे ढेर सारी ऊर्जा से भर देती है. हमेशा खुश रहते हैं वो .पता नहीं कैसे?

संजय भास्‍कर said...

आज की आपकी पोस्ट बहुत अच्छी लगी, दिल को छू गई

रश्मि प्रभा... said...

bahut hi komal yaadon ki kahaniyaan likhi hain....

रंजू भाटिया said...

आपके लिखे यह संस्मरण ज़िन्दगी को नए अर्थ देते हैं ...बहुत दिन तक याद रहने वाली है यह बाते ..अक्सर हमारे आस पास ही बहुत कुछ ज़िन्दगी हमें सीखा जाती है पर हम उस को अनदेखा कर देते हैं ...शुक्रिया

प्रवीण पाण्डेय said...

ऐसी घटनायें बहुत याद रहती हैं, अच्छी भी लगती हैं ।
समाप्त न हुयी हों तो और सुनायी जायें ।

Bhawna 'SATHI' said...

jitna khubsurat mhsus krte hai aap utni khubsurati ke sath likh v lete hai,behtreen hai un palo ki ye yade...subhkamanye.

मनीषा पांडे said...

ये जीवन की इतनी छोटी, मामूली बातें ही शायद सबसे कीमती बातें हैं। तुमने कैसे उन्‍हें सहेजकर रख लिया है और जब अपने ही साथ होते हो तो याद भी करते हो।
बहुत सुंदर।

Sanjeet Tripathi said...

bhai pankaj,
yar aankhein nam ho aain...
kya kahu pata nahi.....
bas......

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

@Vivek Ji
पक्का, हमारा सौभाग्य.. आपको मेल करता हू..

@हिमान्शु जी और प्रवीण जी
बची यादो को भी कम्पाईल करनी की कोशिश करता हू..

सबका बहुत बहुत शुक्रिया। आप लोगो के प्यार से ही लिखने की प्रेरणा मिलती है..
शायद आप लोगो का फ़ोटो पर ध्यान नही गया.. वो एड्वान्स मे अप्रैल फ़ूल था :)

डॉ महेश सिन्हा said...

पहली बार इस ब्लाग पर PD के बज लिंक से आया .
माशाल्लाह

manas mishra said...

bas itana hi kahunga...........jo vyakt karna tha use samne pakar man ko jo anand milta hai wo mil raha hai.........isase jyada jeevan me shayad hi kuch aur bada anand ho...

manas mishra said...

bas itana hi kahunga...........jo vyakt karna tha use samne pakar man ko jo anand milta hai wo mil raha hai.........isase jyada jeevan me shayad hi kuch aur bada anand ho...

हरकीरत ' हीर' said...

बहुत खूब ......!!

गज़ब का लिखा .......!!

आपने इन नन्हें पलों में जान डाल दी .......लाजवाब .....!!

Apanatva said...

ghar se doore rah kar hee bacche seekhate hai...........:).......

jeevan kee A,B,C,D to ab shuru huee hai............

Aur ye sansmaran bantne ke liye bahut bahut dhanyvaad........aisee yado ko mai khazana jo maantee hoo...........

blog par aakar bahut accha lagata hai.........
shubhkamnae aur aasheesh..........

Apanatva said...

ghar se doore rah kar hee bacche seekhate hai...........:).......

jeevan kee A,B,C,D to ab shuru huee hai............

Aur ye sansmaran bantne ke liye bahut bahut dhanyvaad........aisee yado ko mai khazana jo maantee hoo...........

blog par aakar bahut accha lagata hai.........
shubhkamnae aur aasheesh..........

दिगम्बर नासवा said...

जीवन के अंजाने पल जो चुके से जगह बना लेते हैं दिल में ... उनको बहुत ही खूबसूरती और दिलकश अंदाज से निखारा है आपने ....

abhi said...

क्या बात है पंकज भाई....मजा आ गया यार...दिल खुश हो गया पढ़ के....बहुत अच्छे

Abhishek Ojha said...

बढ़िया !
कल ऑफिस में पढ़ा था... वहां से टिपिया नहीं पाता. आज बस बढ़िया ही कह के कट रहा हूँ :)

Chandan Kumar Jha said...

आपकी पोस्ट पढ़कर मन को बहुत सुकून मिला । फल वाले बाबा ने बहुत प्राभावित किया ।

kavi surendra dube said...

भुत अच्छा लिखा है आपने

kshama said...

Kya gazabka likhte hain aap...!Hairan kar diya!
"Nalayaq" ke qisse ne to aankh nam kar dee..

Reetika said...

bindaas aur khule dil se kissagoi ki hain asal zindagi ki..likhte rahein !

अनूप शुक्ल said...

फ़िर से पढ़ी! और अच्छी लगी यह पोस्ट!

Puja Upadhyay said...

इन छोटे छोटे लम्हों का कोलाज है जिंदगी बस और क्या, तुमने इतने करीने से सजाया है तो गुलदस्ता नज़र आ रहा है.
दिल को छू जाने वाली बेहद प्यारी पोस्ट.