उसकी एक पर्सनल डायरी के इंट्रो में लिखा है - 'मैं कायर हूँ'.. उसने ये सच गाँधी जी की आटोबायोग्राफी से प्रभावित होकर लिखा था.. उसे लगता था की उनकी तरह वो भी सच स्वीकारने की क्षमता रखता है... (मोसो कौन कुटिल, खल, कामी)
आजकल वो उस डायरी को नहीं पढता.. उसमें पेसिमिज्म की बू आती है... एक सड़ी हुई गंध, जिसे वो आजकल बर्दाश्त नहीं कर पता....
उन दिनों उसे लिखने का नशा था... दुनिया बदलने के हंसी ख्वाब थे जिन पर वो कब खुद पाँव रखकर आगे बढ़ गया, नहीं पता...
तब उसकी दुनिया बहुत छोटी थी.. बस उसकी कविताओं को अपना नाम देने वाले कुछ दोस्त और उसको पाज़िटिवली क्रिटीसाईज़ करने वाले मुट्ठी भर लोग... अभी भी दुनिया कुछ बडी नही हुयी है पर अब वो 'दुनिया' शब्द सुनते ही कान बंद कर लेता है...
उसके शब्दों में कभी भी जादू नहीं था.. लफ्ज़ हमेशा हल्के थे... बस भावनाओं में टूट के लिखता था.. रस्किन बोंड की तरह…
मुझे याद है एक दिन कोलकाता में उसके हाथ पाउलो कोहेलो की ’ज़हीर’ लग गयी थी... उसने चंद पन्ने पढ़े थे और उस किताब को हमेशा के लिए बंद कर दिया था और खुद लिखने बैठ गया था.... वो लगातार तीन दिन ऑफिस नहीं गया.. ऐसे लिख रहा था जैसे कोई महाकाव्य लिख रहा हो ... तीन दिन बाद जब वो इस नशे से उतरा तो उसने उन पन्नो को फाड़ के फेंक दिया था.... और खुशी खुशी ऑफिस जाता था।
आज उसे उस बात पर कोई अफ़सोस नहीं है... और आज भी वो क्रोस्वर्ड्स में पाउलो केहलो की बुक्स को बस देख के रख देता है... 'Alcehmist' और 'Veronica decides to die' घर में ही कहीं खो गयीं है.. लास्ट टाइम फ्लैट बदलने के वक़्त दिखीं थी...
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वो आज लिखता नहीं है... सिर्फ सोंचता है... उसके पास कोई सोचालय नहीं है... वो शौचालय में सोंचता है... वो बस में सोंचता है.. ऑटो में सोंचता है.. सोते वक़्त बुदबुदाता भी है लेकिन कोई आवाज़ बाहर नहीं आती... उसके मुर्दा ख्याल अपनी अपनी कब्रों से बाहर आकर एक दूसरे से लड़ते हैं और उसके दिमाग की नसें फूलने लगती हैं... खून का दबाव बढ़ने लगता है.. वो ये सब देख सकता है.. उसे दिखता है की शिराएँ फूल रही हैं और वो फट जाएँगी.... वो तपस्या करना चाहता है… घन्टो, महीनो, सालो बस उसी मे बैठे रहना चाहता है…
सोंचता है की शायद उससे उसके विचार शांत हो जायेगे...लेकिन ...नहीं नहीं..
वो भागना चाहता है... दौड़ना चाहता है.. तब तक, जब तक वो थक के गिर न जाए.. तब तक, जब तक वो इन विचारों को कहीं पीछे न छोड़ दे... कहीं बहुत पीछे……
और वो भाग रहा है.. दौड़ रहा है....
हफ़ हफ़ हफ़……हफ़………हफ़………हफ़………………………हफ़……………
हां उसकी पीठ दिख रही है…………
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वो आज भी कायर ही है।
18 comments:
बहुत प्रभावशाली
Behad prabahvshali abhivyakti.....Badhai!!
झंकझोर देने वाला बहादुर कायरता का फलसफा..गरल मंथन से जो अमृत निकलेगा, उसकी कल्पना मात्र से अचकचाया भौचक बैठा सिहर रहा हूँ..जारी रखो मंथन!!
बहुत बेहतरीन उतारा!!
My Goodness... What a post!!
I was stunned after reading this one!
Speeeeeechless!
Very strong enough.
Regards,
Dimple
zahir का नायक हिम्मत नहीं हारता है और यह तथ्य भी नहीं स्वीकार कर पाता है कि यह सब उसके साथ हो रहा है ।
कितना भी भाग ले विचार कहाँ शांत होते है.सोच कभी ख़त्म नहीं होती.हम किसी के साथ बात करते वक़्त भी सोचते रहते है कुछ और बोलते रहते है कुछ और..
वो लगातार तीन दिन ऑफिस नहीं गया.. ऐसे लिख रहा था जैसे कोई महाकाव्य लिख रहा हो ... तीन दिन बाद जब वो इस नशे से उतरा तो उसने उन पन्नो को फाड़ के फेंक दिया था.... और खुशी खुशी ऑफिस जाता था।इतनी बेचैनी ??देखी सुनी सी लगती है कही आस पास..
shaandaar abhivyakti
एंड्रिया डेल सार्टो की तरह अपनी कला को खुद ही मार दिया ... या फिर उसकी तरह बाहर की दुनिया में इंस्पिरेशन तलाशता रहा... रोबेर्ट ब्राउनिंग ने उस पर उसे बताया की इंस्पिरेशन अंदर से आता है... दिमाग में ही स्वर्ग है नरक भी , बाहर कुछ भी नहीं - मिल्टन ने कहा था. सच तो ये है - कायरता (अपनी कमजोरी ) स्वीकार लेने में भी कभी एक नशा सा होता है , एक मज़ा सा होता है , एक कोम्फोर्ट ज़ोन है ये जिसमें से निकलने का मतलब बहुत कुछ खो देना है. इसके लिए शायद पाने की तमन्ना इतनी गहरी हो जैसे एक पागाल आशिक का पेशन ... !!!
--- Just 3 lines -
Sincerely Passionately
Truly madly deeply
Try to Wake up Buddha within :)
Do I need to say anything about the quality of matter?? :)
tc!
बढ़िया है यार...एकदम उम्मीद है इसमें तो...
इससे कहो, यूं ही लिखता रहे, सोचता रहे, फिर लिखता रहे और पुरजा पुरजा उड़ाता रहे...
सृजन के ज़रूरी आयाम हैं ये। हर रचना का निर्माण ईंट-गारे से बननेवाले मकान की तर्ज पर नहीं होता न...
हम सबके भीतर बैठा है एक कायर और दूसरे कोने में उसका दुश्मन साहस भी। ढूंढोगे तो दूसरा वाला भी मिल जाएगा। कहीं गया नहीं, यहीं पर है। चुपा बैठा। लेकिन उसे देखने और ढूंढने की तुम्हारी नजर उम्दा है। सच।
@ संजय भास्कर जी
धन्यवाद!!
@ रानीविशाल जी
धन्यवाद!!
@समीर जी
आपके शब्दो ने हमेशा एक साहस दिया है.. और पूरी ईमानदारी के साथ मन्थन की कोशिशे जारी रहेगी..
@Dimps
So nice of you to say that.. Thank you!!
@प्रवीण जी
zahir को मैने हिन्दी मे ’ज़हीर’ ही लिखा.. वो ’ज़ाहिर’ भी हो सकता था.. धन्यवाद आपका इस ब्लाग पर आने के लिये.. आपकी बुधवारीय पोस्ट्स अच्छी दोज़ेज़ दे जाती है मुझे..
@Dimple
ये बेचैनी तो बहुत कामन है, हम सबके आस पास.. हम सबके अलग अलग चोलो मे छुपी हुयी..
@Somyaa
कायरता स्वीकारने के मैने दो बहुत अच्छे उदाहरण देखे है.. गाँधी जी ने अपनी आटोबायोग्राफी की प्रस्तावना की शुरुवात इस लाईन के साथ की - मोसो कौन कुटिल, खल, कामी
और ब्लागजगत के मेरे एक हीरो ज्ञानदत्त पाण्डेय जी भी आज इच्छाशक्ति की माग करते हुए दिखते है..
http://halchal.gyandutt.com/2010/03/blog-post_26.html
@अजित जी
आपका मेसेज उस तक पहुचा दिया जायेगा :)
@मनीषा
खोज जारी है.. अवश्य मिलेगा॥
विचार पीछा नही छोड़ते ... मौत और विचार साथ साथ ख़त्म होते हैं ...
बहुत सुन्दर और सच्चा दर्शन.
bahut sashakt lekhan ..
meree soch ye hai ki kabhee hamare sanskar kabhee hamaree chetana sayyam ka ankush laga detee hai jo vichalit kar jata hai hame kuch samay ke liye.......dishaheenata bhee kayarta kee sanghya pa letee hai..........
aasheesh aur shubhkamnae........
Behad sashakt lekhan hai aapka!Mai stambhit hun!
मुझे लगा कि मेरे बारे में लिखा है...पता नहीं.
बहुत सुन्दर और सच्चा दर्शन.
लिखा और फ़ाड़ के फ़ेक दिया। बहुत खूब!
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