Sunday, March 14, 2010

वो अधेड़ तन्हा आँखें!!

lonely eyes

 

वो एक जोडी तन्हा आँखें,
खिड़की की उस जानिब से
हर राहगुजर मे कुछ
ढूढती रहती हैं……

और उनके पीछे रखी टीवी के
चैनल्स बदलते रहते हैं,
बेटा टीवी के रिमोट से खेल रहा है,
और वो आँखे अपनी यादो के रिमोट से…

अधेड़ उम्र है उन आँखो की,
किचन मे दूध के साथ
कुछ जले हुए सपने हैं,
कुछ सच्चाईया है, जो खुली खिड़की
से भी बाहर नही आती…
कुछ अन्तरंग लम्हे, जो वो शायद
खुद ही भूल गयी हैं….

उन आखो मे ज़िन्दगी से शिकायते हैं
और बेतरतीब से किये गये काफ़ी सवाल..
बाते हैं, ढेर सारी
जो वो जाने अन्जाने बोल ही जाती हैं……

वो मुझे एकटक देखती रहती हैं……
कुछ अनबोला सा बोलती रहती हैं……
मै आँखे नही मिलाता……

बस अपनी खिड़की बंद कर देता हू….

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कई बार कविताये/कहानियां कनक्लूज़न (conclusion) नही दे पातीं क्यूकि उनका कवि/लेखक या तो कायर होता है या कनफ़्यूज़्ड…

हमे पसरे हुए अगर कोई मोराल ओफ़ द स्टोरी दे दे तो ठीक……लेकिन ऐसे मोड पर लाकर छोड़ दे, जहाँ से आगे का रास्ता लिखने वाले को पता ही न हो और पढने वाले को खुद ढूढना हो…… तब ऎज़ अ रीडर, दिमाग कि धज्जिया उड जाती है। ऐसी कुछ कहानियो, कविताओ और फ़िल्मो ने मुझे कई रातो जगाया है……

ये आँखें मेरे सामने वाले फ़्लैट मे ही रहती है और अक्सर मैने इन्हे खिड़की पर ही बैठा हुआ देखा है। दिन भर, उसी खुली हुई खिड़की पर…… कभी कभी फ़्रस्टियाता हू तो सोचता हू कि इस हाउसवाइफ़ के लिये, ३५+ ज़िन्दगी के मायने क्या होते होंगे और वो भी बाम्बे जैसे शहर मे जहाँ हर जगह एक आईडेन्टिटी क्राईसिस है……

खिड़की बंद करने के अलावा मैं कुछ भी नही कर पाता…कुछ भी नही…

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18 comments:

Chandan Kumar Jha said...

खिड़की बंद करने के अलावा मैं कुछ भी नही कर पाता…कुछ भी नही…


और किया भी क्या जा सकता है……………………

रचना अच्छी लगी । nice

Udan Tashtari said...

ठीक ही किया खिड़की बंद कर...बढ़िया रचना.

रानीविशाल said...

Aapane shayad ek hi khidaki par dhyaan diya janaab ...aaj kal ke daur me aisi kitani khidakiya aur kitani aankhein mil gaaegi jinake liye karane ko koi vikalp na hoga...
bahut bhadiya kavita!!
Shubhkaamnaae.

Apanatva said...

aksham anubhuti ke malik hai aap........
Varna Mumbai me kaun kiskee parvah karata hai ?
Vaha to jindgee bhagatee nazar aatee hai.....ek ek second mayne rakhata hai.
acchee lagee aapkee rachana.....

डॉ .अनुराग said...

हर ईमारत में कई खिडकिया है .कई चेहरे ....कुछ अबोले .कुछ बोलते.....बीतते वक़्त के साथ बस चेहरे बदलते है .खिडकिया वही रहती है

रंजू भाटिया said...

क्या खिड़की आपने वाकई बंद की? अक्सर वो खिड़की फिर यूँ लफ़्ज़ों में खुल जाती है और वह सवाल यूँ ही जाने अनजाने हो जाते हैं ..सहज अभिव्यक्ति हैं इस में भावों की जो दिल को छु गयी शुक्रिया

हरकीरत ' हीर' said...

पंकज जी वो अधेड़ तन्हा आँखों का रिमोट कहीं आपके पास तो नहीं .....???
कभी लौटा आइयेगा ....दर्द कम हो जायेगा .....!!

कुश said...

खिडकियों के बारे में सोच रहा हूँ इस वक्त..

ब्लॉग को थोडा मेनेज कर लों.. कंटेंट सेकेंडरी हो रहा है..

Asha Joglekar said...

आपकी ये पोस्ट दिल को छू गई । खिडकी बंद क्यूं कर दी । शायद आपको देख कर उन आंखों को सुकून मिलता हो । मुस्कुराकर नमस्ते कर देते उनका दिन बन जाता ।

अनामिका की सदायें ...... said...

beshak aapne khidki band kar di...lekin kaha.n band kar paaye vastav me apne dimag ki khidki jo uthal puthal macha gayi aur kalam se kagzo per nishaan apne khule rehne ke chhod gayi.....

behtareen rachna...

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

@कुश

ध्यान दिलाने के लिये शुक्रिया... बदल डाला.. :)

@अनामिका की सदाये

आप पहली बार हमारे ब्लाग पर आयी है, शुक्रिया

रश्मि प्रभा... said...

वो एक जोडी तन्हा आँखें,
खिड़की की उस जानिब से
हर राहगुजर मे कुछ
ढूढती रहती हैं……

bahut khoob likha hai

सु-मन (Suman Kapoor) said...

अधेड़ उम्र है उन आँखो की,
किचन मे दूध के साथ
कुछ जले हुए सपने हैं,
कुछ सच्चाईया है, जो खुली खिड़की
से भी बाहर नही आती…
कुछ अन्तरंग लम्हे, जो वो शायद
खुद ही भूल गयी हैं…. उन आखो मे ज़िन्दगी से शिकायते हैं
और बेतरतीब से किये गये काफ़ी सवाल..
सजीव और मार्मिक रचना

स्वप्न मञ्जूषा said...

पंकज,
एक हक़ीकत को कविता का जामा पहनाया है तुमने..
ऐसी खिड़कियाँ तो हर गली हर कूचे में होंगी...जहाँ इंसानी वजूद जले हुए सपनों में घुल जाता है..
लेकिन वो मिट नहीं पाता , ऐसे ही किसी मन की खिड़की में समां जाता है...और कागज़ पर बिखर जाता है...
बहुत सुन्दर लगी तुम्हारी कविता...बहुत सुन्दर का अर्थ बहुत सुन्दर...!!!

संजय भास्‍कर said...

क्या खिड़की आपने वाकई बंद की? अक्सर वो खिड़की फिर यूँ लफ़्ज़ों में खुल जाती है और वह सवाल यूँ ही जाने अनजाने हो जाते हैं .....

अनूप शुक्ल said...

बेटा टीवी के रिमोट से खेल रहा है,
और वो आँखे अपनी यादो के रिमोट से…

वाह! बहुत खूब!

विवेक रस्तोगी said...

बहुत अच्छे ऐसी बहुत खिड़कियाँ हैं मुंबई में और लगभग सबकी एक ही कहानी है ।

संजय भास्‍कर said...

आज आपकी कविता दुबारा पढी, सचमुच जीवन के सच को आपके बडी खूबसूरती से उद्घाटित किया है। एक बार फिर सेबधाई स्‍वीकारें।