सुना है यादें संजोकर रखी जाती हैं इस गतिमान पर स्थिर ह्रदय में.....
मेरी भी कुछ यादें उससे जुड़ी हुई हैं। न जाने हम कब तक समंदर के किनारे बैठे रहते थे, हर एक लहर को अपने पास आते और थोड़ा सा भिगोकर जाते हम साथ बैठे देखा करते। वो रेत पे मेरा नाम लिखती और में उसका। और अगली सुबह हम दोनों का नाम समंदर में समां चुका होता था। यह विशाल समंदर हमें पूरे दिन निहारा करता था। हमारी प्यारी बातें शांत भाव से सुना करता , हमारे झगडे पे मुस्कराता, वो मुझे घूंसे मारती और में भागता तो जैसे ये भी उसके साथ मुझे पकड़ने के लिए दौड़ता।
वो मुझे कहती थी की
"पंकज! ये लहरें हमारी बातें सुनने के लिए आती हैं न?"
"नही! ये सारे जहाँ से खूबसूरत इन पैरों में लिपटने आती हैं और इस ज़न्नत में मिल जाती हैं।"
वो मुझे धक्का देकर गिरा देती और खिलखिलाते हुए कहती
"धत! बेवकूफ"
और हम दोनों हंसने लगते। पर न जाने क्यों वो बार -बार मुझे हमारी दोस्ती ही याद दिलाती। क्या ये सब प्यार नही था? दोस्ती भी तो प्यार का दूसरा नाम है। एक दिन हिम्मत करके मैंने उससे कहा की "मै तुमसे प्यार करता हूँ"। उसने बड़े रूखे मन से टाल दिया। मैंने फिर कहा उसने अनसुना कर दिया। फिर धीमे से बोली
"तुम मेरे सबसे अच्छे दोस्त हो और में तुम्हारी दोस्ती खोना नही चाहती हूँ "।
मैंने अपनी पलकें बंद कर ली आँसूओ को आंखों में ही रोकने के लिए, पर एक-दो आंसू बाहर छ्लक ही आए।
दरअसल.. वो किसी मुकाम पे पहुँचाना चाहती थी और वह समझती थी की मेरा प्यार उसके पैरों में बेडियाँ दाल देगा। वो भूल गई की उसके मरे हुए आत्मविश्वास को मैंने ही साँसें दी थीं। मैंने ही उसे वो सपना दिखाया था। मै वहाँ से उठकर चला आया। अगले दिन उसने समन्दर किनारे आना छोड़ दिया। कुछ दिन बाद शहर भी छोड़ दिया।
अब समन्दर की रेत पर उसी का नाम था क्यूंकि मै तो उसी का नाम लिख सकता था।
इन रेतों में मेरा नाम लिखने वाला कोई नहीं था, कोई नहीं... ।
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ज़िन्दगी की किताब पर धूल जम गयी है……न जाने कबसे अपने बन्द कमरे की खिड्किया भी नही खोली…ताज़ी हवा से शायद अब दम घुट जाये… कम्फ़र्ट ज़ोन से बाहर आने का डर भी है……
मेरे काम की काफ़ी चीज़े मेरे तकिये के पास ही रहती है…बची कुछ चीज़े बेड से सटी हुई मेज पर… कुछ खास नही, बस ’अहा ज़िन्दगी!’ के कुछ पुराने एडीशन्स, ’क्रेस्ट’ की कुछ कापिया, चन्द किताबे जैसे अभी ’जापानीज वाईफ़’, ’कपोचीनो ड्स्क’,’स्लो मैन’ और ’फ़्रेन्च लवर’, मेरी कुछ बूढी डायरिया, पिता जी का एक पुराना पत्र, मेरे कमरे की चाभिया, वालेट और हमारा कम्पनी आई कार्ड…
खिडकी मेज के बगल मे है, खुलने से हवा चीज़ो को इधर-उधर कर सकती है…एक ऐसी ही हवा इस वीकेन्ड आयी थी……ज़िन्दगी की किताब के पन्ने इधर उधर कर गयी..ये भी भूल गया कि किस पेज पर था…कन्शन्ट्रेशन प्राब्लम मेरे साथ हमेशा से है…
२-३ दिन से पूरा साहित्यमय हो गया हू..और कुछ पुरानी पोस्ट्स खुल गयी है…… जिन्हे ऐसे ही हवाओ से छुपा कर रखा था….
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21 comments:
ओह!! बहुत भावपूर्ण...डुबो ले गये..देखिये, सही पन्ना खुला हो इस हवा में..शायद कुछ अर्थ दे जाये!
'मॅन से ताल' 'मन से टाल' कीजिए और 'पेर' को 'पर'
कभी कभी लबालब भरे भावपूर्ण लेखों पर वर्तनी सुधार की सलाह देते अपने उपर झुँझलाता हूँ।
लेख अत्युत्तम है, कोई दो राय नहीं।
:)
कान पकडे हुए है हमने अपने..आज कितनी बार तो देखकर पोस्ट की थी, फ़िर रह गयी...आप कैसे इतनी छोटी छोटी गलतिया भी ढूढ लेते है...
एक बार फ़िर से आपका आभार और माफ़ी, अपनी बेवकूफ़ियो के लिये :)
तुम्हारी पोस्ट दिल को छू गयी दोस्त. इंफार्मल होने के लिये माफी पर अपने जैसा देख कर भी दूरी बनाये रखना मेरी फितरत में नहीं है.
बस इतना कहूंगा - खाना छोड देना, काम करना छोड देना , पीना छोड देना , प्यार करना भी छूट जाये शायद वक़्त के साथ पर कभी लिखना मत छोडना.
तुम्हारी पोस्ट दिल को छू गयी दोस्त. इंफार्मल होने के लिये माफी पर अपने जैसा देख कर भी दूरी बनाये रखना मेरी फितरत में नहीं है.
बस इतना कहूंगा - खाना छोड देना, काम करना छोड देना , पीना छोड देना , प्यार करना भी छूट जाये शायद वक़्त के साथ पर कभी लिखना मत छोडना.
बहुत ही भावपूर्ण और सुंदर पोस्ट....
आभार...
बहुत ही भावपूर्ण और सुंदर पोस्ट....
आभार...
पंकज जी ...ये दर्द मुबारक हो ....ये आपकी ज़िन्दगी की एक नई शुरुआत है .....इतनी बढ़िया पोस्ट कि बस आह और वाह निकलती है ....आपके हुनर का पहला रूप देखा ....यूँ ही इन्तजार रहेगा .....!!
shandar bandhu.
vartani sudhar ke liye ham bhi office me apne varishht patrakaro se daant khate rahte hain lekin sudharna to padega hi, isliye aap bhi sudhaarein
;)
ret , hawa , khidki , samander ki lehrein , pyar ya dosti , akelapan , zindagi ... kya kuch nahi sameta ismein... kya kehna baaki hai??... nahi shayad bahut kuch kehna baaki hai... ye to zindagi ki kitab ke ek panne ka ek paragraph hi tha :)
...
apni diary ke pichle pannon se aise hi yaadgar palon ke moti nikalte rehna ... ye bahut hi sunder aur anmol hain bilkul tumhari tarah (nahi) hain :P
एक बहुत अच्छी पोस्ट दिल को छू गयी
@समीर जी
जी बस आख, नाक, कान सब रेडी है.. अर्थ मिलते ही सूचित करता हू :)
@हरकीरत जी
कोटि कोटि धन्यवाद :)
@आहन्ग :) लेकिन बहुत तडपाती है ये..एक अज़ीब सी तलब है..
@सन्जीत साहब
परसो भी गिरिजेश साहब ने फ़ट्कार लगायी थी, सोचा आज बच जायेगे, लेकिन.. :(
@सोम्या
मोसो कौन कुटिल खल कामी ;)
@महफ़ूज साहब और रचना जी
धन्यवाद आपका कि आप लोग यहा पढारे..
waah.....bhawpurn lekhni
hmm aapke yeh ret ke panne kahte bahut kuch ankaha mann ka bhaav aur woh dabe eshaas bhi jo adhure rahe ,.
बहुत सुंदर पंकज, लगता है चोट गहरी है तभी दर्द दिल से निकला है । पर आज अगर खिडकी खुली है तो कुछ अच्छा ही होगा । इस पन्ने पर शायद दोनों का नाम हो ।
आपको व आपके परिवार को होली की हार्दिक शुभकामनायें
शायद अब वो भी ऐसा ही सोचती हो। अब जबकि बहुत देर हो चुकी है। तेज दौड़ने के चक्कर में हम क्या-क्या पीछे छोड़ आए हैं, हमें खुद भी पता नहीं चलता। तब सिर्फ एक ही चीज नजर आती है- दौड़।
अच्छी लगने पर भी क्या लिखें समझ नहीं आ रा हँ है.. सिर्फ सूचित करने के लिए कमेन्ट कर रहे हैं.. :)
लहरें बातें सुनने के लिये आती हैं।
नही भाई पैरों से लिपटने के लिये आती हैं।
क्या बात है! सुन्दर!
hey pankaj.... was randomly surfing through ur blog... इस पोस्ट पे अटक गयी... और इसे पढ़ कर गुलज़ार साब की एक त्रिवेणी याद आ गयी...
तमाम सफ़हे किताबों के फड़फडा़ने लगे
हवा धकेल के दरवाजा़ आ गई घर में !
कभी हवा की तरह तुम भी आया जाया करो !!
बाकी फीड रीडर में अभी एड करती हूँ आपको... कुछ पुराने पन्ने और पढ़ने हैं आपके ब्लॉग के :-)
वाह! ये तो पहली पोस्ट है। जय हो!
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