Sunday, February 8, 2009

एक फ़ोन कॉल और एक बेनामी रिश्ता

“पंकज! उनका कॉल आ रहा है, मैं तुम्हे १० मिनट के बाद फ़ोन करती हूँ…”
“हम्म....ठीक है।”

लेकिन अभी तक ह्रदय में ‘उनका’ शब्द गूंज रहा था. मैं ‘पंकज’ ही रह गया और उसे एक रिश्ते ने ‘उनका’ बना दिया. वही सोंचते सोंचते मैं फ़ोन रखना भूल गया और उसने शायद ‘उनका’ कॉल पिक कर लिया।

“हेलो !!”
मैं कुछ नहीं बोल सकता था क्यूंकि मुझे पता था की ‘वो’ कॉल पर है और मैं उसकी इस नई ज़िन्दगी में कोई परेशानी पैदा नहीं करना चाहता था।

“हेलो !! क्या हुआ? बोलते क्यूँ नहीं..”
इन पंक्तियों में इतना प्यार था, जिन्होंने मेरे एक ‘ब्लू लागून’ और एक बियर के नशे को एकदम गायब कर दिया। मेरा दिल जोर जोर से धड़कने लगा।

“ऐ क्या हुआ??”
मैंने फ़ोन रख दिया। उसको वापस कॉल किया और उसको बताया की लाइन पर ‘वो’ नहीं था ‘मैं’ था…

उसने पहले ‘उनसे’ बात की फिर मुझसे, और मैंने गुस्से में न जाने क्या क्या बोला उसे ?

४ साल पुराना रिश्ता अभी 'बेनाम’ हो चुका था और मेरे पास हमेशा की तरह कहने को कुछ भी नहीं था।

7 comments:

vijaymaudgill said...

उपाध्याय जी पहली बार ब्लाग पर आया और हिल गया। बहुत ही बढ़िया लिखा आपने। सच में बहुत ख़ूब।

अनिल कान्त said...

बहुत अच्छा लिखते हैं आप ...

Gyan Dutt Pandey said...

भैया, किसी जमाने में हम भी "मैं" "वो" की बातें सोचते थे।


यह पढ़ कर वह समय याद आ गया। अन्यथा अब तो व्यग्रता मिटाने को विदुर नीति निकाल बैठते हैं! (जीवन की प्राथमिकतायें कैसे बदलती हैं।)

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

@ Vijay ji, Anil ji

Dhanyawaad!!!

@Gyan Ji

ha ha!! vidur neetiyan humein bhi sikhaye kuch. Wasie hum bhi jeevan ke badalte rangon ko dekh rahe hain. Abhi tak samjah nahin aayi hai, ab to hansi aati hai jab bhi ye humari samajh ke vipreet kuch karti hai. Khud se hi bolte hain.. "Beta!! Phir jhel gaye :)"

Anuj said...

kisi bade aadmi na kaha hai ...jis insaan ki biwi achi hoti hai woh ek sukhi jeevan vyateet kerta hai..n jiski achi nahi hoti woh philospher ban jata hai....her baar yeh keh ker ki "beta fir se jhel gaye" ek din tum bahut bade philospher ban jaooge aur tumahri kahi gayi baaten fir se koi meri tarah kisi ke blog per likh raha hoga......

मनीषा पांडे said...

मैं विजय और अनिल जी से सहमत हूं। तुम सचमुच बहुत अच्‍छा लिखते हो, बहुत ही अच्‍छा। वैसे वो ट्रैवेलॉग का आइडिया याद है ना? Never Forget, तुम सचमुच बहुत अच्‍छा लिखते हो।

अनूप शुक्ल said...

अच्छा लिखने की बात से सहमत हो लेते हैं फ़िलहाल तो!