Tuesday, November 9, 2010

’ट्रस्ट’ इज ब्लाईंड…

Trust_is_blind कभी कभी मुझे लगता है कि लडकियों का यूं उम्र भर एक पहेली रहना भी ठीक है… उनकी पहेलियों को समझते बूझते ये ज़िंदगी कब गुज़र जाती है शायद पता नहीं चलता वरना ज़िंदगी को यूं कुछ सुलझे हुये सवालों और बहुत ढेर सारी समझदारी के साथ, धीरे धीरे गुज़रते देखना भी बहुत तकलीफ़ देता है… जैसे आपको अपने मरने का दिन और वक्त पता है और आप हर लम्हे एक एक तत्व को अपने आपसे अलग जाते हुये देखते हैं…  जैसे आप किसी पटाखे को जलते हुये देखते हैं… धीरे धीरे पलीते में लगी आग बारूद तक पहुँचती है और उतनी ही धीरे धीरे आपकी आँखें आपके पूरे शरीर के साथ साथ उसके फ़टने का इंतजार करती हैं… फ़टने का इंतजार?…  खुद के फटने का इंतज़ार! अभी… बस अभी।

 

……लेकिन कभी कभी ये सब जानते हुये भी मैं इसे समझना चाहता हूँ। खासकर उस भाग को जहाँ ज़िंदगी ’होकर भी नहीं रहती’। जहाँ एक अधेड उम्र का गंवई इंसान कैंसर की लास्ट स्टेज में होते हुये रोज जीता रहता है और उसके और उसकी पत्नी के सिवा ये सबको पता होता है कि पटाखा फ़टने वाला है… सब पलीते को जलते देखते रहते हैं…  धीरे धीरे…

जहाँ उसकी गंवई पत्नी  आपकी समझदारी पर विश्वास करते हुये किसी डॉक्टर की गंदी हैंडराईटिंग में लिखा दवाईयों का एक पर्चा आपकी तरफ़ बढाती है और पूछती हैं कि इनसे ये ठीक हो जायेंगे न? और तब आप सच और झूठ की परिभाषायों को रिवाईज करना चाहते हैं… ’ठीक’ होने को समझना चाहते हैं… तब आप ज़िंदगी की ऎसी किस्सागोई को समझना चाहते हैं… या समझते हुये भी नहीं समझना चाहते हैं

उसी मरे हुये पर्चे (जिसकी अब कोई जरूरत नहीं) को देखते हुये मुझे याद आता है कि बचपन में मुझे मरना बेहद पसंद था… मुझे मरने में एक रोमांच दिखता था। अपने मुहल्ले के बच्चों के साथ खेले जाने वाले छोटे छोटे नाटकों में मैं मर जाता था और मरकर सबको मेरे लिये रोते देखता था… सबको मुझे ढूंढते देखता था। मुझे लगता था जैसे मेरे ’होने’ से जो नहीं हो सकता था वो मेरे ’न होने’ से हो रहा था और ये मेरे रोमांच को बढाता था।

मैंने ये भी देखा कि किसी ऊँचाई से नीचे देखते हुये मैं कभी ऊँचाई से नहीं डरता था जैसे लोग डरते हैं… मैं ’खुद’ से डरता था क्योंकि ऊँचाई से गिरने के सिर्फ़ एहसास में जो रोमांच था वो मुझे अपनी तरफ़ खींचता था और मैं डरकर पैर पीछे कर लेता था। मेरे आस पास के लोग इसे मेरा ऊँचाई से डरना ही समझते थे जैसे वो मेरे ट्रेन के डर को समझते थे क्योंकि प्लेटफ़ार्म पर जब ट्रेन आती थी, मैं सबसे पीछे खडा पाया जाता था। लोग कभी जान ही नहीं पाते थे कि मैं खुद से डर रहा हूँ… दौडती हुयी ट्रेन मुझे अपनी तरफ़ खींच रही है… और मुझे याद है कुछ सालों बाद जब मेरी समझ भी कुछ साल की हो गयी, तब मुझे यह सोचकर बडा आश्चर्य होता था कि मौत और ज़िंदगी में कौन मौत है और कौन ज़िंदगी… ये जो हम रोज जीते हैं वो ज़िंदगी है या ब्याज पर ली हुयी इन साँसों को यहाँ सौंपने के बाद जब हम कहीं दूर क्षितिज में चले जाते हैं वो ज़िंदगी है…

 

उस पर्चे को हाथ में लिये मैं उन दो क्षितिजों के बीच झूल रहा था… और वो दोनो क्षितिज धीरे धीरे एक दूसरे के पास आ रहे थे… और मैं उन दोनो के बीच फ़ंसता जा रहा था… दवाईयों के नामों से बनी एक अंधी सुरंग में…

’प्यार’ अंधा हो न हो, ’विश्वास’ अक्सर अंधा होता है… ट्रस्ट इज ब्लाईंड…

14 comments:

Deepak chaubey said...

मेरे एक मित्र जो गैर सरकारी संगठनो में कार्यरत हैं के कहने पर एक नया ब्लॉग सुरु किया है जिसमें सामाजिक समस्याओं जैसे वेश्यावृत्ति , मानव तस्करी, बाल मजदूरी जैसे मुद्दों को उठाया जायेगा | आप लोगों का सहयोग और सुझाव अपेक्षित है |
http://samajik2010.blogspot.com/2010/11/blog-post.html

Asha Joglekar said...

Trust is blind and we seek it all the time,so as to trust it blindly

anjule shyam said...

’प्यार’ अंधा हो न हो, ’विश्वास’ अक्सर अंधा होता है… ट्रस्ट इज ब्लाईंड..........
वाकई..........होना ना होना सबसे बड़ा सवाल है......इनके धागे इतने उलझे हैं कि सुलझाते सुलझाते उम्र गुजर जाति है....पोस्ट बहुत प्यारी है....

निर्मला कपिला said...

श्याम जी की बात से सहमत। अच्छी लगी पोस्ट। धन्यवाद।

प्रिया said...

प्यार और विश्वास दोनों भ्रम है और मजबूरी भी शायद .....जिंदा रहने की मजबूरी....सही मायनो में हम सारे मर के ही जीते हैं .....जिंदगी जीने की रवायतें तो हैं यहाँ, शायद मौत को जीने की रवायत भी हो वहाँ

richa said...

कभी कभी बहुत ज़्यादा समझदारी भी बुरी होती है... ज़रूरी है थोड़ी नादानी - नासमझी बनी रहे...
निदा जी ने कितनी सही बात कही है -
"दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है
सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला"


हाँ विश्वास अँधा होता है और अगर नहीं होता तो विश्वास कहाँ होता फिर ? सोचो क्या किसे बात पर आप विश्वास और अविश्वास दोनों एक साथ कर सकते हैं ?

ज़िन्दगी के प्रति ये विश्वास ही उसे जीना आसान बना देता है शायद...

shikha varshney said...

मुझे तो समझ में नहीं आ रहा कि क्या कहूँ.कभी कभी सब कुछ दीखते हुए भी हम देखना नहीं चाहते ,और अंधा विश्वास करने को ही जी चाहता है वही अंधा विश्वास उस घडी हमें जीने के लिए संबल देता है.
और प्यार की सतह पर ही वह विश्वास जन्म लेता है शायद इसलिए प्यार और विश्वास दोनों ही अंधे हैं.

प्रवीण पाण्डेय said...

यदि देखा जाये तो विश्वास ज्ञान का व जीवन का आधारभूत स्तम्भ है। ज्ञात नहीं रहता कि आगे क्या होगा पर जीवन तो बढ़ना ही है। विश्वसनीय को खोज निकालना महत्वपूर्ण कार्य है।

Tarun said...

पंकज, वाकई में प्यार के साथ साथ ट्रस्ट भी अंधा होता है, पटाखे से याद आया बचपन में यही ट्रस्ट मुर्गा छाप पटाखों को लेखर बना रहता था जो कई बार आग दिखाते ही टांय टांय फुस्स हो जाता था।

मुझे लगता है पलीते शब्द नही होता है शायद आप पतीले कहना चाह रहे हों जिसका मतलब एक बर्तन होता है।

डॉ .अनुराग said...

मन है न साला .......किसी का नहीं हुआ है आज तक........कुछ रिश्तो की बाबत तो ओर बागी हो जाता है

कंचन सिंह चौहान said...

प्यार हो या विश्वास, अंधा होना जीने की ज़रूरत है। वो गँवई औरत जिसे नही मालूम कि पति को क्या हुआ है उससे कम मजबूरी उनकी नही होती जिन्हे पता होता है कि हमे कैंसर है और हमें उतना जीना ही है, जितना जीना है और फिर जीते भी नही रहना है।

सुख हो या दुःख मुझे लगता है कि कुछ भी स्थिर नही होता। मरने के खौफ में भी कितने दिन रहा जाता सकता है और मरने वाले के दुःख में भी कितने दिन रोया जा सकता है। जब से ये हक़ीकत समझ में आई, जिंदगी, मौत का क्रेज़ खतम हो गया।

रोमांच मेरे मन में भी आता था, मृत्यु का सोच कर। ये सोच कर कि सभी छिपे चाहने वाले खुल कर अपने उद्गार देंगे और मैं देखूँगी कि कितने लोग चाहते हैं मुझे ? लोगो के जीवन में मेरी याद रह जायेगी, कितना अच्छा होगा ना रह कर लोगों की यादों में रहना।

पर जबसे खुद के प्रिय लोगो के जाने के बाद भी अपनी जिंदगी को वैसे ही चलते देखा, वैसे ही हँसते, उत्सव मनाते तो समझ में आया जिंदगी और मौत मात्र एक घटना है। जिसे होना ही है और पीछे वालो को जीना ही है। ना किसी के जाने से हम रुके ना हमारे जाने से कोई रुकेगा।

ईश्वर, प्रेम, विश्वास.... कुछ अंधता बनी ही रहे, तो जीवन जीने का बहाना मिलता रहेगा।

कई दिन से मन में बहुत कुछ चल रहा था, मगर कुछ लिखा नही था। शायद सारा इधर ही उड़ेल दिया।

यूँ भी इस ब्लॉग के लिये बहुत सारे अनलिखी टिप्पणियाँ उधार थी....!!

डिम्पल मल्होत्रा said...

डायरी जैसी इस रचना में कोई छटपटाहट सी छिपी है..ऊन के गोले कि उलझन को सुलझाने कि कोशिश में उसका और उलझता जाना...

Sabi Sunshine said...

I know Turst is blind but you can't keep yourself away without trusting anyone. I would say Trust but be aware not to hurt yourself.

Have yourself a great weekend!
Love
Sabi Sunshine

Shekhar Suman said...

मुझे समझ नहीं आ रहा क्या लिखूं इस पोस्ट पर... शब्दों की जादूगरी उतनी आती नहीं तो सीधे शब्दों में बस इतना ही कहूँगा.... कई महीनों के बाद इतनी अच्छा कुछ पढ़ा.... और जल्दी आ जाईये, जहाँ भी हैं... आपकी पोस्ट की बहुत याद आती है...