Friday, November 5, 2010

’सुख’ के कुछ निर्मल चीथड़े…

 

 

 

 

 

8 comments:

PD said...

वाह.. अभी सिर्फ पहला ही सुना हूँ.. बहुत बढ़िया है.. बाकी दोनों बाद में सुनते हैं..

abhi said...

सुबह से दो बार सुन चूका हूँ दोस्त..
लेकिन अब तक समझ में नहीं आया की लिखूं क्या...

प्रवीण पाण्डेय said...

सुनकर बहुत अच्छा लगा, मुझे भी समझ नहीं आ रहा है कि क्या लिखूँ।

Himanshu Pandey said...

सुनते हुए लिख सकता हूं ? शायद नहीं !‌
सुनने के बाद? शायद नहीं !‌
सुनने के बाद कुछ कहने का मन करताहै, लिखने का नहीं !
टिप्पणी में कोई प्लेयर लगाया जा सकता है क्या ?

बेहतरीन, आभार !‌

डॉ .अनुराग said...

love this.....

abhi said...

ये तीन अगर मुझे भेजने में कोई दिक्कत न हो तो मेरे ई-मेल पे सेंड कर देना दोस्त.

richa said...

पिछले क़रीब दो महिनों से निर्मल वर्मा की दो किताबें बुक शेल्फ़ की शोभा बढ़ा रही हैं... एक दोस्त की रिकमेन्डेशन पे ले कर आये थे पर अभी तक पढ़ने की फ़ुर्सत नहीं मिल पायी है... अब सोच रही हूँ काश की सुख के वो चिथड़े भी कोई ऐसे ही पढ़ के सुनाता रहे और मैं आँख बन्द किये सुनती रहूँ... निर्मल आनंद में डूबी हुई :)
Thanks for reading out such awesome pieces pankaj !!

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

बस सुनती चली गयी! क्या कहूँ समझ में नहीं आ रहा. सुनाने के लिए धन्यवाद.