गैस पर रखी चाय खौल रही थी और वो फ़िर कहीं चला गया था…
इसी तरह से वो अक्सर कहीं भी चला जाता था… कभी भी। कभी कभार तो वो कुछ कह रहा होता था और अपनी बात कहते कहते ही वो कहीं चला जाता था और कई बार तो कुछ कहता भी नहीं था…
रोज सुबह उठकर सबसे पहले वो उस ’चले गये’ को ढूंढकर लाता था फ़िर दोनों साथ साथ एक चाय पीते थे और ऑफ़िस जाने की तैयारियां करते थे… ऑफ़िस जाते जाते रास्ते में वो फ़िर से कहीं चला जाता था। जाने कब लौटकर आता था…। उसका यूं जाना उसके अलावा कोई और जान भी नहीं पाता था।
वो यूं कहाँ और क्यूं जाता था.. ये वो खुद से भी नहीं पूछता था… खुद से पूछना उसे आता भी नहीं था… किसी ने उसे ये विधा सिखायी भी नहीं थी… और तो और कभी उसने किसी को खुद से कुछ पूछते देखा भी नहीं था। इसलिये अक्सर ऎसे मौकों पर वो मौन पाया जाता था…
लोग कहते रहते थे वो मौन रहता था… फोन बजते रहते थे और वो मौन रहता था। कभी सालों बाद उसे किसी रिश्ते की याद आती थी तो वो उसे निभा आता था और फ़िर अगले कई सालों तक वो उस रिश्ते से कहीं दूर चला जाता था। कई रिश्ते उसे भी भुला चुके थे जहाँ से वो कभी चला आया था या वे खुद चले गये थे।
वो किताबें पढते पढते उनमें चला जाता था। उसे यूं समय में आना-जाना बेहद पसंद था और बिना किसी टाईम मशीन के ये किताबें ही उसे समय के इधर-उधर पहुँचाती रहती थीं। चेखव की ’डेथ ऑफ़ अ क्लर्क’ के क्लर्क के साथ साथ वो भी सोचते सोचते जीता रहता था और अगली सुबह जब वो क्लर्क सोफ़े में मृत पाया जाता था, तो वो कहानी तो खत्म हो जाती थी लेकिन वो उसी कहानी में कहीं और चला जाता था… शायद स्वयं ही चेखव को ढूंढने ।
वो कभी कभी उसे झकझोरते हुये उससे पूछती थी कि ’ऎसा क्यूँ करते हो? यूँ कहाँ चले जाते हो?’
’इसमें भी एक नशा है… यूं कहीं भी चले जाने में… पढते हुये, लिखते हुये, सोचते हुये… ’कहीं’ और जाते हुये ’कहीं’ और चले जाना’
तब वो चुपचाप उसे देखती रहती कि एक दिन वो ऎसे ही उससे भी कहीं दूर चला जायेगा
… और वो …वो कुछ सोचते हुये किचेन में चाय चढाने के लिये चला जाता।
41 comments:
आपका लिखा तो-तीन बार पढ़ चूका हूँ. कभी समझ में नहीं आता, कभी समझ में आता है तो टिपण्णी नहीं सूझती. आज भी कुछ समझ में नहीं आ रहा की क्या comment करूँ , पर सोचा अब आया हूँ तो कुछ तो लिख ही दूं ...
Shayad is tarah har wyakti kabhi ,kabhi 'chala' jata hai...lekin is hadtak nahi....is had tak to aise wyakti pariwar aur samaj dono se kat ke,akele rah jate honge,haina?
’इसमें भी एक नशा है… यूं कहीं भी चले जाने में… पढते हुये, लिखते हुये, सोचते हुये… ’कहीं’ और जाते हुये ’कहीं’ और चले जाना’
तब वो चुपचाप उसे देखती रहती कि एक दिन वो ऎसे ही उससे भी कहीं दूर चला जायेगा
… और वो …वो कुछ सोचते हुये किचेन में चाय चढाने के लिये चला जाता।
-kahin ye apne aap aur duniya se bhyagna to nahi hai ya ye koi jindgi se palayan hai...
Aise kahin chale jana bahut si uljhano ko suljha deta h magar har kisi me ye hunar nahi hota... lagta h k aapme hai...
यहाँ मुझे वो एकांत वार्तालाप करता जान पड़ता है.......खैर
बहुत ही अच्छी पोस्ट. मज़ा आ गया पढ़कर....अभी तुमको पिंग किये जी टॉक पर...लेकिन लगता है तुम भी कहीं चले गए हो. एकदम सोलिड पोस्ट यार!
No comments. coz while reading this, PD also went somewhere.
बहुत कम लोग बचे हैं आजकल इस दुनिया में जो इस तरह कहीं चले जाते हैं... कभी फ्लैश फॉर्वर्ड में तो कभी फ्लैश बैक में...
यह पूछना की कहाँ चले गए.... उएह विधा हमने भी नहीं सीखी...
जिसने सीखी है वो अभी तक मिला नहीं
यूं ही चले जाना ...और यह भी एक नशा ...ज़रूर होगा ...
अच्छी प्रस्तुति
उसका यूँ बिन कहे जाना,
हृदय को सालता है,
कौन समझाये जग को,
कि मुझे कौन ढालता है?
पता नहीं क्यूँ इस पोस्ट के किरदार और तुम्हारे "About Me" में बहुत समानता दिखी आज... "एक इंसा है अन्दर छुपा हुआ, कभी कभी छ्टपटाता है, तड़पता है, मुझे पुकारता है…तब उसे यहाँ ले आता हूँ, एक वॉक भी हो जाती है और थोड़ी खुली हवा में सांस भी ले लेता है……"
लगता है ये किरदार भी अक्सर यूँ ही खुली हवा में साँस लेने चला जाता है... कभी भी कहीं भी... जब भी मुखौटा उतार कर ख़ुद से मिलने का दिल करता है...
देखो पढ़ते हुए गया तो मैं कई जगह... लेकिन लिख दूँ तो तुम मंद-मंद मुस्कियाने लगोगे.
वैसे ही मुझे आजकल मेल और मैसेज आने लगे हैं कि मुझमे बदलाव देख रहे हैं लोग... गलत मेसेज चला जा रहा है :) वैसे अच्छी लगी ये पोस्ट. इस इधर उधर चले जाने के चक्कर में बहुत कुछ मिस भी हो जाता है. उससे कहो आस पास भी ध्यान दे बहुत खूबसूरती बिखरी पड़ी है !
बहुत अच्छा लिखा है। पढ़कर लगा कि विनोद कुमार शुक्ल जाकर भी नहीं जाएंगे। :-)
चेखव का नशा सर चढ कर बोल रहा है :)
मैं भी ऐसे ही कहीं भी चली जाती हूँ. कभी किसी दोस्त को दिन में दो-दो बार फोन कर लेती हूँ तो कभी महीनों नहीं करती, वैसे भी फोन पर बात करना मुझे पसंद ही नहीं है... पढते-पढते कविताई सूझने लगती है और लिखने बैठती हूँ तो उसे छोड़ कहीं और चली जाती हूँ. मेरे भी सारे रिश्तेदार मुझे भूल गए हैं, अब तो शायद मेरे बारे में पूछते भी नहीं होंगे... कहीं मेरे बारे में ही तो नहीं लिख रहे थे तुम...
चेखव को ज्यादा मत पढ़ो नहीं तो उसकी दुनिया में चले जाओगे और कहीं वापसी का रास्ता भूल गए तो.
कहां-कहां चले जाते हो! चाय खौल गयी होगी। :)
कुछ समय की ही बात है ...कहाँ तक जा पाओगे ......?
किसी रिश्ते की याद आती थी तो वो उसे निभा आता था और फ़िर अगले कई सालों तक वो उस रिश्ते से कहीं दूर चला जाता था। कई रिश्ते उसे भी भुला चुके थे जहाँ से वो कभी चला आया था या वे खुद चले गये थे।
Aye to Shayad Aj Sabhi ki Sachhai Hai
वो किताबें पढते पढते उनमें चला जाता था। उसे यूं समय में आना-जाना बेहद पसंद था और बिना किसी टाईम मशीन के ये किताबें ही उसे समय के इधर-उधर पहुँचाती रहती थीं।
Aye To Main Hu....
इसमें भी एक नशा है… यूं कहीं भी चले जाने में… पढते हुये, लिखते हुये, सोचते हुये… ’कहीं’ और जाते हुये ’कहीं’ और चले जाना’
Aye Sach Mein Main Hi Hu.....
झप्पी ले लो.. मेरे भाई..
इस तरह का जाना भी एक अलग सुख देता है ...बहुत बढ़िया पोस्ट ..अपनी ही बात नजर आती है हर पंक्ति में ...
तुम्हारे इस पोस्ट को पढ़ते वक्त गिरिराज किराडू की एक कहानी 'एक दिन का स्क्रिप्ट' याद आई... पढना उसे, कहिये तो मेल कर दूँ... वहां भी उस मैं को कई काम करने होते हैं, बहुत कुछ बनना होता है...
चेखव को पढ़िए... शालीनता से कहना उनको बहुत अच्छे से आता था और इशारे से भी
हरि अनंत हरि कथा अनंता ।
कहहिं सुनाहिं बाहुबिधि सब संता ।।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। हार्दिक शुभकामनाएं!
और समय ठहर गया!, ज्ञान चंद्र ‘मर्मज्ञ’, द्वारा “मनोज” पर, पढिए!
मन कर रहा है कि टिप्पणी करते-करते अचानक चाय चढ़ाने चला जाए। बाय।
@3943050556241261137.0
मित्र सागर,
गिरिराज किराडू? प्रतिलिपि वाले?
नेकी और पूछ पूछ.. जरूर भेज दो और ’धन्यवाद’ नहीं कहूँगा क्यूंकि वो आग्रह की वस्तु है ;)
मेल का इंतजार है...
meri mano to mukti ki salaah hi maan lo..:)
मैं भी पढ़ते पढ़ते है चली गयी... पूछिए तो कहाँ ..काफी बनाने... बहुत सुन्दर लिखा... जब हम काम करते हुवे खो जाते है एक सोच की एक नयी दुनिया में.. ऐसा होता है..
मैं भी पढ़ते पढ़ते है चली गयी... पूछिए तो कहाँ ..काफी बनाने... बहुत सुन्दर लिखा... जब हम काम करते हुवे खो जाते है एक सोच की एक नयी दुनिया में.. ऐसा होता है..
पंकज जी ..
"’इसमें भी एक नशा है… यूं कहीं भी चले जाने में… पढते हुये, लिखते हुये, सोचते हुये… ’कहीं’ और जाते हुये ’कहीं’ और चले जाना’"
बहुत अनुभव की बात है ये नशा ....इसी नशे में तो ढूंढ पाते हैं हम खुद को...... यही बेखुदी खुद के और करीब ले आती है.... इस एहसास को शब्दों में ढाला आपने ..बहुत सटीक तरीके से...बधाई...
mai to comp ke sath baithee hoo par man tum tak pahuch gaya hai ,aadhee raat ko Nariman point bhee coffee kee talash me pahuch gaya tha......sabheese jinse apanapan lagta hai mil aata hai........badaa sukun bator lata hai.........
आपका ये कुछ ऐ-वें बहुत ही अच्छा है. कुछ से बहुत कुछ लिख देते है आप.
छुपे रुस्तम हो साहेब...........
अच्छा लगा - आपके ब्लॉग पर आकर.
बहुत ही दिल को छूने वाला लिखते हैं आप.
आशा करता हूँ आपके साथ उपडेट रहूँगा.
जय राम
yun hi kahin chale jane ka bhi apna hi ek maza hai...
लगता है कि किरदार के साथ साथ लेखक भी खूबसूरत कथा कहता हुआ अचानक ही कहीं चला गया...बहुत इंटेरेस्टिंग तरीका रहा बात कहने का..एक बड़ी खूबसूरत कोरियन फ़िल्म याद आयी..बिन-जिप..याद आती है खो जाने की..हो कर भी न होने की..
..खैर सस्ते मे निपटा दिया आपने...थोड़ा और विस्तार अपेक्षित था..हो सकता है कि किरदार किसी और पोस्ट मे अचानक प्रकट हो..चाय खौलने के बाद...नशा तो उसका भी कम नही ना..
’इसमें भी एक नशा है… यूं कहीं भी चले जाने में… पढते हुये, लिखते हुये, सोचते हुये… ’कहीं’ और जाते हुये ’कहीं’ और चले जाना’
:-)
Intesting article...bt m yet tryin to understand dis.. bt yeah i liked your other posts a lot.. nw 'll keep an eye on u.. :: keep writing
जितना कुछ भी कहूं कम है...जबरदस्त लेखन प्रतिभा है आपमें..अफ़सोस इतने दिनों तक इससे दूर रहा,....यूँ ही लिखते रहें...
मेरे ब्लॉग में इस बार..
YAR NET PAR NAHIN BAITH RAHE KYA...
LIKHO..LIKHO..AUR LIKHO..
LEKIN PADAI BHI KARTE RAHNA,BHALE HI NAUKRI KAR RAHE HO..
COOL RAHO TO HEALTHY RAHOGE..
चाय बनाने और पीने के लिये लौट आता है न तबी पकडना उसको । पर हम सभी ये करते हैं न कभी न कभी । आपका लेखन सशक्त है ।
accha laga padhkar...sach hain likhte hue,padhte hue,khamoshi main,in sabhi cheezo ke beech hote hue kahi chale jaana.....
aapka lekhan kuch alag sa hain,
waqt mile to mere blog par bhi aaye.
bahut nazuk hoti hai wo dor jo inhein jaane se rok sakti hai ....
chalo .. main ja raha hun...use le aane jo chala gaya hai kaheen ... :)
tumhe padhte waqt to humesha kaheen na kaheen chala hi jata hun ...
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