Sunday, September 12, 2010

एक कॉफ़ी और ढेरों कोरी पर्चियाँ

kuch_to_hai कुछ पात्र जाने कैसे, कब और क्यूं हमारी ज़िंदगी की फिल्म से जुडते चले जाते हैं… हमारी फिल्म? न… ये ’सिर्फ़’ हमारी फ़िल्म तो नहीं…

ये ज़िंदगी एक ऎसी फ़िल्म है जहाँ कोई मुख्य पात्र नहीं… किसी पात्र् की केन्द्रीय भूमिका नहीं। इस भदेस फ़िल्म में हर पात्र के हाथ में एक कैमरा है और हर दृश्य के ढेरों एंगल्स… कभी जाने – अनजाने मैं किसी और के कैमरे में चला जाता हूँ और कभी ना जाने कैसे, कब और क्यूं कुछ जाने-अनजाने पात्र मेरे कैमरे में आ जाते हैं… e.g ये कॉफ़ी…

(ये कॉफ़ी मेरे कैमरे में है या मैं इसके कैमरे में… फ़िलहाल तो ये सिर्फ़ एक सवाल है। )

मैं अक्सर यहाँ इसी तरह अकेले बैठकर कॉफ़ी पीता हूँ… घंटो इस समंदर से कॉफ़ी के मग में चम्मच चलाते हुये एक भंवर का निर्माण करता हूँ और फिर इस भंवर को एक छोटे से सिप के साथ अपने भीतर उतार लेता हूँ। फ़िर एक नयी भंवर और एक नया सिप…। ये सिलसिला तब तक चलता रहता है जब तक भीतर की सारी भंवरें दम नहीं तोड देतीं।

बचपन में नहाने से पहले भी मैं घंटो, पानी भरी बाल्टी में ऎसे ही भंवरें बनाया करता था। फिर उनके साथ क्या करता था वो याद नहीं… चुपचाप नहा ही लेता होऊंगा और बचपन में किया ही क्या जा सकता था। अभी भी क्या ही कर पाता हूँ!!…

 

’हर की पौडी’ की शांति और ओबेराय माल के इस पल की शांति में सिर्फ़ इतना फ़र्क होता है कि वहाँ सन्नाटे में भी जाने कैसी कैसी आवाजें होती हैं और यहाँ सिर्फ़ एक नग्न सन्नाटा… और इस नंगेपन से भीतर की आवाज भी इतना डरती है कि वो निकलती नहीं… भीतर ही कहीं छुपी बैठी रहती है।

मेरा इस वक्त यहाँ आना भी एक नयी आदत बनती जा रही है… फ़िल्म में यह सीन कुछ ज्यादा ही बार होने के कारण सीन और इस सीन के संवाद रट गये हैं। मसलन जब भी यहाँ आता हूं, समय यही होता है मतलब रात ’आधी’ बस होने ही वाली होती है… और हर बार पूछता भी यही हूँ कि शॉप कब तक ओपेन है? - ११:३०… फ़िर हमेशा की तरह एक ’कैफ़े मोका’ आर्डर करके सारी खाली जगहों में से किसी एक खाली जगह पर बैठ जाता हूँ जहाँ से खालीपन भरा भरा लगे… बहुत सारा उन खाली सोफ़ों का और थोडा बहुत मेरा भी। फ़िर एक पेन और पेपर माँगकर अक्सर ही उस अनप्रिंटेड बिल के पेपर पर कुछ लिखना… (जो शायद उस मशीन में छप जाते तो किसी और के नाम के बिल होते… अभी वो कोरे हैं और मेरे कैमरे के एंगल के अधीन। )

पहले टिशू पेपर पर भी लिख देता था… अब उसपर नहीं लिखता… उस उजले पेपर पर मेरे शब्द किसी दाग जैसे प्रतीत होते थे और उन्हे देख मैं अक्सर सोच में पड जाता था कि मेरे शरीर के दागों से भी शायद किसी के शब्द झलकते होंगे… फ़िर मस्तिष्क में एक तिलिस्मी भंवर बनती जाती थी कि ’किसके शब्द’…  ’किसकेएएएएएए शअअअअब्द’… और मैं तब देर तक कॉफ़ी को हिलाता रहता था।

 

 

लखनऊ में इन दौडते-भागते लोगों से सिर्फ़ चिढ थी… बॉम्बे में ये नफ़रत बनती जा रही है। मानव की कहानी का हंसा मुझे बडा हांट करता है।

जब से वह पैदा हुआ है तब से वह व्यस्त है। उसने कभी किसी भी काम के लिए किसी को भी मना नहीं किया सो वह दूसरों के काम करने में हमेशा व्यस्त रहता था। जो लोग उसे जानते थे वह उससे अपना काम करने को नहीं कहते थे.. वह उसके बदले ’एक ज़रुरी काम की पर्ची..’ उसकी जेब में डाल देते थे, जिसे वह समय रहते पूरा करता चलता था। उसके पास एक जेब की कई सारी शर्टे थी... दो जेब वाली शर्ट पहनने से वह घबराता था। मैंने उससे एक बार कहा था कि तुम बिना जेब की शर्ट पहना करो... तो उसने कहा कि काम की पर्चे वह हाथ में नहीं रखना चाहता है... काम के पर्चे पैंट की जेब में मुड़ जाते हैं... फिर क्या काम करना है ठीक से समझ में नहीं आता है। वह अपने घर के कामों की भी पर्चियाँ बनाकर जेब में रख लेता। अपने काम भी वह बाक़ी ज़रुरी कामों की तरह करता... समय रहते। इन पर्चियों के बीच उसका एक खेल भी था... एक दिन उसने मुझसे कहा था कि वह कई बार कोरी पर्चियाँ अपनी जेब में, किसी महत्वपूर्ण काम की तरह रख लेता... जब वह कोई महत्वपूर्ण काम के लिए कोई कोरी पर्चि निकालता तो खुश हो जाता... वह उस महत्वपूर्ण काम के समय... कुछ भी नहीं करता... और उसे यह बहुत अच्छा लगता था। काम के वक्त काम नहीं करने की आज़ादी बहुत बड़ी आज़ादी थी।

इन दौडते भागते लोगों में मुझे एक व्यस्त हंसा दिखता है… जेब से एक के बाद एक पर्चियां निकालता हुआ और बस उन्हें एक के बाद एक  निपटाता हुआ…

…मन करता है इन सब दौडते-भागते लोगों की  जेबों में ढेरों ‘कोरी पर्चियां’ भर दूँ॥

22 comments:

मनोज कुमार said...

बहुत अच्छी पोस्ट। बहुत अच्छा लगा पढना।

अनूप शुक्ल said...

…मन करता है इन सब दौडते-भागते लोगों की जेबों में ढेरों ‘कोरी पर्चियां’ भर दूँ॥
बहुत स्पीड से भागना पड़ेगा इसके लिये।

हम कह चुके हैं:
ये दुनिया बड़ी तेज चलती है ,
बस जीने के खातिर मरती है।

पता नहीं कहां पहुंचेगी ,
वहां पहुंचकर क्या कर लेगी ।

बस तनातनी है, बड़ा तनाव है,
जितना भर लो, उतना अभाव है।

हम कब मुस्काये , याद नहीं ,
कब लगा ठहाका ,याद नहीं ।

Dr. Shreesh K. Pathak said...

फिल्म वाली बात अक्सर सोचता हूँ..! आपने सच लिख दिया कि कोई केन्द्रीय पात्र नही होता. पर कितनों को यही भ्रम बना रहता ही कि वे ही हैं हीरो..! सो बड़े अजब-अजब व्यवहार देखने को मिलते हैं..सबसे ज्यादा ये अजीब व्यवहार ग्रेजुएशन के दिनों में देखने को मिली थी...! खैर..!

पढता गया..शब्द-शब्द ..ये जिंदगी एक कोफी जैसी तो है ही...किसी को चोकलेट मिल जाती है..किसी को लानी होती है..किसी को कभी जरूरत ही नही होती...!

प्रिया said...

हम दौड़ रहे हैं क्योंकि हम दौड़ना चाह रहे हैं.......कहीं भीड़ से पीछे ना रह जाए आखिर स्टेटस भी तो कोई चीज़ होती है ना.....बिना दौड़े सिर्फ टहले भी जिंदगी जी जा सकती है.....खूबसूरती और सुकून बस नज़रियाँ है .... लेकिन चुनाव करना ही नहीं चाहते .....हम सारे कंफ्युस लोग है पंकज.....जिन्हें सिर्फ दौड़ना दौड़ना और दौड़ना है ...क्यों ? मालूम नहीं.
तो फिर चलो दौड़े ...क्योंकि लोग दौड़ रहे हैं

सुनीता शानू said...

हाँ पकंज जिंदगी के कुछ पल कोरी पर्चियों की तरह भी रखने चाहिये।

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

डायरी स कुछ अच्छा लगा ..

Manoj K said...

बहुत दिनों बाद आया और जैसा की सोचा था उससे बढ़कर पाया.

कैमरे के एंगल, कॉफी का भंवर या फिर खाली पर्चियां. सभी नायाब.

याद रहेगी यह फिल्म :)

shikha varshney said...

कॉफी का मग...जाने क्या क्या घुला होता है उस कॉफी में .और जैसे फ्लेश बेक की तरह जिंदगी दीखती जाती है उसके भंवर में ...
और खाली पर्ची भी खली कहाँ होती है...
बहुत कमाल की फिल्म है.बहुत दिनों बाद कुछ अच्छा पढ़ा आज.

Udan Tashtari said...

हर की पौडी’ की शांति ---:) साथ में समुन्दर का तूफान...बहुत बेहतरीन फिल्म..अच्छा लगा पढ़कर.

Udan Tashtari said...

हर की पौडी’ की शांति ---:) साथ में समुन्दर का तूफान...बहुत बेहतरीन फिल्म..अच्छा लगा पढ़कर.

Abhishek Ojha said...

टिसू पर लिखने की आदत पुरानी है. कुछ भी, कभी कभी अंट-शंट भी. एक रेस्तरां में खाने की प्लेट के नीचे बड़ा प्यारा सफ़ेद कागज रखते हैं मैं जब भी जाता हूँ निकाल कर उस पर कुछ लिख लाता हूँ !
और कॉफी तो... पर अकेले पीने में वो मजा नहीं आता... :( भले ही सामने समंदर क्यों ना हो. कॉफी के नाम पर अक्सर चांदनी चौक पुणे याद आता है रात के २-३ बजे हाईवे पर १५ किलोमीटर की बाइक ड्राइव... पाषाण लेक के पास साला साल का कोई भी महीना हो रात के ३ बजे ठंढी हवा मिलती ही है. तो कॉफी के कप से ज्यादा अगल बगल और साथ क्या है वो...

हर की पौड़ी ३० मिनट के लिए गया था. शायद उससे भी कम... पर शाम को आरती के समय. वो भी कुम्भ चल रहा था... अज्ञेय के 'फिर आऊंगा' की तरह सोच कर लौट आया. देखो कब दुबारा जाना होता है.

abhi said...

गज़ब ढा गए सरकार...

richa said...

बड़ी देर से सर दर्द हो रहा था... अभी अभी एक स्ट्रॉंग कॉफ़ी बना के लाये हैं और तुम्हारी ये पोस्ट पढ़ रहे हैं... पोस्ट पढ़ते पढ़ते ज़िन्दगी को कई एंगल्स से देखा... कॉफ़ी मग में उठे सारे भंवर अब दम तोड़ चुके हैं... सारा झाग भी ख़त्म हो चुका है... अब बस सिर्फ़ ठंडी कॉफ़ी बची है... मन भी अनावश्यक रूप से शान्त हो गया है और सर का दर्द भी... पता नहीं "हर की पौड़ी" वाली शान्ति है या मॉल वाली... पर सब शान्त है...

…मन करता है इन सब दौडते-भागते लोगों की जेबों में ढेरों ‘कोरी पर्चियां’ भर दूँ॥

इस एक लाइन पर बड़ी देर से आखें टिकी हुई हैं... एक तिलिस्मी भंवर सा मस्तिष्क में बनता जा रहा है "ढेरों ‘कोरी पर्चियां’... " और होंठों पे एक अजीब सी सुकून भरी मुस्कान है...

बैकग्राउंड में सॉन्ग बज रहा है... "इन उम्र से लम्बी सड़कों को मंज़िल पे पहुँचते देखा नहीं, बस दौड़ती फिरती रहती हैं हमने तो ठहरते देखा नहीं..."

प्रवीण पाण्डेय said...

पहले पानी को भँवर बना कर नहाना, फिर कॉफी को भँवर बना कर पी जाना। अस्तित्व भँवरमय तो हमारा कब से है।
हम अपने पैरों में जाने कितने भँवर लपेटे हुये खड़े हैं।

Sanjeet Tripathi said...

कॉफी तो नहीं लेकिन रात के १ बजे खाना खाते हुए तुम्हारी यह पोस्ट पढ़ रहा हूँ बंधु, शब्द दर शब्द पढ़ते हुए जब आखिर में पहुंचा तो बस सबसे पहले मनन में जो शब्द आया वो है ....

वाकई, कितनी खूबसूरती के साथ शब्दों को बुनते हुए कहाँ पर लाकर ख़त्म किया है.

अभी महीना दो महीना पहले Ruppuin से बात हो रही थी तो उसे मैं यही कह रहा था की यार ये बन्दा इतना अच्छा लिखता होगा ये तब क्यूँ मालूम नहीं चला जब इससे बातें होती थी. बताओ भला.
खैर. तुम बस यूँ ही लिखते रहो और हम पढ़ते रहें यही कामना है.

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

@4248800920925621610.0
अभिषेक,
रात के ३ बजे ठंडी हवा के साथ ’किसी’ का साथ.. भई, बेहद रोमांटिक! :)

बहुत ही प्यारी टिप्पणी... जैसे मेरे सारे लिखे को सरसराते हुये निकल गयी... कोशिश करना कि तब जाना जब ऑफ़ सीजन हो... शांति यू नो ;)

डॉ. नूतन डिमरी गैरोला- नीति said...

is daudti bhagti jindagi se aapne samay nikaal kar daudti baagti jindagi par vishleshn kar itna sundar likha.... achha lagaa......

डिम्पल मल्होत्रा said...

ऊपर वाला भी एक निर्माता है..कई भंवर बनाता है..हम भी डूबते तैरते है..

अभी भी क्या ही कर पाता हूँ!!…कुछ न कर पाने की विवशता...हौंट सी करती है..
’किसकेएएएएएए शअअअअब्द’… काफी के मग में घूमते से लगे...
इस पोस्ट नामिक फिल्म में आपका कैमरा सही एंगल पे पड़ा..

रश्मि प्रभा... said...

अपनी रचना 'ज़रा ठहरो' वटवृक्ष के लिए भेजिए - परिचय और तस्वीर के साथ
'
एक कॉफ़ी और ढेरों कोरी पर्चियाँ'

स्वप्निल तिवारी said...

bas abhi ek lamba kam khatm kiya hai ..vyastta se nikla hun ..kaam ab bhi hai hai par parchi kori hai ..ya kah lo parchi maine kori kar di hai ...aur isi ka fayda utha kar yahan padhne chala aaya..tumhari post ne chaay ka kaam kar diya ..dil dimaag taro taja hain.. :)

Puja Upadhyay said...

एक्जाम में अच्छे नंबर आते थे? पर्ची बनाने के उस्ताद हो :)

कहानी बेहद खूबसूरत बिम्बों के माध्यम से आगे बढती है...खाली पीली वेल्ला टाइम में इत्ते करीने से संवारे हुए ख्याल. touche!

अपूर्व said...

पोस्ट सच मे वैसी ही लगती है जैसे कि किसी अनप्रिंटेड कोरे कागज किसी हैंडीकेम ऊपर रख कर स्क्रिबल कर ली हो और जेब मे डाल ली हो..कि जब किसी बोरिंग टेक्स्टबुक के उदास पन्ने पलटते हुए अचानक यही पर्ची मिल गयी हो..और वक्त थोड़ा सा खुश..थोड़ा सा सेंटीमेंटल हो गया हो..ठीक वैसे जैसे मै हो गया फिर से इसे पढ़ते वक्त..बोरिंग टेक्स्टबुक्स के बीच..!..हममे से कितने ही हमेशा अपनी जिंदगी मसालेदार बालीवुडिया फ़िल्म की तरह चाहते हैं..हैपी एवेर आफ़्टर की तरह..मगर वक्त का कैमरा जिंदगी को अक्सर डाक्युमेंटरी बना देता है..जिसका कोई प्लाट नही..कोई हैपीनेस कोशेंट नही..एक नीला अंधेरा बहता रहता है..रातों की रगों मे..नशे की तरह..इसे पढ़ते हुए सोचता हूँ कि किसी दिन दुनिया से चुपचाप रुखसत होते वक्त हमारी जेबें कितनी सारी पर्चियों से भरी होंगी..सब जरूरी पर्चियाँ...जिन्हे खोल पाने का वक्त कभी नही आयेगा..मुड़ी हुई अनपढी पर्चियाँ..ताउम्र!!
फिर पढ़ते-पढ़ते एक पुराना सुना गीत भी जेहन मे अटक जाता है बार बार..चुभती फ़ाँस सा..सोचा गूगल से पूछ कर लिरिक्स चेप दूँ..क्या पता किसी पर्ची पे फिर लिखे मिल जायें..किसी ने तो लिखा होगा..

Once I wanted to be the greatest
No wind or waterfall could stall me
And then came the rush of the flood
Stars of night turned deep to dust

Melt me down
Into big black armor
Leave no trace of grace
Just in your honor
Lower me down
To culprit south
Make 'em wash a space in town
For the lead
And the dregs of my bed
I've been sleepin'
Lower me down
Pin me in
Secure the grounds
For the later parade

Once I wanted to be the greatest
Two fists of solid rock
With brains that could explain
Any feeling

Lower me down
Pin me in
Secure the grounds
For the lead
And the dregs of my bed
I've been sleepin'
For the later parade

Once I wanted to be the greatest
No wind or waterfall could stall me
And then came the rush of the flood
Stars of night turned deep to dust

और हाँ पानी मे भँवर बनाने वाली बात पुरानी यादें ताजा कर गयी..क्या करें नहाने से डर जो लगता था.. ;-)