’इनएक्सेसिबिल’
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वो अपनी सीट पर बैठने से पहले सीधे मेरी आँखों में एकटक देखती है। उसके यूँ देखने से मुझे अहसास होता है कि मैं भी पिछले कुछ मिनट से शायद उसे ही देख रहा हूँ। अनायास ही मेरे भीतर से एक बहुत दबा हुआ सा ’हेलो’ निकलता है जो दबे दबे उस तक पहुँच जाता है। वो भी मुझे ’हेलो’ बोलती है और उसकी आँखे मेरे अगली बात सुनने के लिये तैयार दिखती हैं। पर उस वक्त मेरी बातूनी बातें मेरा साथ नहीं देतीं और मैं वापस अपनी बॉम्बे टु दिल्ली फ़्लाईट की गोल खिडकी वाली सीट से बाहर के गोल गोल दृश्यों को देखने में लग जाता हूँ।
मेरी एक दोस्त मुझसे हमेशा कहती है कि अगर मुझे किसी एक शब्द में डिफ़ाईन करना हो तो वो होगा ’इनएक्सेसिबिल’। मैं उस गोल खिडकी के बाहर देखता हुआ यही सोचता हूँ कि शायद ये भी वही सोच रही हो।
खैर… दिल्ली उतरने से पहले इस अधेड उम्र की महिला से कुछ बातें हो ही जाती हैं जिनमें से अधिकतर मेरे बैग और लैपटॉप के ब्रांड, मेरे विदेश जाने की संभावनायें, मेरा वेतनमान और छोटे शहरों से बॉम्बे आये लोगों के इर्द गिर्द ही घूमती हैं।
फ़्लाईट से उतरते ही हम दोनो भीड का एक हिस्सा बन जाते हैं।
निशांत मुझसे पहले एयरपोर्ट पहुँच चुका है करीबन २ साल बाद उसे देख रहा हूँ। हम दोनो पवन के फ़्लैट के लिये रवाना होते हैं…
और मेरे जेहन में अभी भी उस महिला की कही कुछ बातें हैं और एक दुविधा भी है कि उनमें शो-ऑफ़ ज्यादा था या स्नाबरी ……या मेरा ’इनएक्सेसिबिल’ रहना ही ज्यादा अच्छा है…
काम का जिक्र करो!
पवन के ही फ़्लैट पर विराग से मिलता हूँ। उसमें अभी भी उन बातों के लिये एक जोश है जिन्हे मैं न जाने कबसे नकार चुका हूँ। वो कहता है कि उसकी पूरी टीम के पास एलसीडी मॉनीटर तक नहीं लेकिन उसकी डेस्क पर एलसीडी के साथ साथ एक लैपटॉप एक्स्ट्रा पडा हुआ है। वो अब काफी आर्गेनाईज्ड लगता है। जरूरत की सारी चीजें उसके पास हैं और उन चीजों की सारी जरूरतें भी। वो कहता है कि ’काम की फ़िक्र मत करो, काम का जिक्र करो’।
पहली बार में तो मैं बुद्धिजीवी बनने की कोशिश के तहत उसे सुनाता हूँ लेकिन बाद में उसकी कही यही बात मुझे बहुत जमीनी लगती है। मैने काम की बहुत फ़िक्र तो नहीं की लेकिन ’खुद’ को तलाशते तलाशते, उसका जिक्र करना कहीं छूट गया। जरूरतें भी छूटती गयीं और धीरे धीरे चीजें भी…
वैसे फ़िक्र का जिक्र करना भी कहाँ बुरा है या जिक्र की फ़िक्र करना… (कुछ नहीं दिमाग पर चढी कुछ जिक्रों-फ़िक्रों का असर है… आप इसे अन्यथा न लें।)
जाने कैसी कैसी आवाजें
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अभी तक गंगा जी के लिये लोग गा रहे थे, अब उनकी आरती खत्म होने के बाद गंगा खुद गा रही हैं। पवन एकदम शांत सा मेरे साथ गंगा जी में पैर डाले बैठा है। हम दोनो के बीच कुछ आवाजें इधर उधर से अपनी जगह बनाकर आ जा रही हैं… गंगा के तेज बहने की आवाजें हैं… बगल में एक पिता अपने पुत्र को घाट से लगी जंजीर पकडकर डुबकी लगाने को कह रहा है… एक असफ़ल प्रयास के बाद लडका डुबकी लगा लेता है… उसकी एक असफ़ल और एक सफ़ल डुबकी की आवाज है… दोनो आवाजें लगभग एक जैसी ही हैं। कुछ महिलायें गिलसिया भर दूध गंगा में डालने को कह रही हैं… उनके कहने की आवाज भी है और दूध की धार के गंगा में गिरने की भी आवाज। कुछ लोग पानी मे सिक्के डाल रहे हैं तो कुछ मैले कुचेले कपडे पहने लडके पानी में डाले गये सिक्कों को खींचने के लिये चुंबक फ़ेंक रहे हैं। सिक्कों में भरी हुयी श्रद्धा की भी आवाज है और डोरो से बंधे उन चुंबको में मजबूरी की भी एक आवाज। एक बच्चा एक दिये को पानी में बहा रहा है। छोटा और नासमझ है इसीलिये दिये को गंगा जी की धार की विपरीत दिशा में बहाने की कोशिश कर रहा है… उम्मीदों का वह दिया परेशान सा है कि डोरी और चुंबक लिये वो मैले कुचेले कपडो वाला लडका उस दिये को हल्का हाथ लगाकर नदी के बहाव के साथ बहा देता है। नासमझ बच्चे की उम्मीदों को राह मिल गयी है और शायद ज़िंदगी के लिये एक सबक भी। उस नासमझ बच्चे की खुशी की भी आवाज है और उस समझदार लडके के समझदारी की भी…
हमारे पीछे ही दो-तीन लोगो ने भजन कीर्तन शुरु किया है… मैं उठकर उनके पास चला जाता हूँ… पवन अभी वहीं गंगा जी में पैर डाले बैठा है… कीर्तन में लोग बढने लगे हैं… उन सबके बढने की भी आवाजे हैं और उनके गाने की भी आवाजे हैं। मैं रिकार्ड करने की कोशिश करता हूँ लेकिन मोबाईल धोखा दे जाता है… मैं वापस पवन के पास आकर बैठ जाता हूँ। गंगा के बहने की एक आवाज है… और हमारे कुछ ना कहने की भी एक आवाज…
ट्रेन का टाईम हो गया है। दोनो वहाँ से ऎसे उठते हैं जैसे मन न भरा हो और रेलवे स्टेशन की तरफ़ चल पडते हैं। हमारे चलने की भी आवाज है और हमारे मन के वहीं रह जाने की भी एक आवाज…