फ़्लैशबैक…… कैमरा रोलिंग… ज़िंदगी रिवाईन्ड… एक्शन!!
टेक – १
घर से ४ घंटे दूर लखनऊ के डालीगंज के एक कमरे की वो रात। ’कुछ’ बन कर दिखाने की कोशिशें जारी हैं… ’पापा कहते हैं बडा नाम करेगा’ जैसे रक्त कोशिकाऒ तक जाकर, उनसे पूछ्ता है कि ’भैया तुम बताओ? तुम क्या बनोगे?’ डिनर में खिचडी बनी है जो मुझे उस वक्त बनानी नहीं आती है इसलिये मेरा शोषण होता है… बर्तन धोने के काम, बिना किसी वोटिंग के मेरे क्रूर तानाशाही रूममेट्स के द्वारा मेरे जिम्मे कर दिये जाते हैं। खैर मुझे तब भी आज के ही जैसे आवाज उठानी नहीं आती है और माताश्री के हर बार फोन पर ये कहे जाने पर भी, कि ’हाय, मेरा लड़का बर्तन धोता है!’ मैं खुशी खुशी बर्तन घिसता रहता हूँ और सोचता रहता हँ कि कभी उनमें से भी कोई जिन्न निकलेगा और मेरे सारे ख्वाबों को पूरा कर देगा.. लेकिन शायद उसे भी मेरी आऊटडेटेड ख्वाहिशों में कोई इन्ट्रेस्ट नहीं… या आजकल जिन्न साहब भी आऊट ऑफ़ स्टॉक हैं।
खैर उस रात पर वापस आते हैँ… वो रात का समय होता है और बिजली के जाने का समय भी… बिजली वालों को पता है कि भाई रात में बिजली का क्या काम… रात का मतलब ही अंधेरा होना है… तो क्यों प्रकृति के साथ छेड़-छाड़ करी जाय। तो उस घुप्प अँधेरी रात में, हम लोग डिनर को थोडा हैप्पनिंग बनाने की कोशिश करते हैं। छत पर खुली ऑक्सीजन के साथ कैन्ड्ल लिट डिनर करने की तैयारी की जाती है… एक जली हुयी मोमबत्ती के साथ तीन लोग, तीन थालियाँ और एक कुकर में थोड़ी अधजली खिचड़ी।
तभी बगल वाले घर की खिड़की से एक चेहरा झाँकता है… और उस घुप्प अँधेरे में भी चटाई पर बैठकर असभ्य तरीके से जली खिचड़ी खाने वालों में भी एक लुप्तप्राय सभ्यता उगती प्रतीत होती है… एक की आवाज आती है “अबे! मशरूम थोडे और दो?”…… दूसरा - “पुलाव आज अच्छे बने हैं। काजू सही से डाले तूने।”… कमबख्त मैं अज्ञानी, जिज्ञासु बालक पूछ बैठता हूँ - “मशरूम? पुलाव? काजू?”… ये दो-तीन शब्द मुँह से अभी निकले भी नहीं होते हैं कि उस अँधेरे में न जाने मुझे कितनी चिकुटियाँ काटी जाती है और मैं उस सांकेतिक भाषा में अपने द्वारा पूछे गये शब्दों का अर्थ ढूढने की पूरी कोशिश करता हूँ… एकदम ईमानदारी से… लेकिन इतना समझदार होता तो मेरी शादी नहीं हो गयी होती (ये हमारे शहर के लोगों का समझदारी को लेकर एक तकियाकलाम है… आप इसे अन्यथा न लें…) तभी कानों में सरसराते हुये से कुछ शब्द गुजरते हैं “ अबे! ‘#$%^$%’ खिड़की पर लड़की है|”
ओह्ह… मै भी अपनी नयी नयी समझदारी का परिचय देते हुये उस काजू वाले पुलाव और मशरूम के भोज में अपना ’सक्रिय’ योगदान देता हूँ।
…और उस दिन हम तीनों जली हुयी खिचड़ी को मशरूम के जैसे ही चाट चाट्कर खाते हैं।
कट…
अरे कुछ रह गया… अरे हाँ इस टेक में एक गाना भी है। चलिये फ़िर से ’एक्शन’…
लेकिन ये गाना फ़िल्माया कैसे जाय? छत पर कोई पेड़ भी नहीं है जहाँ इन लड़कों को घुमाया जाय… अँधेरे में छत पर गोल-गोल यहाँ से वहाँ दौड़ाया भी नहीं जा सकता… बेचारों के हाथ-पैर टूट जायेगे.. शरीफ़ लडके हैं भई.. पढने – लिखने लखनऊ आये हैं। फ़िर?
फ़िर क्या… तीनो मस्त खा-पीकर लेटे हुये हैँ। अँधेरे में खिडकी पर कोई चेहरा है कि नहीं, पता नहीं लेकिन उन्होने भी गणित के किसी भी प्रूफ़ की आखिरी लाईन याद रखी है ’इति सिद्धम’। यूपी बोर्ड के इतने सारे एग्जाम्स पास करने के बाद वो ये तो जानते हैं कि प्रूफ़ में कुछ भी लिखा हो या न लिखा हो, ये लाईन सबसे महत्वपूर्ण है। इसी ’इति सिद्धम’ के सिद्धांत पर बिना दिमाग का यूज किये वो मानते हैं कि खिड़की पर अभी भी वो चेहरा है।
सेट कुछ ऎसे सजा है कि दो चटाईयां बिछी हैं और तीन लडके जगजीत सिंह की गज़ल गुनगुना रहे हैं -
ना उम्र की सीमा हो, न जन्म का हो बंधन…
जब प्यार करे कोई, तो देखे केवल ……
कि अनायास ही… बिना किसी लिखी हुयी स्क्रिप्ट के… अपनी अपनी मूल सोचो के साथ तीनो एक साथ अलग अलग कहते हैं -
तन… मन… धन… (दायें से बायें की तरफ़ ऊपर वाले खाने में फ़िट करें)
कट……
नोट:
फ़िल्म अभी बाकी है मेरे दोस्त! मैं राईटर कम डायरेक्टर कम साईड-ऎक्टर दोनो के बीच में लेटा हुआ हूँ और ’मन’ ही कहता हूँ… :-) सोचा बता दूँ नहीं तो आपकी सोच तो मुझे पता ही है… हे हे हे
23 comments:
badiya
अरे.. कहानी अभी शुरू हुई थी ..आपने ब्रेक लगा दिया ..अब समझ में आया निराला नगर में हमारे हॉस्टल की साइड वाली छत पर हमेशा बिरयानी और कोरमा की दावत क्यों चलती थी ...
aise hi ham bas mein jaate to shekhi bagharte.. yaar yeh bike ke service mein kitne din lagate hain.. sach mein flashback dikhakar apne bahut acha kaam kiya.. us bas ke saathi manish ko abhi ph kar raha hoon..
best
manoj khatri
अरे इतने अच्छे गाने पर कट क्यों किया ? गाना तो पूरा सुना देना था न ..
और ये जिन्न लोगों के पास स्टॉक रहता ही नहीं है कभी ..
@7358138912221238234.0
सोनल,
बढिया.. बेचारे ’वो’ रोज बिरयानी और कोरमा बनाने वाले :-)
वा स्टॉक खुला है... बढ़िया... चलने दें हमने भी बहुत काजू खाये हैं ... अपने हाथ से बिरयानी बनाकर... :)
:))
ख्वाहिशों का नया संस्करण बढिया लगा, अच्छा हुआ खिचरी में नोनवेज तड़का नही लगा. वहरहाल कहानी बहुत उम्दा रही. शुभकामनायें
जली हुई खिचड़ी में जब काजू,मशरूम मिले थे तो अब खूबसूरत नजारों की असलियत का अन्दाजा हो रहा है- इति सिद्धम।
Anoop ji se sahmat...
wase lucknow ki kahani mumbai jakar khatm hui ya waha bhi....??
agli kadi ka intezar ......
तीन लोग अँधेरे में ..खिचड़ी बिना छौंकी...वैसे हमने काफी एक्सपेरिमेंट किये थे .मेगी के साथ उबले अंडे .टमाटर ....बनने के बाद ऊपर डली आलू भुजिया .पर अगर" बोटाम्स अप " खीच कर ये मेनू होता है तो बड़ा लज़ीज़ बन जाता है
बढ़िया है।
इलाहाबाद के कम्पटीशन वाले लड़के जो कि अक्सर भोजन के तौर पर तहरी ही बनाया करते हैं....उनकी याद आ गई :)
ये जिन्दगानी जितनी नौटंकी दिखाती है, उतना ही सुख भी देती है।
फ़्लैशबैक…… कैमरा रोलिंग… ज़िंदगी रिवाईन्ड… एक्शन!!
बढ़िया संस्मरण... और ये जिन्न साहब कभी स्टॉक में रहते भी हैं क्या :)
padh ke mazaa aa gaya...... bartan ghis te waqt jinn ki khwahish ....biryani pulao sabhi achche ban padhe hai.
dil khush ho gaya boss, jaisa tum chat room me pade rahte the, us se laakh guna blog pe acche ho mamu....
majaa aa jata hai jab bhi tumhare blog pe aana hota hai to....
Nice fill someone in on and this enter helped me alot in my college assignement. Thanks you for your information.
'कट' पढ़ के लगा कि 'कट लो *%$^ के' टाइप कहा होगा किसी ने कुछ. अब माहौल ही ऐसा सेट कर दिया था तुमने :)
@3748781259206867145.0
अभिषेक:
सही जा रहे हो गुरु ;)
लाजबाब ।
रक्षा बंधन पर हार्दिक शुभकामनाएँ.
सुंदर.
kitni baar to padha h fir aaj yaad aaya.. k pitaji batate the k wo hamesha bartan dhone ka kaam hi karna pasand karte the kyuki khana banane me waqt ki pabandi thi jabki bartan kabhi bhi apne mood k hisaab se dhoye ja sakte the, bina waqt bewaqt ki perwaah kie .. :)
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