रोज़ ऑफिस जायें, आयें
खाना पकायें, सो जायें
अगली सुबह फिर ऑफिस जायें..
लिखें प्रेम कवितायें,
और ऑफिस की सारी प्रेम गॉसिपों
में प्रेम का मखौल बनायें
जियें ज़िन्दगी, ये न जानते हुये
कि जीते क्यूँ हैं..
और मर जायें एक दिन
कई सारे सवाल लिये...
वीकेंड में पीयें दारू
धोयें कपडे,
देखें ’पीपली लाईव’
ठहाकें लगायें किसानों की मौतों पर
बाहर आयें और मालों से खरीदें महँगे कपडे
...और सब एक साथ रोयें बढने वाली महँगाई पर
साल में एक दिन झंडे खरीदें
एफ़-एम पर फ़रमाइश रखें देशभक्ति की..
फेसबुक पर बाँटे गाने
बाकी दिनों, लगाते रहें चूना
बोतें रहें बारूद..
मचायें शोर
फ़ैलायें अफवाहें
प्रजातंत्र के सारे पलीतों
में एक एक सिरे से लगायें आग
…और इन्तजार करें किसी फ़ायर-ब्रिगेड के आने का..
हम सबका विनाश हो... (तुम अकेले ही नहीं हे कवि)
*कई दिनों से एक अलग सा मूड है, कुछ नयी ही किस्म का…। आज सागर की झकझोर देने वाली कविता पढते हुये अपने आस-पास के समाज में झांकते हुये ये ’कविता सी’ बन गयी। इसका पूरा क्रेडिट सागर को…
28 comments:
साल में एक दिन झंडे खरीदें
एफ़-एम पर फ़रमाइश रखें देशभक्ति की..
bilkul sahi kaha , yahi raha apna bharat mahan !
बाल छोटे करा लो - मूड भी सही हो जाएगा और शख़्सियत भी।
बड़े बाल आदमी को एक अनजानी मनहूसियत की तरफ़ धकेलते हैं और छोटे उद्दण्डता की तरफ़।
वैसे फ़ैशन जैसा हो वही बालों का स्टाइल रखना - बुज़ु्र्ग बहुत फ़ालतू बर्राते हैं और हम भी उसी ओर जा रहे हैं।
“अपनेचेहरे के किसे दाग़ नज़र आते हैं” को झुठलाते हुए आप एतना दाग गिना गए कि अपने आप को कल्चर्ड कहने वाला दोगला आदमी का पूरा करेक्टर उजागर हो गया...खुद से सरम आने लगा है… धन्यवाद पंकज!!
पंकज, एक सलाह है। कविता लिखते समय यह सुनिश्चित कर लो कि कमरे में कोई शीशा नहीं हो। क्योंकि तुम अपने शीशे में हमारे प्रतिबिम्ब देखने की आदत न छोड़ पाओगे।
अब रोशनी बुझा दो, कविता सबके कपड़े उतार चुकी है।
bahut hi pyari kavita...
maza aa gaya pad kar...
Meri Nayi Kavita aapke Comments ka intzar Kar Rahi hai.....
A Silent Silence : Ye Kya Takdir Hai...
Banned Area News : Danny Boyle's '127 Hours' to close London Film Festival
बहुत अच्छे !
सोच ही रहा था किसका असर दिख रहा है......आखिर में सागर का नाम का ..कबूलामा देख भला सा लगा ...अलबत्ता सुबह कुछ ऐसा ही ख्याल ही उमड़ा था .सौतेले भाई सा.....सो फेस बुक पे उड़ेल दिया था..
..अब मै बोलूँ या बस सलाम करूँ..
खैर स्वतंत्रता दिवस..सॉरी ’इंडिपेंडेंस डे’ का प्रॉलॉग सेट कर दिया..
:-(
एक चीज तो मिस हो गयी..आमीन कौन लिखेगा? :)
काहे डिप्रेस हो रहे हो. 'मेरे देश की धरती' टाइप के दो चार गाने सुनो. थोडा इधर-उधर सिस्टम-विस्टम को गरिआओ और सो जाओ. ये ,मत भूलो कवि कि कल से फिर ऑफिस जाना है ! :)
पूरा नंगा करके रख दिया.... हे कवि और कुछ बचा है..
बाकी दिनों, लगाते रहें चूना
बोतें रहें बारूद..
मचायें शोर
फ़ैलायें अफवाहें
प्रजातंत्र के सारे पलीतों
में एक एक सिरे से लगायें आग...
तुम अकेले नहीं हो कवि ...हम सब अपना प्रतिम्बिम्ब देख रहे हैं इसमें ..!
तुम अकेले कहाँ हो, हे कवि? हम भी कवि है...वो भी हैं...और ये भी.
"है प्रीति जहाँ की रीति सदा मैं गीत वहां के गाता हूँ..."
ई लाइन तुम्हारे लिए ही लिखी गई थी...:-)
पहली लाइन पढ़ी तो ऐसा लगा शायद आपके दिन और रात के बारे में कुछ है, लेकिन जैसे पढता गया वैसे ही वह विचार छिटक गया और देश धर्म ने आकर जकड लिया.
'साल में एक दिन झंडे खरीदें
एफ़-एम पर फ़रमाइश रखें देशभक्ति की.. '
ऐसा लगा मैं भी तो यही करता हूँ.
किसको कहूं की मैं भी तो सियाचिन जाना चाहता हूँ, या आसाम या फिर कच्छ के रण में,
जाकर कहूँ .. जय हिंद..
मनोज खत्री
@4622422197523070895.0
@अभिषेक:
:-)
@2437524941918385518.0
@बाबु सी मिसर जी:
:-)
बड़ी ऊंची बात कह दी है पंकज भैया।
प्रतिक्रियायें सब लोग हंसते-हंसते करते हैं और अच्छी खासी कविता के हंसी करते हैं। भाई लोग कविता को हमेशा हल्केपन से लेते हैं।
सागर जितना अच्छा लिखता है उसको उतना अच्छा लोग मानते नहीं। तुमने अच्छा किया कि उससे प्रेरणा लेकर कविता लिखी। लेकिन हमने क्या बुरा किया कि हमारी कविताओं से कुछ नहीं लिया तुमने ,प्रेरणा तक नहीं। :)
कविताओं का प्रवाह अच्छा है। भले ही मजे-मजे में कही गयी और ली गयी बात है लेकिन है तो सच ही जैसे यह:
लिखें प्रेम कवितायें,
और ऑफिस की सारी प्रेम गॉसिपों
में प्रेम का मखौल बनायें
यह भी:
जियें ज़िन्दगी, ये न जानते हुये
कि जीते क्यूँ हैं..
और मर जायें एक दिन
कई सारे सवाल लिये...
उम्दा है। मजेदार। बाल-वाल के बारे में हम कुछ न कहेंगे। आजादी के दिन अपने निर्णय आप लें।
स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं!
पंकज जी, आपकी कविता मैं सच्चाई है , हम सबकी परेशानी तो यही है कि सिर्फ सोचते ही हैं अपनी तरफ से कुछ सार्थक प्रयत्न नहीं कर पाते हैं.
सागर जी की कविता का आक्रोश यहाँ भी चला आया है. आग से ही आग लगती है. शायद यही है कविता की सार्थकता जो हमें दर्पण दिखाती है और विवश करती है सोचने के लिए..
स्वाधीनता दिवस पर हार्दिक शुभकामानाएं.
Get your book published.. become an author..let the world know of your creativity. You can also get published your own blog book!
www.hummingwords.in
पढ़िए गीता
बनिए सीता
फिर इन सबमें लगा पलीता
किसी मूर्ख की हो परिणीता
निज घरबार बसाइए।
होंय कँटीली
आँखे गीली
लकड़ी सीली,तबियत ढीली
घर की सबसे बड़ी पतीली
भरकर भात पसाइए।
------- रघुवीर सहाय की बहुचर्चित कविता।
शुक्रिया पंकज,
वैसे मैं इतने के लायक हूँ नहीं, फिर भी अगर कविता उद्वेलित करती है तो प्रयास सफल रहा... मेरा लिंक देने की जरुरत नहीं थी यार... फिर भी शुक्रिया
सागर के "आमीन" पर तुम्हारे इस पोस्ट का बैक-लिंक देखकर चला आया और बहुत अच्छा किया कि चला आया, वर्ना एक और कवि के इस "तुम अकेले नहीं हो" के शब्दातीत आह्वान से वंचित रह जाता।
बहुत खूब पंकज...कुछ ही दिन से तुम्हें पढ़ना शुरू किया है और अफसोस हो रहा है कि तुम्हारी लेखनी से इतने विलंब से परिचित हुआ मैं।
@5654009691570596080.0
गौतम भाई,
आपका लिखा अक्सर पढता रहा हूँ लेकिन कभी बताना हो नहीं पाया.. कई दिन से सोच रहा था कि आपसे बात करूं लेकिन एक संकोच सा था..फ़ेसबुक पर भी ऎड करने की सोची लेकिन वहाँ भी संकोच खा गया.. :(
आपको यहाँ देख बहुत अच्छा लगा.. खुशी भी हुयी..
प्रजातंत्र के सारे पलीतों
में एक एक सिरे से लगायें आग
…और इन्तजार करें किसी फ़ायर-ब्रिगेड के आने का..........
बहुत बढ़िया !
आपके ब्लॉग पर आकर तो हम धन्य हो गए!
अद्भुत और गहन सोच ... आभार
Post a Comment