उस गली में ’साईं’ नाम की कई बिल्डिंग्स हैं। एक बिल्डिंग के सामने से अभय भाई को फ़ोन लगाता हूँ “फ्लैट नंबर…? भूल गया?” वो बताते हैं और मैं उनके फ़्लैट के सामने खड़ा हूँ।
दाढ़ी-मूछों वाले ये भाईसाहब, दरवाजा खोलते हैं… मैं ’नमस्कार’ करता हूँ, वो बड़े प्यार से हाथ मिलाते हैं। मैं सोफ़े पर बैठ जाता हूँ… आस पास नज़र दौड़ाता हूँ तो बस किताबें ही किताबें हैं। मेरा मन होता है उठकर सबकुछ अपने हाथों से छूकर देखूँ फ़िर चुप ही बैठा रहता हूँ।
बातें शुरु होती हैं और फ़िर चल पड़ती हैं… किसी बात पर वो कहते हैं कि “हाँ, लोग ’उदय प्रकाश’ को भी तो नहीं छोड़ते”। मैं साहित्यिक विकलांग, पूछ्ता हूँ कि “कौन उदय प्रकाश?” “अरे! उदय प्रकाश की कहानियां नहीं पढीं?” और वो सोफ़े से उठ जाते हैं। अपनी उस संजोयी हुई धरोहर से एक किताब निकालकर मुझे देते हैं “इसे पढ़ना।” मैं उस किताब को बड़ी नरमी से छूता हूँ… देखकर लगता है कि बहुत पुरानी किताब है। नाम देखता हूँ – “…और अंत में प्रार्थना”
करीब एक हफ़्ते बाद मैं फ़िर उसी बिल्डिंग के सामने हूँ। फ़ोन लगाता हूँ “फ्लैट नंबर…? फ़िर भूल गया?”
उन्होने सर पर एक गमछा बाँधा हुआ है। मैं कहता हूँ “स्मार्ट लग रहे हैं?” मुस्कराते हुये जवाब आता है “पढ़ते वक्त मैं गमछा बांध लेता हूँ ताकि सारे विचार मस्तिष्क के साथ जुड़े रहें, इधर उधर छिटके नहीं”। “अच्छी तकनीक है, मैं भी ट्राई करूंगा” मैं कहता हूँ। उनके साथ बैठा हूँ… वो रामचरितमानस पढ़ रहे हैं… पूछते हैं “रामचरितमानस पढ़ी है?” “अपने पास-पड़ोस, रिश्तेदारों में रामायण बैठने पर मुझे ही बुलाया जाता था” मै लम्बी वाली फेंकता हूँ। वो दो चौपाईयाँ पढ़ते हैं और अपने साथ साथ मुझे भी उसमें स्वीमिंग करवा देते हैं। उनके साथ बातें करने में आनन्द आता है। कुछ जाना – अनजाना सीखता रहता हूँ… कुछ ’नहीं’ पूछने वाले सवाल भी पूछता हूँ, जिनका अहसास मुझे घर आकर ही होता है… इस बार उनकी किताब ’कलामे रूमी’ ही ले आया हूँ। ’सरपत’ भी किसी दिन मांगकर देख ही डालूँगा।
अभय तिवारी किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। थैंक्स टु पीडी, मैंने उनकी एक खूबसूरत सी पोस्ट पढ़ी थी जो मैं गाहे बगाहे लोगों के सामने ऐज अ डायलाग मार देता हूँ… ’कबूतर जैसा मशहूर नहीं ’। उनको जितना पढ़ा, हमेशा एक नया प्वाइंट, एक नयी ऎनालिसिस समझने को मिली और जिसे मेरे जैसे लोग भी अच्छी तरीके से समझ पाये… अब चाहे वो फ़ुटबाल से भारत के प्राचीन रिश्ते की बात हो , या सर के पिछले हिस्से के महत्व की बात, या टाई लगाकर हिन्दी कहने की बात, या जुझारु जेसिका और एडवर्ड सईद के किस्से, या ……आप खुद ही पढ़ लीजिये।
’कलामे रूमी’ की एक प्रति, अब मेरी हो चुकी है और मेरी डेस्क पर चमक रही है। आदतन सबसे पीछे वाला पन्ना पढता हूँ तो उनके ब्लॉग का लिंक भी है… मैं मन ही मन मुस्कराता हूँ और एक्नोलेजमेन्ट का एक पैरा पढ़ता हूँ:
सबसे पहले तो मैं धन्यवाद देता हूँ अपने पिता स्व. नरेश चन्द्र तिवारी और माँ श्रीमती विमला तिवारी को, जो मेरे शरीर, चरित्र और व्यक्तित्व के निर्माता हैं। उसके बाद मैं अपनी पत्नी तनु का आभारी हूँ जिसने मुझे हमेशा एक नैतिक बल दिया और मेरे ऊपर सांसारिकता की सीढियां चढ़ने का कोई दबाव नहीं बनाया। फ़िर धन्यवाद देता हूँ मेरे मित्र फ़रीद खान को जिन्होने उमर में छोटे होने के बावजूद उर्दू-फ़ारसी का अक्षर ज्ञान कराने में मेरी उंगली पकड़ी ; और मेरे मित्र बोधिसत्व जिन्होने मेरी जरूरत की किताबें मुझे मिलती रहे, इसके लिये नि:स्वार्थ चिन्ता की; और मित्र प्रमोद सिंह को जिन्होने मेरे काम के प्रति उत्साह और अपने प्रति निर्ममता को बनाए रखने में निरंतर सहयोग दिया। अंत में बिबोध पार्थसारथी और विश्वजीत दास समेत अपने तमाम साथियों और मित्रों के साथ, अपनी उन पेशेवर असफलताओं का भी आभारी हूँ जिन्होने मुझे यह काम करने का आयाम उपलब्ध कराया।
तभी याद आता है कि किताब पर उनके ऑटोग्राफ़ लेना तो भूल गया हूँ… चलिये बिल्डिंग तक का रास्ता तो पता है ही और आगे बस एक फ़ोन करना है और पूछना है - “फ्लैट नंबर…? फ़िर भूल गया?”
P.S. कलामे रूमी फ़्लिपकार्ट पर उपलब्ध है। पहली वाली फ़ोटो का लिंक भी उसी पेज पर रिडायरेक्ट करता है।
पुनश्च:
टिप्पणी में सतीश पंचम जी ने अभय भाई की एक पोस्ट का जिक्र किया जिसमें मुम्बई में हिंदी किताबें रखने वाली दुकानों का जिक्र था और ये हिंदी साहित्य पढ़ने वाले मुम्बई वासियों के लिये एक सहेजकर रखी जाने वाली पोस्ट ही है।
39 comments:
rochak ..aaj aaraam se saare links padh daalungi
ये फ्लेट और मकान नंबर तो मैं भी बहुत भूलता हूँ पर एक बार जहाँ जाता हूँ वहाँ का रास्ता नहीं।
गमछा बांधे अभय जी की तस्वीर लेनी थी ना यार....एकदम स्टैच्यू मूड में :)
कल ही ऑफिस के बगल स्थित हीरानंदानी के मॉल से गुजरते हुए एक बारगी लगा कि चलूँ इसके यहां .....कलामे रूमी है क्या ....देख ही लूँ...लेकिन तब तक गैलेरिया के पास बाईक लिए हुए कलीग आ गया और उसके साथ बैठ कर फुर्र हो गया।
अबकी गैलेरिया हो या फैलेरिया.....किताब ले ही आता हूँ :)
अभय जी का वह पोस्ट याद है कि नहीं जिसमें उन्होंने मुंबई में हिंदी किताबों के मिलने का पूरा पता ठिकाना लिखा था। एक रेडी रिकॉनर ही है वह पोस्ट।
वैसे मॉल कल्चर में एक प्लस प्वॉइंट ये है कि यहां किताबों का भी कॉर्नर होता है लेकिन अमूमन अंग्रेजी किताबें ही मिलती हैं वहां :(
@1995596923543617005.0
हाँ सतीश जी..
शुक्रिया उसकी याद दिलाने के लिये| उसका लिंक भी खोजकर लगाता हूँ| मुंबई वासियों के लिये सच में वो रेडी रेकनर ही थी...
गमछे वाली फोटो लेने में थोडा संकोच कर गया :| वरना तो मजे आ जाते :)
@2279268144185781627.0
और हिन्दी की जो भी होती है वो अमूमन शिव खेडा, पाउलो कोहेलो, राबिन शर्मा और चेतन भगत के अन्ग्रेजी उपन्यासो के हिन्दी अनुवाद होते है।
मै तो कई बार उनके फ़ीड्बैक फ़ार्म मे लिख आया लेकिन उससे भी ’क्या’ होता है..
अभय जी के बारे जितना भी कहो या लिखो, कम ही पड़ेगा. मैं भी जब उनके घर गया था तो किताबें ही किताबें देखकर यही मन में आया था कि उनकी किताबों के साथ ही एक फोटो हो जाती तो भी बहुत था. अभय जी से और उनके लेखन से बहुत कुछ सीखने को मिलता है. ज़बरदस्त ज्ञान है उनके पास. हर विषय पर उनके अपने मौलिक विचार हैं. उन्हें जानना उपलब्धि जैसा है कुछ.
अभय जी से मिलकर (मुंबई ब्लॉगर्स मीट ) भी उन्हें उतना नहीं जान पायी,जितना तुम्हारी पोस्ट से जाना. इतनी किताबों से घिरे लोगों को देख इर्ष्या होने लगती है. लेकिन अभय जी एवं सतीश पंचम जी के सौजन्य से कई हिंदी किताबों के ठिकाने मिल गए हैं. (शायद कुछ दिन बाद लोग मुझसे भी इर्ष्या करने लगें :) ....अब आमीन कहो..:).)
उनकी लेखनी के तो सब कायल हैं. शुक्रिया एक अज़ीम शख्सियत से परिचित करवाने का.
@6678368898439468204.0
:)
अभय जी को पढ़ा है, बहुत अच्छा लगता है। विषयों में नवीनता रहती है।
पता हमें बता दें, कभी हम भी टपक जायेंगे।
लकी यू...
सरपत को लेकर कुछ हलचले मन में रही है हमेशा से.. उसका पोस्टर मुझे आकर्षित करता है.. बहुत कुछ मन में भी है... कभी मौका मिला तो अभय जी से करूँगा बात..
सबसे बड़ी बात इस दाढ़ी में भी वे भले आदमी लगते है ....कमाल है जो मुझे बताया वो लिखना भूल गये ....के अपने हाथ से चाय बनकर पिलाते है ....हमने तो तीन दिन पहले अपनी सीट बुक करा ली थी यूँ बॉम्बे में एक लाइब्रेरी पे तो डाका तय है ....वो है नीरज जी की .....यहाँ भी झाँक लेगे .....वैसे जोक्स अपार्ट ... .....उनकी चिंतन प्रक्रिया सतत चलती रहती है ....कई विषयों पर उनकी बेबाक राय मुझे यकीन दिलाती है वे तटस्थता के खेल में यकीन नहीं रखते .......
अभय जी से मिलाने का आभार ..पर मैं तो आपकी लेखनी का प्रवाह देख कर हैरान हूँ.जाने कितने अरसे बाद इस तरह का रोचक ,और प्रभावशाली संस्मरण पढ़ा है.
बहुत मोहब्बत से लिखा है भाई पंकज तुमने.. बहुत शुक्रगुज़ार हूँ.. और इतने सारे मित्र भी मेरे प्रति इतने उदार हैं यह जानकर मन सचमुच बड़ा मुदित है.. सब को अनेक धन्यवाद!
इन सुन्दर मुलाकातों को साझा करने का शुक्रिया. हम भी अभय की फैनलिस्ट में शामिल हैं.
अभय जी को बिल्कुल नहीं जानने से थोड़ा ज़्यादा जानना शुरू ही किया था अभी - कि पंकज पहचान कराने लगे।
अच्छी पहचान कराई उन्होंने।
कलामे-रूमी ज़रूर ख़रीदनी है हमें - मगर हम ये फ़्लिपकार्ट - वार्ट जैसी चीज़ों पर आस्था नहीं रखते, इस प्रकार की हरकतों को हम लण्ठई समझते हैं और हमारी इस तरह की बातों को नए ज़माने के लोग।
इस प्रकार लण्ठई की पारस्परिक आस्था ही एक मज़बूत रिश्ता जोड़ती है।
अभय जी की अभिव्यक्ति क्षमता उत्तम है। प्रमोद जी की भी, और दोनों मित्र हैं - यह जानना सुखद रहा। उदयप्रकाश को बहुत बार पढ़ा - मगर "पालगोमरा का स्कूटर" मैं आज तक भूल नहीं पाया। सीधे-सादे रामगोपाल का पाल गोमरा - तो लगा था कि कुछ हल्का-फुल्का व्यंग्य-परिहास-परिवाद होगा - मगर निकला बहुत गझिन! अब तो शायद डेढ़ दशक पुरानी हो चली होगी यह कहानी।
बहरहाल अभय जी से मुलाकात के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद पंकज!
मिलते रहो - लिखते रहो…
ये है रेशमी जुल्फ़ों का उजाला, संभल जाइए..
अभय तिवारी के बहुआयामी व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं पर आपकी नजर से हम भी लाभान्वित हुए !
मैं भी अभय जी की मूक प्रशंसिका हूँ, उनको ये बात नहीं मालूम... कम ही पढ़ा है उन्हें, पर जब पढ़ा तो डूबकर पढ़ा...सर पे गमछा बाँधकर.
@8977464330431637644.0
@रश्मि जी:
आमीन :)
वैसे इस बारे मे कम्पटीशन कर सकते है कि पहले कौन किसको जलाता है? मुझे तो बस अपने पास रखी हुयी ढेर सारी किताबो का एक फ़ोटो लगाना है बस.. मेरा काम तो हो जायेगा :D
@1524187452962110299.0
प्रवीण जी,
आपके मुम्बई टपकने का हमे भी इन्तजार रहेगा। :)
इन जैसे लोगों के बारे में पढकर, सुनकर, जानकर, समझकर लगता है कि हम कुँए के मेंढक ही बने रहे.. कुछ नौकरी की व्यस्तताएँ और कुछ दूसरी मजबूरियाँ... अहिस्ता आहिस्ता सारे लिंक देखता हूँ...लखनऊ गया तो पहले के.पी.सक्सेना जी के पैर छुए तब ईमामबाड़ा देखने गया... इतनी बार मुम्बई गया..पर अब नहीं. दर्शन करने ही पड़ेंगे तिवारी जी के... धन्यवाद पंकज जी!
@5430148693908011725.0
अनुराग जी, चाय वाला किस्सा आपने अच्छा याद दिलाया। उस दिन कुछ अच्छी किस्मत थी। उस दिन हमारा अनसोशल मूड सोशल बनने पर उतारू था और न जाने कबसे आपसे बात करनी थी सो आप से हुयी। उसी दिन प्रवीण जी से भी बात हुयी।
अभय भाई की बनायी हुयी चाय पीते पीते, उनसे बातें करते वक्त कुछ कुछ ’द लीजेन्ड ओफ़ भगत सिंह’ फ़िल्म के एक डायलाग सरीखा ही हो रहा था:
’एक क्रान्तिकारी की दूसरी क्रान्तिकारी से मुलाकात हो रही थी’ :) :)
@6937649328444239686.0
शिखा जी,
शुक्रिया, शुक्रिया, शुक्रिया... थोडा वज़न देने के लिये तीन बार शुक्रिया कहा।
@9098894165917209708.0
अनुराग भाई,
आपका भी आभार! :)
Pankaj....hamne to inhe nahi padha lekin ab padhne ki iksha zaroor hai
@1409672898432600386.0
आप आये हमारे ब्लॉग पर,
कभी हम खुदको, तो कभी अपने ब्लॉग को देखते है...
:। :। :।
@7394421375157378132.0
आराधना,
वाह वाह, तुम्ही असली पाठक हो। सर पे गमछा बाँध पाठक.. :)
@8154415046062841647.0
प्रिया,
नेकी और पूछ पूछ :) हो सके तो ’कलामे रूमी’ भी देखना..
अभय तिवारी जी को पढना होता है. जो सभी कह रहे हैं बिलकुल सच है. मैं क्या कहूं उनके बारे में. कभी मिलना नहीं हुआ. मुंबई अक्सर जाना होता था पर... खैर मिलना तो होगा ही. मुंबई कहाँ छूटने वाली है :)
हिंदी किताबों के लिए तो पुणे में मैं इतना परेशान हुआ कि मत पूछो ! अंततः दिल्ली से कुरियर से मंगानी पड़ी.
pankaj..... tiwari ji lag to rtahe hain bahut intresting....bahut bahut shuqriya parichay karwane ke liye... han ye kalaam e roomi bhi padh ke dekhunga...:)
achcha laga padhkar....aur yah pankti bhi अपनी उन पेशेवर असफलताओं का भी आभारी हूँ जिन्होने मुझे यह काम करने का आयाम उपलब्ध कराया(
आपकी लेखनी का प्रवाह पसंद आया. ..बधाई. कभी हमारे 'शब्द-शिखर' पर भी पधारें.
अभय तिवारी जी से परिचित करवाने का शुक्रिया.
एक ठेठ पाठक होना भी गर्व की बात है।
@6240030524463740783.0
सोनु जी,
वही शायद सबसे बडी बात है.. ठेठ पाठक आजकल मिलते किसे है..
आभार !
वाह पंकज भाई ! ह्रदय से आभारी हूँ ! अभय जी मेरे प्रिय चिट्ठाकार हैं .. जब ब्लॉग की दुनिया में कदम रखा था और अवधी-जज्बे के साथ , तभी इन महराज के टीपाशीष ने मन को उत्साह से भर दिया था .. मेरे मन की धारणा पुनः पुष्ट हुई कि हिन्दी ब्लोगिंग के नवोदित युवा गण 'गंभीरता' के मतलब को खूब समझ रहे हैं , कोई मुगालते में न रहे ! .. लिखने का आपका अपना अंदाज है ही , लुभाऊ ! ..पढ़ते पढ़ते ऐसा लगा कि कमरे के एक कोने में मैं भी हूँ , उदय प्रकाश वाली किताब की साइड में ! .. क्षमा चाहना , विलम्ब से आने के लिए , , , कभी -कभी फिजूल जगह उलझा रहता हूँ , जरूरी जगहों पर हाजिरी लेट हो जाती है :-) ! पुनः आभार सुन्दर सी प्रविष्टि का !
भई हम तो निशाचर प्राणियों मे हैं..सो सूरज की चमक का पता आप जैसे चाँद की पोस्ट की रोशनी से मिल पाता है..अभय जी के बारे मे इतना जानना सुखद रहा..हालांकि बहुत कम जान पाया हूँ..मगर और जान पाने की गुंजाइश रहेगी...
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