Saturday, July 31, 2010

घर लौटने का समय

- और?

- और क्या? उससे इतना प्यार करूंगी, जितना आजतक किसी ने किसी से भी नहीं किया होगा?

- सब यही कहते हैं…

- अच्छा, फ़िर इतना प्यार… इतना, कि कोई ’किसी’ से भी इतना प्यार करेगा तो मुझे ईर्ष्या होगी कि कोई किसी से भी इतना प्यार कैसे कर सकता है

- तो तुम खुद से ईर्ष्या करोगी?

- हाँ, जितना प्यार करूंगी, उतनी ईर्ष्या भी करनी पड़ेगी…

- इंट्रेस्टिंग…… लेकिन अगर तुम अपनेआप से ही उतना प्यार करो, तो? तो तुम्हे अपनेआप से ईर्ष्या भी करनी पड़ेगी? क्या ये संभव है? तुम्हे लगता है कि ये दोनो साथ साथ चल सकेगे?

 

और फ़िर वो एक सोच मे डूब जाती। उधर दूर सूरज भी धीरे धीरे डूबता जाता……

दोनो चुपचाप साथ साथ दूर तक देखते रहते। दोनो का अलग अलग ’दूर’  धीरे धीरे खिसकते खिसकते एक ’दूर’ हो जाता और तब दूरियाँ ’दूरियाँ’ नही रहतीं। वो उनके वापस घर लौटने का समय होता…

चुपचाप… साथ साथ…

27 comments:

kshama said...

Ye kathan adhura-sa jaan padta hai...ya shayad zindagee kaa adhoorapan darshata hai!

Bhawna 'SATHI' said...

itna kuch ankha rhne diya...sunder hai.

sonal said...

प्यार और जलन... इससे ना तो राधा बची थी ना आज की नारी बच सकती है
badhiyaa

प्रिया said...

:-)nanaha munna thought

परमजीत सिहँ बाली said...

बढिया पोस्ट।

Abhishek Ojha said...

बीच में ये लाइन नहीं आई: 'देखो मुझे परेशान मत करो, मैं करुँगी तो करुँगी बस !' :)

सम्वेदना के स्वर said...

सीमों द बुवाँ ने लिखा था कि नारी चुँकि अपने पुरुष को सम्पूर्णता से प्यार करती है, इसलिए उसकी हर नज़र पुरुष की उस नज़र में समाई रहती है, जो वह किसी और की तरफ उठाता है.
अगर यह सच है तो निश्चित तौर पर ईर्ष्या का जन्म वहीं से होता है. लेकिन ख़ुद से ईर्ष्या भी इसी तरह हो सकती है यह सोचा न था. विज्ञन के सिद्धांतों की तरह दो अलग अलग इंफिनिटी को एक होते भी देखा.
सुंदर!

प्रवीण पाण्डेय said...

प्यार को ईर्ष्या में काहे उलझाये दे रहे हैं बन्धुवर। गूढ़त्व उड़ेलकर जल्दी काहे निकल जाते हैं। उदाहरण भी दिया करें।

mukti said...

ये क्या था? समझते-समझते खत्म हो गया... कुछ कहा ही नहीं.
अपने आप से भी ईर्ष्या ? ये तो सच में बड़ा गूढ़ प्रश्न है. मैं बड़ी ईर्ष्यालु हूँ, पर मुझे तो कभी अपने आप से ईर्ष्या नहीं हुई. अपने पर कभी-कभी गुस्सा आता है, कभी तरस और कभी घृणा भी होती है, पर ईर्ष्या? वो तो होती ही दूसरे से है, वो इसीलिये बनी है. पता नहीं, हो सकता है तुम ऐसे 'किसी' से मिल चुके हो, जो खुद से ईर्ष्या करती/करता हो :-)

डॉ .अनुराग said...

एक लम्हा .एक डायलोग.कित्ता बड़ा कर देता है न एक दम......बॉय से मेन. में ट्रांसिजिशन

richa said...

दोनो का अलग अलग ’दूर’ धीरे धीरे खिसकते खिसकते एक ’दूर’ हो जाता और तब दूरियाँ ’दूरियाँ’ नही रहतीं। वो उनके वापस घर लौटने का समय होता…

चुपचाप… साथ साथ…

कभी सोचा आख़िर हमारी दोनों आँख दो होकर भी एक सा क्यूँ देखती हैं ? एक को हाथ से ढांप दो तो दूसरी फिर जो देखना चाहती है वो देखती है पर जब दोनों साथ देखती हैं तो अलग कभी देख ही नहीं पातीं... कुछ है जो उन्हें अलग होके भी अलग नहीं होने देता...

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

ये बहुत बहुत अधूरा अधूरा सा लगा, जैसे बहुत से संवाद चुपचाप ही हो गए।
इसके लिए क्या रीडिंग बिटविन द लाइंस का कोर्स करना पड़ेगा

ये तो सुना था कि प्यार इतना हो सकता है लेकिन खुद से इतनी ईर्ष्या ये तो कुछ अलग ही है, ऐसा पहले तो कभी नहीं सुना।

Manoj K said...

लेकिन अगर तुम अपनेआप से ही उतना प्यार करो, तो? तो तुम्हे अपनेआप से ईर्ष्या भी करनी पड़ेगी? क्या ये संभव है?

in lines mein kitna kuch kah diya, jeevan ke us padav ka kitna khoobsurat chitran....

Stuti Pandey said...

:-)

Kajal Kumar's Cartoons काजल कुमार के कार्टून said...

बहुत सुंदर.

अजय कुमार झा said...

अमां पंकज भाई ,,,,यार वो तो आजकल का प्यार इंटेलिजेंट हो चुका है सो between the lines समझ जाता है ....जो हमारा टेम होता न , तो जित्ती देर में ये लाईन समझते समझाते ...उत्ती देर में तो फ़ूलमती ....जालिम खान के साथ निकल लेती .....

अपूर्व said...

’हर रोज मै तुमसे इतना प्यार करती हूँ कि लगता है कि इससे ज्यादा प्यार कोई किसी से नही कर सकता..मगर फिर अगले दिन कुछ होता है और मै तुम्हे पहले से ज्यादा प्यार करने लगती हँ..हर बार!!’
कहीं पढ़ा था ऐसा कुछ..
प्यार की स्केलिंग का यह आपका अंदाज बढ़िया लगा..और मजेदार भी कि आज के घटतोली और मिलावट के जमाने मे प्यार की हदें तय करते हैं लोग..और उसे एक्स्टेंड भी...

...फिर क्या हुआ? :-)

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

भाई पंकज, लगता है बहुत क्लास पढ़े हो!
हम इतने पढ़े-लिखे नहीं, जो अपने आप समझ जाएँ!
खुल के बोलो यार!

Apanatva said...

kuch nai anubhooti ehsaas ka chitran........kashamkash ka bodh kara gaya ............

डिम्पल मल्होत्रा said...

दो अलग अलग "दूर" का एक "दूर" हो जाना :) क्या आईडिया है सर जी !इंट्रेस्टिंग

Amrendra Nath Tripathi said...

अरे पंकज भाई , पढ़ा तो पर ई प्रेम-तत्व बूझने में फिसड्डी हूँ शुरूवै का ... कुछ बूझा कुछ उपर्रै से गुजर गया .. अब आप सब को पढ़ते-पढ़ते कुछ प्रेम-अकिल आ जाय शायद ... अच्छा लिखा है आपने ! आभार !

bahujankatha said...

सवाल - इंट्रेस्टिंग…… लेकिन अगर तुम अपनेआप से ही उतना प्यार करो, तो? तो तुम्हे अपनेआप से ईर्ष्या भी करनी पड़ेगी? क्या ये संभव है? तुम्हे लगता है कि ये दोनो साथ साथ चल सकेगे?
जवाब - दोनो का अलग अलग ’दूर’ धीरे धीरे खिसकते खिसकते एक ’दूर’ हो जाता और तब दूरियाँ ’दूरियाँ’ नही रहतीं।
पंकज भाई मुझे कहना पड़ रहा है कि इसे एक कहानी का रूप दे देते तो क्या ही अच्छा होता।

अपनीवाणी said...

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Parul kanani said...

hehehe ..gud one..keep going :)

कुश said...

सांस और वक़्त अक्सर ऐसे ही किन्ही जुमलो पर अटक जाते है..
तुम पास होते तो मैं असली कमेन्ट देता.. फिलहाल इसी से काम चलाओ..

कुछ ख्याल और कुछ ख्वाहिशे said...

speechless.....

अनूप शुक्ल said...

बड़ी ऊंची बात कह दी सिरीमानजी ने। इत्ते लोग उलझ गये। जय हो!