Monday, June 7, 2010

राजनीति – मेरी नज़र से

poster-1 किसी फ्लॉप मूवी का एक डायलाग था कि यूपी-बिहार में हर घर में एक आईएएस, एक नेता और एक गुंडा होता है… मुझे ये कथन बड़ा जमीनी लगता है।

मेरे बाबा एक स्वतंत्रता सेनानी थे और एक कट्टर कांग्रेसी। मुझे याद है बचपन मे वो मुझे आजादी की लड़ाई के किस्से सुनाया करते थे और मैं उनकी बोर बातों से दूर भागता था। अभी अपनी सोंच बन भी न पायी थी कि पता चला था कि पापा और चाचा किसी चुनाव में बीजेपी को वोट देकर आये थे और हमें  ये बात बाबा को नहीं बतानी थी। राजनीति को बाबा, पापा और चाचा की नज़र से ही देखता था। जब तक बाबा जिंदा रहे कांग्रेस के नाम से घर में हल्ला मचा देते थे। उनके जाने के बाद घर में कई बार ऎसा भी हुआ कि पापा बीजेपी को वोट देते थे और चाचा सपा को और कई बार घर के आठ वोट एक जगह पर भी गिरते थे।

इस मुद्दे पर मेरी समझ अभी भी नहीं  बन पायी है। कुछ साल पहले जब लखनऊ में भविष्य की  दिशाओं की खोज कर रहा था, तब अटल जी से जरूर प्रभावित था। कुछ समय ’विद्यार्थी निवास’ में रहा भी, जहाँ रहकर अटल जी ने कभी अपने पिता जी के साथ एक ही कक्षा मे वकालत(Law) की पढाई की थी। उनको कुछेक पत्र भी लिखे और इन बातों पर कई बार मित्रों के बीच हंसी का पात्र भी बना। एक बार राउरकेला में एक पर्सनालिटी डेवलपमेन्ट क्लास के दौरान काउंसलर ने क्लास से पूछा कि आपमें से कितनों में  लीडरशिप क्वालिटीज़ है? कितने लोगो को लगता है कि वो लीड कर सकते हैं? मेरा हाथ तुरंत हवा में उठ गया। मै सबसे आगे वाली पंक्ति में था। आस-पास देखा… फ़िर पीछे घूमकर देखा तो सिर्फ़ मेरा हाथ ही हवा में था…

गुजरात में  दंगे  हुये… नये चुनाव हुये… अटल जी अपनी बातों पर अटल नहीं रह पाये… बीजेपी एक लीडरशिप क्राईसिस में दिखी… यूपी में पुराने नेता रद्दियो में बदलते गये और नया कुछ वो ढूढ नहीं  पाये… कुछ ने ’उत्तम प्रदेश’ के सपने भी दिखाये लेकिन साइकिलों के पहियों में ही खो गये… जनसँख्या पर ध्यान देने की बजाय मूर्तियो की संख्या पर नेताओं का ध्यान ज्यादा दिखा… और इन सबने मुझे दूर, बहुत दूर कर दिया। …… अब अगर वो काउंसलर वो सवाल फ़िर से पूछेगी, वो अकेला हाथ भी उसे खड़ा  नही दिखेगा।

 

अभी अभी ’राजनीति’ देखकर लौटा हूँ… कुर्ते-पायजामे से डेनिम-नोन डेनिम पहने हुये  पात्रों को ’सिर्फ़’ राजनीति करते हुये देखा। भीड़ों को भटकते हुये देखा और इन पात्रों को उन भीड़ों को बरगलाते हुये। सबको उस ’कुर्सी’ तक पहुचने के रास्ते तलाशते देखा और उस कुर्सी के बाद एक डेड एन्ड को भी…

इस फ़िल्म ने राजनीतिक गलियारो में घुसते हुये  जो कहानियां दिखायीं, उन्हें  देखकर युवाओं के गंदी राजनीति में जाने के सपने को चोट ही लगनी चाहिये। सच्चाई कड़वी होती है और मै अभी इस कड़वेपन को महसूस कर रहा हूँ…

फ़िल्मी लिहाज से मूवी ने अंत  के कुछ पहले तक बांधे  रखा और अंत में जैसे अपनी ग्रिप छोड़ती नज़र आयी। इंटरवल तक कहानी में एक कसावट थी जिसे मैंने अपने आस पास भी महसूस किया। इंटरवल के बाद की कहानी ओबवियस होती गयी और अंत बेहद फ़िल्मी… फ़र्स्ट हाफ़ तक कहानी महाभारत जैसी लगती रही… सेकन्ड हाफ़ मे जबरदस्ती इसे महाभारत बनाने की कोशिश सी दिखी… कहानी मे काफ़ी कुछ परोसकर रखने के बजाय, बिटवीन द लाईन्स भी छोड़ा जा सकता था… अंत में बचे हुये मोहरों  के बीच करवाया गया युद्ध, महाभारत युद्ध कम और गैंगस्टर वार ज्यादा लगा और उस वक्त समर के हाथ मे दी गयी पिस्टल, एक इंटेलीजेंट पात्र को बेहद फ़िल्मी बना गयी।

 

poster-3आखिर में मुझे बस एक चीज़ ने कचोटा कि क्या होता अगर एक जागरुक, दलित नेता ’सूरज’ जो इस राजनीति में सबसे गंदा होते हुये भी कईयों से साफ़ था, अंत में कुर्सी पर बैठता और न कि ‘इंदु’  जिसने जमीनी सच्चाई कभी देखी ही नहीं थी, जिसे इन सारे पात्रों में से राजनीति की सबसे कम समझ थी?

23 comments:

mukti said...

मैं हमेशा से राजनीति में जाने के सपने नहीं देखती थी. मैं तो आई.ए.एस. बनना चाहती थी. पर पिछले चार-पाँच साल दिल्ली में बिताने के बाद अब सोचने लगी हूँ इस बारे में. क्योंकि दिल्ली में माहौल और जगहों से थोड़ा अलग है. फिर भी अगर आप दिल्ली यूनिवर्सिटी में नहीं पढ़े हैं और छात्र राजनीति नहीं की है तो काफी मुश्किल है. लेकिन इतना तो तय है कि अगर यहीं के किसी कालेज में असिस्टेंट प्रोफ़ेसर बन गयी तो एक बात ज़रूर सोचूंगी. खैर जानती हूँ कि राह बड़ी मुश्किल है ये ...
ये फिल्म मैंने नहीं देखी है. पर जिस तरह से तुमने इसकी समीक्षा की वो अच्छा लगा. यू.पी. में कभी-कभी ऐसे हालात हो जाते हैं कि स्थिति गैंगवार सी लगने लगती है. कुछ सालों पहले इलाहाबाद में सपा-बसपा के बीच ऐसा ही हुआ था, पर बड़े नेता अक्सर हाथ में बन्दूक नहीं उठाते, वो सेफ गेम खेलते हैं.

निशांत मिश्र - Nishant Mishra said...

फिल्म देखनी पड़ेगी.
बाकी राजनीति का जो हाल बयां किया है, उसमें सुधार देखने जितना आशावादी मैं नहीं हूँ.

sonal said...

कल ही राजनीति देखी,फिल्म वास्तविकता के काफी करीब लगी पर अंत से मैं सहमत नहीं हूँ,क्या सारे पात्रो को मार देना ही सही था ...
ये कांग्रेस और बी जे पी वाला किस्सा हमारे घर में भी आम था ..ताऊ जी कट्टर कांग्रेसी बाकि परिवार बी जे पी को वोट करता था , चुनाव में एक महाभारत हमारे घर में भी चलती थी

anjule shyam said...

फिल्म '' राजनीति '' को गर मुझे 5 स्टार में से स्टार देने हो तो इसे 4 स्टार दूंगा.गर इंटरवल के पहले हिस्से को देखते दूँ तो पुरे 5 स्टार और इंटरवल के बाद के हिस्से के के लिए केवल 2.50 स्टार.एक बहुत बढ़िया फिल्म बनते - बनते ये रह गई है....बस बढियां फिल्म.फिर भी ज्यादतर लोगों के लिए ये लाजवाब फिल्म लगेगी...
(कुर्ते-पायजामे से डेनिम-नोन डेनिम पहने हुये पात्रों को ’सिर्फ़’ राजनीति करते हुये देखा। भीड़ों को भटकते हुये देखा और इन पात्रों को उन भीड़ों को बरगलाते हुये। सबको उस ’कुर्सी’ तक पहुचने के रास्ते तलाशते देखा और उस कुर्सी के बाद एक डेड एन्ड को भी…)
- इस राजनीति का सकुनी मामा कहते हैं ये शायद महाभारत के सकुनी का भी डॉयलाग होगा - राजनीति में कुछ भी सही गलत नहीं होता, होता है तो सिर्फ मकसद,चाहें जैसे बी पूरा हो...और आज या बीते कल की राजनीति हो सबका मकसद तो केवल यही था ..एक मात्र कुर्शी पाना....जनता जाए भाड़ में ........
( फ़िल्म ने राजनीतिक गलियारो में घुसते हुये जो कहानियां दिखायीं, उन्हें देखकर युवाओं के गंदी राजनीति में जाने के सपने को चोट ही लगनी चाहिये। सच्चाई कड़वी होती है और मै अभी इस कड़वेपन को महसूस कर रहा हूँ…)
- र्ते-पायजामे से डेनिम-नोन डेनिम में जिन नेतावों को राहुल राजनीति की बिसात पे लाराहे हैं उनकी भी राजनीति का यही हस्र होने वाला है..मेनेजमेंट की पढाई किये नेता केवल एक बात जानते हैं कंपनी का फायदा करा और यहाँ कंपनी है कांग्रेस चाहें जैसे भी हो केवल फायदा कस्टमर को नुकसान होता है तो होता रहे ..कस्टमर कोंन है ,..यही हम आप..आखिर मेनेजमेंट की पढाई में यही तो सिखाया गया है......
(अगर एक जागरुक, दलित नेता ’सूरज’ जो इस राजनीति में सबसे गंदा होते हुये भी कईयों से साफ़ था, अंत में कुर्सी पर बैठता और न कि ‘इंदु’ जिसने जमीनी सच्चाई कभी देखी ही नहीं थी, जिसे इन सारे पात्रों में से राजनीति की सबसे कम समझ थी?)
-हकीकत ये है की राजनीति की इस बिसात पर मुझे बिना किसी बलिदान के केवल एक शख्स जित्त्ता लगा और वों था कैट का बाप जो की कहीं भी नज़र नहीं आता वों जितना चाहता है उससे बढ़ कर उसे मिलता है चाहें अनचाहे दोनों तरीकों से ...और या हक्कीकत की राजनीति में भी ये बिसनेस मैन पत्र कभी सीन में नज़र नहीं आता लेकिन जित इसी की होती है चाहें कोई भी पार्टी जीते सेटिंग इसकी हमेसा चलती है........

स्वप्निल तिवारी said...

film to abhi dekhi nahi pankaj..par dekhunga zaroor... baharhaal ..humare ghar me pahle congress aur BJP wala kissa hota tha..par ab kya halat hai nahi pata... han politics se main tab bhi door rah gaya..aur ab doori thakan ka dar dikhati hai ...

दिगम्बर नासवा said...

अभी तक दखी नही फिल्म ... चर्चे ज़रूर सुने हैं की अच्छी फिल्म है ...
जहाँ तक इंदु के कुर्सी पर बैठने का सवाल है ... वो तो होना ही था .. झा साहब ने भी तो हक़ीकत दिखानी थी .. इस सच को हम नकार नही सकते .. अपने देश का १००० से भी ज़्यादा वर्षों का इतिहास गवाह है की राज इंदु या कोई इंदु जैसा (जाती के आधार पर) ही राज करेगा ...

varsha said...

kal hi film dekhi...mujhe achchi lagi...kai drashya adhbut hain.. aapne film ke bare mein sahi likha hai khaskar ant kuch natkiya ho gaya hai...mahabhrat se bhi kuch hi patra relate kiye ja sakte hain.krashn aur shakuni mama nahin mile aur kunti ne bhi kuch khaas prabhavit nahin kiya. duryodhan aur karn film ki jaan jain ..jha sahab ki film hai isliye sara ki maa bhi dikhayee de gayeen...beshak agar yahi rajneeti hai to yuva is aur nahin jayega aur agar jana chahta hai to yah uske homework mein shamil ho sakti hai.

Sanjeet Tripathi said...

ham to lagta hai galti kiye bhaiya, talkies wale ke free me cinmena dekhne k aamantran k bad bhi pahle din ye film dekhne nai gaye, ab jana hi padega vo bhi paise dekar ;)

baki rajniti ki aapne hakikat bayaan ki hai bandhu.

are han! yah jankar khushi hui ki aapke ghar me bhi freedom fighter rahe hain...

shikha varshney said...

राजनीती की तरफ मेरा कोई रुझान नहीं है ..ओर राजनीती फिल्म अभी देखी नहीं है.. देखनी है...पर हाँ हमारे देश की राजनीती के हालात सुधर सकते हैं ,अगर पड़े लिखे . राजनीती के ज्ञाता इस फील्ड में आयें .हम देखते हैं कि बाहर के देशों में नेता वही बनते हैं जिन्होंने राजनीती शाश्त्र या ऐसा ही कुछ कम से कम ग्रेजुअशन लेबल तक पढ़ा होता है ..पर हमारे यहाँ तो गुंडे ,सजायाफ्ता डकैत या अंगूठाछाप सबको राजनीती का शौक है .

richa said...

हमारे घर का माहौल भी काफ़ी कुछ आपके घर जैसा ही है पंकज... हमारे बाबा भी एक स्वतंत्रता सेनानी थे और एक कट्टर कांग्रेसी... और ये वोटों की लड़ाई भी काफ़ी कुछ ऐसी ही होती थी घर में :) पर शायद तब और अब में बहुत फर्क है... राजनीति अब सिर्फ़ कुर्सी, पॉवर और पैसे का खेल रह गया है...
शनिवार को ही देखी ये पिक्चर... नाम शायद "राजनीति" की जगह "रिश्तों की राजनीति" होता तो ज़्यादा उपयुक्त होता... सच कहूँ तो पिक्चर देख के अच्छा नहीं लगा... पिक्चर अच्छी है इसमें कोई दो-राय नहीं... पर कभी कभी इतना कड़वा सच भी अच्छा नहीं लगता... एक कुर्सी के लिये इतनी हिंसा... रिश्तों और मान मर्यादा का सरे आम क़त्ल... उबकाई सी आने लगी... अजीब सी फीलिंग के साथ घर वापस आये... ये सोचते हुए की क्या सच में इमोशंस, वैल्यूज़, एथिक्स, मॉरल्स सब "extinct" होते जा रहे हैं इस धरती से... शायद किसी NGO को उन्हें बचाने के लिये भी कोई "campaign" शुरू करना चाहिये जल्द ही...

kshama said...

Film dekhne ki chaah waise bhi nahi thi,ab aur bhi kam ho gayi...yatharth to yah hai,ki,chahe raajkarni hon,IAS ke afsar hon yaa gunde, janm lete hain hamare hi samaj me...wahin panapte hain..

Himanshu Mohan said...

पंकज!
यह टिप्पणी इसी पोस्ट पर नहीं है। पिछ्ले काफ़ी दिनों के लेखन का तब्सरा ही समझ लो। आप लिखते पहले भी अच्छा थे - या बहुत अच्छा।
मगर इस बीच जो हुआ है, वो ये कि आप लगातार अच्छा लिख रहे हैं, बेहद अच्छा। सभी तरह का। चाहे वो राजनीति की समीक्षा हो, फ़िल्म के बहाने; चाहे कवितानुमा आलेख। या फिर वो संस्मरण के पहनावे में आधी सच्ची - आधी कल्पना से गढ़ी हुई कहानी हो - सब में एक कसाव है। शायरों की ज़बान में कहें तो "वज़्न" आ गया है आपकी बातों में।
मैं यहाँ तारीफ़ करने नहीं आया। मैं तो यह पूछने आया हूँ कि वो क्या (या फिर कौन) आया है तुम्हारी ज़िन्दगी में - जिससे यह "वज़्न" आ गया है - जो कोशिशों से नहीं आता - बकौल मुंशी जी के जो उन्होंने 'शराबी' फ़िल्म में समझाया था अपने पाले-पोसे विक्की बेटे को - जो किसी और ही तरह से आता है जिसमें दर्द का हाथ कम, कसक का ज़्यादा होता है।
कौन है वो?
:)

प्रवीण पाण्डेय said...

राजनीति को अलग पेशा समझ लेना मन को कभी स्वीकार नहीं हुआ । इसलिये राजनीति में कोई मात्र राजनीति करने ही आये, यह तथ्य भी हज़म नहीं हुआ । समाज के सभी विषयों से जुड़ी है राजनीति । क्या सही है, क्या नहीं, इसका निर्णय क्या वे लोग कर पायेंगे जिनकी अपनी मज़बूरियाँ हैं । यदि आपको कुछ बाधित कर रहा है तो आप राजनीति छोड़ दीजिये । आपकी कमजोरी औरों का भविष्य ले डूबेगी ।
चलिये फिल्म भी देखेंगे ।

Stuti Pandey said...

हिमांशु जी की बात से मैं भी सहमत हूँ और मेरा भी वही सवाल है..."कौन है वो?" (आई होप तुम माइंड नहीं करोगे)

abhi said...

बता भी दो कौन है...
(आई होप तुम माइंड नहीं करोगे) :P

abhi said...

वैसे ये पोस्ट मैंने सुबह ही पढ़ी थी, जल्दी में था तो कुछ कमेन्ट नहीं कर पाया..
गजब का समीक्षा है भाई...
सही कहा अंत में थोड़ा फिल्म ग्रिप छोर देती है लेकिन ओवरऑल फिल्म इज ग्रेट :)

और रही बात पोलिटिक्स की तो हमारे घर में भी कितने किससे चलते हैं पोलिटिक्स को लेकर ;) दोस्तों में भी :)

अपूर्व said...

एक अच्छा लेख है यह ’राजनीति’ को लेकर..और ’पॉलिटिक्स’ के लिये भी..हिमांशु जी की बात से शब्दशः सहमत हूँ और उनके सवाल से भी पूरा इत्तिफ़ाक है...;-)

Sanjeet Tripathi said...

himanshu jee ke kathan ka javab diya jaye saheb, meri tarah bahut se log waiting line pe hain aapke javab ki..........

rashmi ravija said...

अमूमन मैं फिल्म देखने से पहले उसके बारे में कुछ पढने से बचती हूँ...पर आपने लिखा है तो पढ़ ही लिया...वैसे इंटरेस्ट किल नहीं हुआ...उतनी ही बातें हैं जितनी की कल्पना फिल्म का नाम सुनकर भी की जा सकती है...और क्लाइमेक्स तो शायद आज तक मुझे किसी भी फिल्म का पसंद नहीं आया...अगर सोचने बैठूं,तब भी कोई नाम नहीं मिलेगा...इसलिए क्लाइमेक्स से ज्यादा उम्मीद होती नहीं...हाँ घोर आर्ट फिल्म बनाने वाले निर्माता ने सितारों को लेकर कैसा कमर्शियल टच दिया है और कैटरीना से कैसा काम लिया है,ये देखने की उत्सुकता जरूर है.

और ये फ्रंट से बैकग्राउंड में जाने का सफ़र कब और क्यूँकर शुरू हो गया....काउंसलर के पूछने पर उठने वाले हाथ का मोहभंग क्यूँ हो गया...यह तो अफसोसजनक है

Himanshu Mohan said...

आया था। राजनीति के बारे में दुबारा नहीं पढ़ना चाहता सो जा रहा हूँ। कोई पुरानी पोस्ट ही पढ़ लूँगा। मेरे लिए तो वो नई ही होगी।

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ said...

YAAR PANKAJ (KEH SAKTA HOON?),
FILM TO DEKHI NAHIN, ISLIYE KUCHH KHAAS SAMAJH ME NAHIN AAYA, PAR POST KA PEHLA HISSA BAANDH RAKHNE ME SAKSHAM HAI....
MAIN BHI ATAL JI SE PRABHAVIT THA.... EK AJEEB SA APNAPAN MEHSOOS HOTA THA, BJP KE SATH BHI KUCHH AISA HI LAGAV THA 'INDIAN MIDDLE CLASS' KA.....
LEKIN AB I BELIEVE, THERE IS NO PARTY WITH A DIFFERENCE, RATHER EVERY PARTY IS WITH DIFFERENCES!
PHIR BHI, 'BY DEFAULT' OPTIMIST HOON, VOTE ZAROOR KARTA HOON....

Asha Joglekar said...

Aapane Rajniti film ki bshut schchi sameeksha kee dekhana padegi film.

अनूप शुक्ल said...

अच्छा लिखा है। टिप्पणियां भी मजेदार है।
हिमांशु जी का सवाल उलट के पूछा जाये कि कौन था अभी तक जिसके चक्कर में पडकर लगातार अच्छी पोस्टें नहीं लिख पा रहे थे? :)

नेतृत्व क्षमता केवल रा्जनीति में ही नहीं सब जगह अपना जलवा बिखेरती है। हाथ भले न उठे लेकिन जिनके भीतर यह क्षमता होती है वे आगे आते ही हैं।

जय हो।