Monday, June 14, 2010

आसमान के पेशेवर होने से बस थोड़ा सा पहले…

DSCN1655 लोकेशन – कोयमबटूर… साल २००७ के जुलाई महीने का पहला हफ़्ता… दो महीने चली एक रिगरस ट्रेनिंग के बाद आने वाले ४-५ दिनों में हमें अपनी अपनी ब्रांच लोकेशन्स में रिपोर्ट करना था… फ़ोटो खिंचाई अभियान जोरों शोरों पर था और स्लैम बुक भरवाई कार्यक्रम भी… दो महीने  में बने रिश्ते नाते छलक रहे थे… रोज़ थोड़ा थोड़ा सेन्टियाना बनता था… सुंदरियों को विदा करने वालों की लाईने लगीं थीं  और कई आधी अधूरी कहानियां बिखरने को तैयार थीं… प्रोफ़ेशनल ज़िंदगी में पहला कदम था और पेशेवर हवाओं में सिगरेट के छल्ले उड़ाने के अरमान…

उस दिन ओफ़िशियल ग्रुप फ़ोटो खींची जानी थी… मै हमेशा की तरह लेट था… पहुँचते ही किसी की आवाज़ आकाशवाणी की तरह आयी थी कि आईये ’पंक्चुअल पंकज’, क्या बात है हमेशा की तरह टाईम पर और हम अपनी बत्तीसी नपोरते हुये फ़ोटो के लिये खड़े लोगों में जगह बनाते हुये कहीं खड़े हो गये थे… जैसे दिमाग में  लेट में  दाखिल हुआ कोई विचार, दिमाग की पहले से बजा रहे विचारों के साथ जगह बनाकर खडा हो जाता है…

अगर कुछ दिन और पीछे चलें, तो कहानी यूं थी कि कोई मैडम (कुंवारी थी या R001-027मैरिड, उससे आपको क्या  लेना देना…) क्लास मे अलग अलग जगहों से आये हुये लोगों को एक दूसरे के और करीब लाना चाहतीं थीं… यू नो ’टीम स्किल्स’… तो चूतियापे भरा काम यह था कि आपको अपने नाम के पहले अक्षर से शुरु होने वाला कोई विशेषण, अपने नाम के साथ बोलना था और आपके बाद पड़ने वाले लोगों को आपका नाम उसी विशेषण के साथ बोलना था… हमेशा की तरह सबसे पहली दुनाली हमारे सीने पर रख दी गयी… दिमाग के भीतर के सारे वायर्स बडी मुश्किल से एक विशेषण ला पाये और एक स्लो मोशन में जैसे हमारे अन्दर से फ़ूटा - ’पंक्चुअल पंकज’। निकलते ही आत्मा को समझ आ गया कि बॉस! तुमने अपनी ही गोल पोस्ट मे गोल दाग दिया है… और ठहाकों की आवाज जैसे दर्शक दीर्घा मे उस गोल के होने की खुशी को बयान कर रही थी… किसी अत्यंत खुश दर्शक की खुशी से भरी एक लाईन भी मार्केट में उसी वक्त आयी थी – “साले तो रोज बस क्या ड्राईवर लेट करवाता है…”  :(

अब उन्हे मैं कैसे बताता कि साला मेरा रूममेट है जो मुझसे आधे घंटे पहले का अलार्म लगाता है और उसके बाद एक घंटे वो रूम से अटैच्ड उस इकलौते पाखाना+गुसलखाना टाईप कमरे में। मेरे अलार्म में मुझे उठाने की हिम्मत कभी नहीं रही… वो ’कोशिश करने वालो की हार नही होती’ की तर्ज पर हर पांच मिनट के बाद मुझे उठाने की कोशिश करता और फ़िर थक हारकर किसी तकिये के नीचे, नही तो मेरे पेट के नीचे… नही तो बेड के नीचे पड़ा मिलता। सुबह सुबह उसे देख यही लगता कि उसने आत्महत्या के कई असफ़ल प्रयास किये हों… नहीं तो मुझे जगाने के…

मेरा रूममेट, मेरा भाई, मेरा दोस्त, मेरा सच्चा दोस्त… अपने सारे क्रियाकलाप खत्म करने के बाद टाई पहनते हुये मुझपर अहसान करते हुये मुझे जगाते हुये कहता कि “जल्दी कर, बस आ गयी है” और फ़िर अपनी टाई बाँधने में मशगूल हो जाता… उठते ही मैं उसकी स्वार्थी कम दयावान टाईप पर्सनालिटी पर गर्व करता कि आज ये न होता तो क्या होता :( :)… और उसके टाई बांधकर, लिफ़्ट से नीचे जाते हुये बस मे बैठकर सबसे ये कहने से पहले कि चलो उसे लेट हो जायेगा, मुझे सारे क्रियाकलाप खत्म करते हुये बस तक पहुँचना होता था… अब इतना तो आपको अंडरस्टुड होगा ही कि ’सारे क्रियाकलाप’ मतबल ’सारे’ से ’कुछ कम’… ;) डियो वियो का जमाना है बॉस…

हाँ तो ग्रुप फ़ोटो के लिये जगह मिल गयी थी… ’पंक्चुअल पंकज’ जुमले ने जो आड़े तिरछे दांत नपोरवा दिये थे वो फ़ोटू लेने वाले भाईसाहेब को हजम नही हो रहे थे… कह रहे थे कि ’इस्माईल दो, दांत मत नपोरो’… अच्छा हुआ मन में हंसने के लिये नहीं कहा नहीं तो हमको तो उसकी प्रैक्टिस भी नहीं थी… खैर… कोडैक क्लिक हुआ… इस्माईल किये हुये और सबने उस लम्हे की एक एक कोपी की गुज़ारिश भी कर दी और अपनी अपनी चकाचक, रंगारंग स्लैमबुक निकालकर बैठ गये… हाय हमें लगा कि हम फ़िर से लेट… दौड़ कर बगल वाली स्टेशनरी की दुकान से एक ५ रूपये की डायरी उठा लाये और बिछा दिये सबके सामने…

आज घर की सफ़ाई करते हुये वही डायरी मिली… खोयी हुयी अच्छी चीज़ें, सरप्राईज के साथ मिलने पर मूड बना जाती हैं… इस डायरी ने भी बखूबी अपना काम अंजाम दिया… ये पोस्ट हिमान्शु जी और अन्य लोगों को डेडीकेटेड है जिनके मूड को मेरी लास्ट पोस्ट की वजह से डाउन होना पड़ा… उम्मीद है एक मुस्कराहट दे पाउँगा जैसे इस डायरी ने मुझे दी है…

इसी डायरी से हमारे लिये कही गयी कुछ अनसेन्सर्ड तारीफ़े ;) 


- अबे कंजूस, एक अच्छी स्लैम बुक खरीद… I have only two words for you (Hope you had seen WWF some point in your life!!)  MISS U :(

- भाभी को सिद्धार्थ का प्यार देना ;)

- ’बक भो……’  वेल स्पोकेन!!

- What a jolly person you are! रियली तुम्हारे बिना तो बस मे माहौल भी नही बनता था… तुम्हारे कमेन्ट्स on GPL ceremonies were ‘wunderwar’… And timely asking ‘BHAI KUCH HO TO BATA DENA……’

- Punctual Pankaj!! साला लोगो को पागल समझ रखा है क्याR001-019? लेकिन फ़िर भी मैं पागल  हूँ। तेरे लिये मैं ये भी करने को तैयार  हूँ। साले एक तेरे कारण हम लोगो को स्मोक करने के लिये इतनी दूर जाना पड़ता है… साला जरूरी था कैम्पस के अन्दर स्मोक करना… कुछ नही इस कारण लोगो से मुलाकात हो जाती है। और पता है in the beginning of ILP लोग कहते थे कि पंकज लोगों  की मारता रहता है तो मै लोगों से कहता था कि कौन है साला…तुम लोगों को मारना नही आता क्या… जब मिला तो पता चला कि कौन है साला। साले डीजी की इतनी मत मारा कर और पीयूष की भी… साले तू वो दिन याद करना जब तेरे कारण कोलिन सर ने हम लोगों  को डांटा था… साले कम पी लिया कर… चल कोई नही, ज्यादा नहीं लिखूंगा, नहीं तो कहेगा कि साला interactive हो गया है…

- Hi Tau! you are very nice, ugly, technically bullshit… ताई से कब मिला रहा है…… अभी जो लिखा सब बकवास। you rock man!!

- Hello Pankaj! Nice to have you as a friend. Its so nice that you are so caring, good at heart, try to calm others, solve their problems. You have such a great knowledge about everything. Be the way you are. Don’t change and do take care of yourself. You’ll surely achieve all the success… Have a great life ahead. Don’t forget us. You’ve got a good smile :)

- Hi Pankaj! I met you in ILP and our whole batch feels that you are very intelligent person. (बहुत हो गया क्या?) You are very nice person. got a great sense of humor and one good thing about you is you care for others. Keep it up. Keep smiling. Wish a great future… Dont forget us. keep in touch..

- Hello Pankaj! You are a very good, helpful and smiling friend and I would also like to mention that you are technically very strong. So मुम्बई मे doubts clear kar dena.. Keep in contact in “Mumbai”.

- Enjoy Life… उठा ले!!:)


31 comments:

गिरिजेश राव, Girijesh Rao said...

क्या बात है! इसे कहते हैं संस्मरण। इतना आत्मीय। अति सुन्दर।

abhi said...

वाह यार मजा आ गया पढ़ के.. :)
और वो स्लैम बुक हम भी खूब भरवाते थे ;)

:)

abhi said...

और वैसे, कल हमें डायरी तो नहीं लेकिन कुछ चीज़ें मिली जिसने हमें भी कुछ पल याद दिलाये...कभी सुनाऊंगा :)

दिलीप said...

waah silsilevaar padhta hi chala gaya bina ruke kuch apni bhi yaadein sath ho li...

ZEAL said...

Punctual Pankaj ji,

Beautifully written post !

Congrats !

ZEAL said...

Pankaj ji,

In your last post you asked me to open a blog of my own. I listened to you.

http://zealzen.blogspot.com/

Thanks for the wonderful suggestion.

zeal

mukti said...

वाह बॉस ! क्या पोस्ट है? गजब ! हमलोग भी स्कूल के दिनों मैं स्लैमबुक भरवाते थे... उसके बाद छोड़ दिया... तो ऐसी कोई डायरी तो नहीं हमारे पास ... पर हॉस्टल लाइफ के फोटोग्राफ भुत से हैं... कभी-कभी एल्बम पलटती हूँ, तो मैं भी उन दिनों में चली जाती हूँ.

रंजन said...

mast...

kshama said...

Bahut badhiya sansmaran...sahaj,sundar shaili,aisi ki,padhna shuru karo to ruk nahi pate!

स्वप्निल तिवारी said...

je baatttttttttt... :) apni slam book yad aa gayi sasuri ..dhundh ke ek round hum bhi padh lenge.. :)

प्रवीण पाण्डेय said...

यह तो tip of iceberg है । बाकी स्वयं बतायेंगे कि पकड़ें आपके किसी बैचमेट को ।

Sanjeet Tripathi said...

praveen ji ne sai baat kahi boss,
je to tukda bas hai ek,

apni yado ke samandar me gote lagate raho aur idhar hame padhwate raho.
accha laga.

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

Anupama:

It's so beautiful Pankaj.... Aankhon mein paani aa gaya.. thanks for bringing out those beautiful days again :)

Prem:

apni zindagi ke bahut hi yadgar 2 mahine..in terms of all ( tough life, masti bhari life, ghumne phirne ki life, naye dost banane ki life)..12 July 2007 , tha day when we entered in out professional life , corporate life..tab hame professional ka 'P' and corporate ka 'C' bhi nahi pata tha..:):) us hectic schedule mein bhi ..we found sm time to visit some good places of TM ( Ooty , kodaikinaal) ...or shuru ho gaya logo ka time pass..( we forgot about or submission n all n enjoyed alot). i still remember that day , the final day , the scene of railway station :):)..i will always remember those days guys...thank u all to make those 2 months memorable to me...:):)

shikha varshney said...

बहुत बढ़िया ..अपने भी कॉलेज की सलेम बुक याद आ गई :)

Udan Tashtari said...

वाह! बेहतरीन!!आनन्द आ गया संस्मरण पढ़कर.

देवेन्द्र पाण्डेय said...

मस्त लिखा है भाई ..वाह! क्या बात है मजा आ गया पढ़कर.

Stuti Pandey said...

एकदम 'गर्दा ब्रांड' लिखे हो - :D

भाभी को सिद्धार्थ का प्यार देना ;) - एकदम जानलेवा :D :D :D

Anonymous said...

wow.....mast life jee hai...guzra zamana hamein bhi yaad aa gaya ....apun peshewar nahi they tabhi acchey they

प्रिया said...

wow.....mast life jee hai...guzra zamana hamein bhi yaad aa gaya ....apun peshewar nahi they tabhi acchey they

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

@दिव्या:
saw your blog.. Good to see that even you have a place now.. :) Nice blog..

@प्रवीण जी/सन्जीत भाई:
:)

@स्वप्निल/ शिखा जी/अभिषेक:
तो स्लैमबुक शेयर की जाय..

richa said...
This comment has been removed by the author.
richa said...

हम्म... पंक्चुअल पंकज जी आज तो आप यादों के फ्लैशबैक में ले गये... बड़ी याद आ रही है अपनी स्लैम बुक की... अभी ढूंढते हैं... वो सॉन्ग भी बड़ा याद आया ये पोस्ट पढ़ के - "बस यादें, यादें, यादें रह जाती हैं, कुछ छोटी छोटी बातें रह जाती हैं..." :)

दीपक 'मशाल' said...

पोस्ट है या 'टेम्पेल टटेल' भाई... एकदम धुआंधार.. दाँत भी खूब निपोरवाये भाई, हमारे भी... :)

Himanshu Mohan said...

वसूल है भाई!
पंकज, अगर ऐसी पोस्ट से भरपाई करने को राज़ी हो तो महीने में पन्द्रह बीस पोस्टें "वैसी" मंजूर।
तुम्हारी ये पोस्ट पढ़ के मुझे अपने भतीजे की याद आ गई - अभी अप्रैल में मुम्बई गया था उसका कन्वोकेशन अटेण्ड करने। एमबीए करके निकल रहा था - उसके यहाँ जो किताब छपी थी सभी बैचमेट्स के विवरणों की - उसमें लिखा था कि क्लास के अलावा सब जगह पाए जाते हैं भाई साहब; और पंक्चुअलिटी के बारे में भी कुछ तारीफ़ थी। उनके पिताजी - यानी बड़े भाई साहब ने पढ़ लिया और लौटने तक यही दु:ख पाले रहे कि "सब बर्बाद कर दिया लड़के ने"।
"लड़के" की पहली तन्ख़्वाह उनके पहले साल भर की तन्ख़्वाह से ज़्यादा है, "लड़का" पूरे बैच का प्यारा है, लड़का उस समारोह में अपने परिवार के छ्ह लोगों को ले जा सका था जिसमें "प्रति छात्र एक पास" का नियम लागू था - सो "लड़के" की भी हमीं से ज़्यादा पटती है। बचपन में तो पर्यटन पर जाने से इन्कार कर देता था बालक अगर "फूफाजी" न जा रहे हों तो।
और अब यहाँ देखो - हमें समर्पित ही कर डाली पोस्ट - "लड़के" ने।
जियो तात! वत्स! आर्य! विजयी भव।
मतलब यह कि बहुत अच्छा लिखा है तुमने - सो हम ज़रा बहक गए। लिखा तो उस पोस्ट में भी मारू था - जो लिंक देखने के बाद भी हम दुबारा जाने का मन नहीं बना पाए।
बहुत बढ़िया।

अनूप शुक्ल said...

जय हो।

सिद्धार्थ की इच्छायें पूरी कर देना और बि द वे यू आर।

मजेदार पोस्ट!

जय हो।

अपूर्व said...

सो कैसा चल रहा है आसमान का ’पेशा’ आजकल..खैर स्लैमबुक के बहाने दोस्तों की बिगड़ैलपन की परते सरेआम उघाड़ने के लिये आप ’स्लैमिंग’ के पात्र हैं..वैसे देखें तो जिंदगी खुद मे भी एक स्लैमबुक जैसी ही होती है..कि उम्र का हर पन्ना ऐसे रिश्तों की खट्टी-मीठी यादों ए सराबोर होता है...और किसी मोड़ पर वक्त मिलने पर जिंदगी की इस स्लैमबुक के कुछ पन्ने पीछे पलटने पर दोस्ती की वे तमाम खुशबुएँ पन्ने से निकल कर जकड़ लेती हैं जो जिंदगी मे उस उम्र मे दाखिल हुई होती हैं... वैसे अभी तो कई और स्लैम्बुक्स भरी जानी बाकी हैं ना? ;-)

Anita kumar said...

वो गाना यादa अ रहा है ' मैं देर करता नहीं देर हो जाती है'…॥दो्स्तों के कमैंट्स पढ़ के मजा आ गया।

Abhishek Ojha said...

है तो अपने पास भी लेकिनपब्लिश नहीं कर सकता :) और मैं स्योर हूँ काट-छांट तो यहाँ भी हुई है.

anupama said...

main aaj yeh phir se padh rahi thi.. :) bahut hi acha laga :)

monali said...

POst k sath sath comments bhi mazedaar... :)

wow gold said...

Great, great, great and – did I forget something? Oh, yeah: Great! thanks for sharing that with us.