बगल में रखा मोबाईल वाईब्रेट कर रहा है……
स्क्रीन पर आदित्य का नाम फ़्लैश कर रहा है और कमरे के उस घुप्प अँधेरे में मोबाईल के स्क्रीन की बार बार जलती-बुझती उस रोशनी से रिया की आँखें चुभ रही हैं । पिछले एक हफ़्ते से यह सिलसिला बदस्तूर जारी है। हर रात रिया घंटों उस नम्बर को फ़्लैश होते देखती रहती है और आदित्य उन कॉल्स को तड़प तड़पकर मरते…
उस दिन आदि की आवाज़ में कितनी बैचेनी थी… एक हताशा थी… एक हार थी। मुम्बई की रोज की दौड़ में उस दिन वो शायद पिछड़ गया था… या शायद दौड़ा ही नहीं था। दौड़ा नहीं तो थका भी नहीं … इसलिये उसे नींद नहीं आयी होगी। सोने की भरपूर कोशिश करने के बाद भी जब बिस्तर की सिलवटों को किसी और की कमी खली होगी, तब उसने मुझे रात के उस तीसरे पहर कॉल किया होगा…। ह्म्म… अपने खालीपन को पूरा करने के लिये… उसी के लिये ही…
ये सब सोचते हुये रिया अपने अँधेरे कमरे की खिड़की खोल देती है और उस खिड़की से दूर दिखती लैम्पपोस्ट को एकटक देखती रहती है।
’अँधेरे को उजाला आसानी से चीरता है या उजाले को अँधेरा” ये सोचते सोचते, वो भी कहीं बहुत भीतर से, उसी लैम्पपोस्ट की रोशनी से, धीरे धीरे चिरती जाती है। धीरे धीरे, लैम्पपोस्ट की वो रोशनी भी जलने-बुझने लगती है। आदित्य का नाम वहाँ भी फ़्लैश होने लगता है।
……आदित्य कॉलिंग
दीवाल घड़ी रात के दो बजा रही है। मुम्बई की जादुई बारिश भी शुरु हो गयी है…
उस रात भी तो बारिश ही थी न जब आदि मुझे भिगोता चला गया था। आदि की कल्पनाओं में कितनी वास्तविकता थी, कितनी विविधता थी और उसका कहने का अंदाज़… उस रात वो जो भी आब्जेक्ट्स दिखा रहा था, वो मुझे दिखते थे। मै उसकी कल्पनाओं में बहती जाती थी… मैं उसका सुनाया अपनी बंद आँखों के आसमान में देख रही थी… उसकी बातों से ज़ेहन में नये नये स्केचेज़ बनते जाते थे। ज़ेहन के किसी एक कोने मे ’सही/गलत’ की बातें भी सर उठाती दिखती थीं… उसे भी दिखती होगीं लेकिन जिसे दिखती थीं वो दूसरे को उसका दिखना कहाँ बताता था… वो बस बातें करता जाता था… कुछ कुछ छिपाता… कुछ कुछ बताता। ’सही/गलत’ मुझे सिर्फ़ ताकते रह जाते थे… मैंने भी उनसे आँखें न मिलाकर नीची ही कर रखी थीं…
…और,
और, अगली सुबह ज़िंदगी उस कमरे में बिखरी पड़ी थी। रात की खरोचें दर्द तो दे रही थीं लेकिन दिखती नहीं थीं। उनींदे ही, सबसे पहले उसने खुद को एक आईने मे देखा था। आँखें, चिटके हुये कई ख्वाबों से भरी हुयी थीं और चेहरा रात हुये किसी कत्ल का गवाह सा दिखता था। उस कमरे मे कोई लाश नहीं थी… खून के निशान भी नहीं थे… उसके शरीर पर खरोचें भी नहीं थीं… बस मन में ’सही/गलत’ को सोचता हुआ एक गिल्ट था। एक बोझ था जिसकी वजह से वो अपने आप से दबी जा रही थी… उसे एक एकांत चाहिये था… मौत सरीखा काफ़्का का एकांत…
बाहर बारिश अभी भी जारी है। रिया और लैम्पपोस्ट की रोशनी के बीच बारिश की कुछ बूँदें आ जाती हैं। रिया उन्हे पकड़ने के लिये हथेली खोलती है… हथेली पर रोशनी की एक चादर सी है और उस चादर में बारिश की बूँदें इकट्ठी होने लगती हैं… वो धीरे धीरे मुट्ठी बंद कर लेती है…
वो उस बारिश मे जमकर भीगना चाहती है… वो कमरे से बाहर आकर आसमान की तरफ़ देखते हुये अपने हाथों को पंख जैसे फ़ैला लेती है… सारी बारिश को खुद में समा लेना चाहती है… वो खुद एक ’मुट्ठी’ बन जाना चाहती है…
उस बारिश में रिया, ’मुट्ठी’ के जैसे खुलती, बंद होती है… उस बारिश मे रिया उड़ती है… भीगती है… बहती है… रोती है… खूब रोती है…
…और उस रात मुम्बई पानी से डूब जाती है॥
इधर अँधेरे कमरे में अभी भी मोबाईल की रोशनी जल-बुझ रही होती है
……आदित्य कॉलिंग
48 comments:
aur likho, khub likho.... lagataar likho bhai
@ ज़ेहन के किसी एक कोने मे ’सही/गलत’ की बातें भी सर उठाती दिखती थीं… उसे भी दिखती होगीं लेकिन जिसे दिखती थीं वो दूसरे को उसका दिखना कहाँ बताता था… वो बस बातें करता जाता था… कुछ कुछ छिपाता… कुछ कुछ बताता। ’सही/गलत’ मुझे सिर्फ़ ताकते रह जाते थे… मैंने भी उनसे आँखें न मिलाकर नीची ही कर रखी थीं…
@ उस बारिश में रिया, ’मुट्ठी’ के जैसे खुलती, बंद होती है… उस बारिश मे रिया उड़ती है… भीगती है… बहती है… रोती है… खूब रोती है…
…और उस रात मुम्बई पानी से डूब जाती है॥
इधर अँधेरे कमरे में अभी भी मोबाईल की रोशनी जल-बुझ रही होती है
……आदित्य कॉलिंग
लम्हों को यूँ क़ैद करना बहुत जँचा।
@ मौत सरीखा काफ़्का का एकांत…
आप ने The Trial और Plague पढ़े क्या?
रिया और लैम्पपोस्ट की रोशनी के बीच बारिश की कुछ बूँदें आ जाती हैं। रिया उन्हे पकड़ने के लिये हथेली खोलती है… हथेली पर रोशनी की एक चादर सी है और उस चादर में बारिश की बूँदें इकट्ठी होने लगती हैं… वो धीरे धीरे मुट्ठी बंद कर लेती है…
bahut badhiya pankaj, anand aaya.
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Beautiful post !
I lived the moments .
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pankaj tum ek orat ke mn ko itne sunder tarike se jan skte ho,ye aaj ki post padh kr lga,or kya khu...behatreen hai.
बहुत ही अच्छा लिखा है, कालिंग.... क्या सीन है
बहुत ही अच्छा लिखा है, कालिंग.... क्या सीन है
ये तो पता नहीं कि तकनीकी रूप से तुमने देखा हो आलेख को या नहीं। मुझे लगा कि दिल से - एक रौ में लिखा है तुमने।
पहली बात - बीच में 'रिया' से 'मैं' पर आना - 'थर्ड पर्सन' से 'फ़र्स्ट पर्सन' में ले आता है। यानी आत्मालाप में बदल जाती है क़िस्सागोई।
दूसरी बात - ये विधा 'स्क्रीनप्ले' के अंतर्गत 'सीन' लिखने के ज़्यादा क़रीब है। यह गद्य-कविता या गद्य-गीत नहीं है, और न ही ये संस्मरणात्मक है, न लघुकथा। बहुत से लोग इसे लघुकथा की श्रेणी में रखेंगे, मगर वो टेक्निकली ग़लत है।
तीसरी बात - तुम्हारे विजुअल्स बहुत जीवन्त थे - सीन जी लिया होगा सारे पाठकों ने। इसे गुलज़ार मंज़रनामा कहते हैं।
चौथी बात - कि ये मुझे अच्छा लगा - इतना कि मैं इस सीन को - जो क्रिएट तो तुमने कर ही दिया है अपने मंज़रनामे में - 'सीन' के रूप में लिखने की कोशिश करूँगा, और लिख पाऊँगा तो तुम्हें मेल कर दूँगा।
और पाँचवीं बात - कि मैं भी इसे बज़ पर रि-शेयर करने जा रहा हूँ।
अब छ्ठी बात - बारिश पर सतीश पंचम ने भी बढ़िया लिखा है आज - बिना किसी पात्र के - सिर्फ़ क़ुदरती नज़ारे पर। वो भी देखने के क़ाबिल है। अगर एक ही फ़िल्म में डालने हों तो दोनों सीन डाले जा सकते हैं - बस पंचम की जगह तुम्हारे 'आदि' को बैठाल देना है - बस में - और सीन दिन से रात में ले जाना है। थोड़ा सा फ़र्क़ कर देंगे कि बस इसलिए खड़ी है कि रास्ता भर रहा है पानी से - मुम्बई के लिए आम सी बात होगी, और सीन को दिन से रात में ट्रांसफ़र कर देंगे।
अब लगता है कि कोई कुछ भी लिखे - सब को जोड़कर कहानी बना लूँगा मैं। शायद इसी कॉन्फ़िडेन्स से ख़ुद भी किस्सागोई शुरू कर पाऊँ। बढ़िया लिखते हो यार! मज़ा आ गया…
Wonderful... saara scene aankho k saamne tha... i m nt sure if i was reading it or seeing it or... living it.... loved it...
भाव जितनी बार कहानी में डूबा, हर बार तलहटी छूकर आया, हर बार अधिक गहराई।
waah abhi fir aaunga ......
पसंद करने का बटन लगा दो करके चले जायेंगे. ऐसी पोस्ट पर टिपण्णी लिखने लगे तो... छोडो आगे नहीं लिखता. रात को खिड़की पर बैठ के थोड़ी और देर बारिश देखो... और एकाध और पोस्ट ठेलो.
@6446091533102871723.0
गिरिजेश जी,
काफ़्का को अलग से बैठकर तो अब तक नही पढा है लेकिन यहा जिस ’एकान्त’ का जिक्र है उसके लिये काफ़्का ने एक बहुत खूबसूरत बात कही थी..
"मुझे अपने लिखने के लिए जो चीज़ चाहिए- वह है एकान्त।किन्तु एक संन्यासी का एकान्त नहीं, वह काफी नहीं होगा; मुझे चाहिए- एक मृतक का एकान्त। इस अर्थ में लेखक मेरे लिए एक ऎसी नींद है, जो मृत्यु से भी ज़्यादा गहरी है और जिस तरह हम मृतक को उसकी क़ब्र से खींचकर बाहर नहीं ला सकते, उसी तरह रात की घड़ी में मुझे अपनी डेस्क से खींचकर कोई नहीं ले जा सकता।"
आभार मानव कौल का एक खूबसूरत कथन से परिचय करवाने के लिये..
काफ़्का मेरे ’टेन थिन्ग्स टु रीड बिफ़ोर आई डाई’ लिस्ट मे तो शामिल है.. किताबो का नाम बताने का शुक्रिया.. किस्मत रही तो जल्द ही पढता हू..
रिया के मन पर उसके गिल्ट ने जो खरोंचे डाली थीं...रोशनी की चादर में सिमटी बूंदों ने जरूर राहत पहुंचाई होगी
सुन्दर रचना...
@25610187473848529.0
हिमान्शु जी,
कायल हो गया आपकी बारीकी से चीजो को देखने का... पहले इस स्क्रीनप्ले को थोडा कहानी का टच देने की कोशिश की थी लेकिन वो ड्राफ़्ट बहुत कन्फ़्यूजिग था। कुछ लोगो को पढवाया और फ़िर ’रिया’ के नज़रिये से सबकुछ देखने की कोशिश की.. बीच बीच मे लेखक का पर्सपेक्शन भी लाने की कोशिश की..
गलती बताने का शुक्रिया... अभी ठीक करने की कोशिश की है।
सतीश जी की पोस्ट अक्सर मेरे टैब्स मे ही खुली रह जाती है। :( उन्हे अकसर वन गो मे ही पढना हो पाता है.. पोस्ट के साथ उनकी टिप्पणिया उनकी पोस्ट्स की जान होती है..
बस ऎसे ही मार्गदर्शन करते रहिये... जरूरी है मेरे लिये।
उस बारिश में रिया, ’मुट्ठी’ के जैसे खुलती, बंद होती है… उस बारिश मे रिया उड़ती है… भीगती है… बहती है… रोती है… खूब रोती है…
…और उस रात मुम्बई पानी से डूब जाती है॥
शायद बहुत ज़रूरी था उस रात बारिश का होना... मुम्बई पानी में ना डूबती तो सही/ग़लत को सोचता हुआ वो गिल्ट, वो बोझ रिया को डुबा देता...
अमेज़िंग राइटिंग पंकज... इमोशंस की इस सतरंगी बारिश में भीगना बहुत अच्छा लगा :)
@1844393373402825329.0
अभिषेक,
पसन्द करने का बटन लगाया तो है लेकिन पोस्ट के नीचे लगाया है :)
बहुत ही स्वीट सा कमेन्ट! थैन्क यू :)
हू इज रिया?
इतनी देर लगी आने में कि अब जो लिखूँ बासी सा लगेगा... पोस्ट पढी, फिर सारे कमेंट्स पढे.. फिर लगा सब कहा जा चुका है... अपने कमेंट्स ज़हन से फाड़कर फेंक देने कि तबीयत होती है कि उठ जाऊँ यह कहते हुए कि हो गया मुशायरा... सारा सीन नज़रों के सामने से गुज़र गया.. एक स्केच बनाया है आपने...जिसपर नज़रें फ्रीज़ हो जाती हैं... लगता है बगल वाले फ्लैट की बाल्कनी पर रिया है और मोबाईल काँपता हुआ बारिश की सर्द हवाओं से औंधे मुँह पड़ा है बेड पर... बहुत ख़ूब!!
सीमोन द बुआ ने लिखा है कि "औरत पहले मिलन की बाद भयानक रूप से अवसाद का शिकार हो जाती है"... या फिर तुमने इस बारे में पढ़ा है और या फिर इन लम्हों को जिया है या फिर तुम इतने अधिक संवेदनशील और कल्पनाशील हो कि औरत के मन को इतनी ख़ूबसूरती से समझ पाए जैसा कि भावना ने लिखा है...
जो भी हो गजब कहानी है... और कमेंट्स भी. हिमांशु जी सच में बहुत सूक्ष्मदर्शिता से पोस्ट पढते हैं और सटीक टिप्पणी करते हैं.
और सतीश पंचम जी की पोस्ट मुझे भी बासी ही अच्छी लगती हैं, टिप्पणियों के साथ...ज्यों बासी आलू का पराठा ताजी चटनी के साथ.
@3597355380705137831.0
पीडी,
Ask Adi na? He should be knowing her very well..
farmaish poori karne ka shukriya.network cnnection main problem thi isliye der se padh paa rahi hoo.
heran hoon ki itni kam umr main itni gahrai se kaise soch lete hain aap
sundar rachna ki badhai.
एक एक दृश्य कुछ आड़ दिलाता सा लगा "हर रात रिया घंटों उस नम्बर को फ़्लैश होते देखती रहती है और आदित्य उन कॉल्स को तड़प तड़पकर मरते…"
काल्स को मरते देखना बहुत पीड़ा दाई होता है ..और हर कॉल के मरने से शुरू होता है बुरी कल्पनाओं का लंबा दौर
नारी मन को इतनी गहराई से कहाँ से समझा आपने ..बहुत खूब
I would like to be quite...Mature writing :-)
lajwaab kar diya aapki is post ne ...bahut pasnad aayi yah ..
हम्म!! रिया....बहुत उम्दा चित्र खींचा है..वाह!
अच्छा लेखन...... साथ में मुझे एक कहानी का मैटर देने के लिए आभार.. :)
क्या कहूं। निशःब्द हूं।
एक बार आया पढ़ा और चला गया .. अब रिया की मुट्ठी की तरह भाव बंद से हैं .. कोई बारिश जरूरी होती है न , उड़ने , भीगने , बहने ..... के लिए ! .. कहानी में पिरोई 'न-नुकुर' अच्छी लगी ! .. भाई कितना सोच के लिखते हो , क्या भोक्ता होना जरूरी है लेखक के लिए !
’सोने की भरपूर कोशिश करने के बाद भी जब बिस्तर की सिलवटों को किसी और की कमी खली होगी, तब उसने मुझे रात के उस तीसरे पहर कॉल किया होगा…। ह्म्म… अपने खालीपन को पूरा करने के लिये… उसी के लिये ही…’
अब्स्ट्रैक्ट सी पोस्ट...भीड़ भरे शहरों मे यांत्रिक जीवन जीते लोग जीवन मे जितना व्यस्त होते जाते हैं..अंदर का एकांत उतना ही बढ़ता जाता है..हम अपने-अपने एकाकीपन को एक दूसरे से बाँटने की आतुर कोशिशें करते हैं..और इसी कोशिश मे कुछ लोगों को दूसरों के हिस्से का एकांत भी भोगना पड़ जाता है..अपने जीवन मे ऐसे बहुत सारे ब्लैंक्स बने रहते हैं..बस अपनी जगह बदलते..
दो-तीन बार पढ़ने के बाद भी कोई चौकस जुमला सोच नहीं पाये। इसलिये यही कह दे रहे हैं-खतरा पोस्ट। तुम्हारा सुझाया शब्द तुमको ही वापस। त्वदीयं वस्तु गोविन्दम तुभ्यमेव समर्पयामि।
कहां-कहां ठहलते रहते हो। क्या-क्या कल्पनायें करते रहते हो। सुन्दर।
Kal halki halki barish thi
Kal sard hawa ka raqs bhi tha
Kal phool bhi nikhray nikhray thay
Kal un pe aap ka aks bhi tha
Kal badal kalay gehray thay
Kal chand pay lakhon pahray thay
Kuch tukray aap ki yaad kay
Bari dair say dil main thehray thay
Kal yaadain uljhi uljhi thin
Aur kal tak yeh na suljhi thin
Kal yaad bohut tum aye thay
KAL YAAD BOHUT TUM AYE THAY
Baar-2 padha aur fir......no words...
संकल्प की ईमेल से टिप्पणी..
:-)
Bahut hi zabardast kahani hai mere dost....
Kahani hai ya aapbeeti maaloom nahin lekin.... choo gayi....
Meri taraf se fir se bahut moti moti 5-6 gaaliyan... :-)
God Bless You....
"…और उस रात मुम्बई पानी से डूब जाती है॥"
कितना वजन रखा है साब..??
कितना...??
मुंबई क्या, दिल्ली भी डूबी दिखती है अभी तो....
वैसे तो इतनी देर से कहने को कुछ बचता नहीं है, पर "बहुत खूब" तो रख ही लें जनाब.
"अँधेरे को उजाला आसानी से चीरता है या उजाले को अँधेरा” ये सोचते सोचते, वो भी कहीं बहुत भीतर से, उसी लैम्पपोस्ट की रोशनी से, धीरे धीरे चिरती जाती है। धीरे धीरे, लैम्पपोस्ट की वो रोशनी भी जलने-बुझने लगती है। आदित्य का नाम वहाँ भी फ़्लैश होने लगता है।
चल्चिरता है भाई, रिवाईंड करके देखते हैं...फिर से आयें शायद...
ऊपर चलचित्र पढ़ें..
’सोने की भरपूर कोशिश करने के बाद भी जब बिस्तर की सिलवटों को किसी और की कमी खली होगी, तब उसने मुझे रात के उस तीसरे पहर कॉल किया होगा…। ह्म्म… अपने खालीपन को पूरा करने के लिये… उसी के लिये ही…’हमारे जीवन के संदूक का यही हाल है.हम नहीं चाहते कि उसमें कोई भी जगह खाली रह जाये.खाली जगह में हम कोई न कोई चीज़ जरूर ठूंस लेते है.
…और उस रात मुम्बई पानी से डूब जाती है और रिया अपने अंदर के तुफानो में...
अच्छा रिया के बारे में नहीं बताना न सही पर who is aadi ? :)
सुबह सुबह ऐसा सीन…
ऐसा कैसे लिख लेते हैं भाई जान!! बहुत मस्त लगता है… कभी मैं भी कोशिश करूँगा…
वैसे सच बताइये
ये रिया कौन है? पी डी सर से "पर्सनल डि्स्कशन" :) और हमारे जैसे श्रोतागण क्या करें?
I am tottaly speachless...
आप बहुत इमोशनल हैं ...और वैसे ही अनगढ़ इमोशन्स लिख देते हैं... और आपकी लेखनी में इमोशंस की सच्चाई अंदर तक छू जाती है।
adbhut mansthitee kee pakd aur abhivykti......
आज दिनांक 28 अगस्त 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर समांतर स्तंभ में आपकी यह पोस्ट मुंबई की एक रात शीर्षक से प्रकाशित हुई है, बधाई। स्कैनबिम्ब देखने के लिए जनसत्ता पर क्लिक कर सकते हैं। कोई कठिनाई आने पर मुझसे संपर्क कर लें।
@8439140587261998271.0
Avinash ji, link dene ke liye dhanywaad..
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