Sunday, February 6, 2011

नोट्स…

Nirmal_Verma___Kathakar__Muzib

1- मैं सोचता हूँ कि पहाड़ सालों तक एक जगह कैसे रह लेते हैं… बिना कहीं गये सिर्फ़ एक जगह… और इसके विपरीत नदियाँ जाने कहाँ से कहाँ तक आती जाती रहती हैं… कितने तो रूप बदलती रहती हैं… बहती रहती हैं…। शायद तब मैं सो रहा था इसलिये मुझे सही से याद भी नहीं कि जाने कब किसी ने मेरे भी पैरों में नदी बाँध दी थी …और तबसे मुझे पहाड़ अच्छे लगते हैं… भीतर किसी दावानल को समेटे हुए जो हर पल सुलगते रहते हैं… भीतर जलते रहते हैं… अकेले… अधूरे… उदास…।

 

2- उस दिन जब वो पारदर्शी काँच के उस पार थी, मैं उसे देख सकता था… उसे महसूस कर सकता था… उसके होठों को पढ सकता था… लेकिन हाथ बढाकर भी उसे छू नहीं सकता था…

आज उसे किचेन में देखते हुये मुझे उसके पारदर्शी शरीर के पार एक दुनिया दिखती है…  उसके सपनों की एक दुनिया… मैं उस दुनिया को महसूस कर सकता हूँ…  । आज मैं उसे भी स्पर्श कर सकता हूँ लेकिन उसके पार वो दुनिया फ़िर अनछुयी रह जाती है…।

 

3- मेरी खिडकी के बाहर के रंग सामान्यत: एक जैसे ही रहते हैं… पर रोज उसकी आँखों में एक अलग मौसम होता है। उसकी आँखें रंग बदलती हैं और काफ़ी हद तक मेरे घर के भीतर के मौसमों को भी…। उसे गौर से देखता हूँ… वो दिनभर मेरे इस घर में जैसे एक खेल खेलती रहती है। वो अपने मौन से बात करते हुये कहती है कि ‘ही लव्स मी‘ और फ़िर मेरे भी मौन रह जाने पर जैसे एक सोच में डूब जाती है  कि ‘ही लव्स मी नॉट‘…

मैं उसके इन रंगो की तितलियाँ बनाना चाहता हूँ जो इस बंद ब्लैक एन वाईट कमरे में रंगो की इकलौती उम्मीद सी उडती रहें…।

 

4- निर्मल को पढते हुये लगता है जैसे किसी ने काँच के कुछ टुकडे बिखेर दिये हों… उन टुकडों को पढो तो चुभते हैं और देखने पर सबको उनमें अपना अक्स ही दिखता है… उन्हें पढकर इस बात पर आश्चर्य होता है कि कम्बख्त अप्रैल में पैदा होने वाला एक और इंसान कितना अधूरा था…। निर्मल की कहानियां जितनी अधूरी और अकेली हैं उतनी ही उनकी कहानियों के पात्र और उतने ही उनके बीच बुने गये रिश्ते। कंप्लीटली इनकंप्लीट…  

 

मेरे कुछ नोट्स ‘निर्मल‘ के लिये…

तस्वीर मानव के ब्लॉग से

30 comments:

रजनीश तिवारी said...

निर्मल को मैं कभी नहीं पढ़ा ,अब लगता है पढ़ना चाहिए...नोट्स बड़े भावपूर्ण हैं !

rashmi ravija said...

लो..पोस्ट ख़त्म भी हो गयी...जैसे एकाध सिप लिया और ग्लास खाली...अब ग्लास उलट-पुलट कर कन्फ्यूज़ सा देख रहे हैं...बाकी की ड्रिंक कहाँ गयी....???

प्रवीण पाण्डेय said...

इन वाक्यों में एक अनजाना सा रहस्य दिखता है, कई मोड़ चलने के बाद सहसा कुछ पहचाना सा लगता है।

shikha varshney said...

हम यह ब्लॉग खोलते हैं ..पढ़ना शुरू करते हैं ..पूरा पढ़ जाते हैं ..और पढ़ना चाहते हैं ..कुछ रह गया है
अनपढ़ा सा ....

Ravi Shankar said...

"आज मैं उसे भी स्पर्श कर सकता हूँ लेकिन उसके पार वो दुनिया फ़िर अनछुयी रह जाती है…।"

उफ़्फ़्फ़……… बड़े हौले से बहुत गहरी पीड़ा व्यक्त कर दी। जब कभी यहाँ आता हूँ भीतर कुछ ठहर सा जाता है और जैसे मानस का कुछ हिस्सा देर तक यहीं खड़ा रहता है… आपको पढते,सुनते और सोचते।

Stay blessed !

richa said...

जाने कब किसी ने मेरे भी पैरों में नदी बाँध दी थी… और तबसे मुझे पहाड़ अच्छे लगते हैं…

आज मैं उसे भी स्पर्श कर सकता हूँ लेकिन उसके पार वो दुनिया फ़िर अनछुयी रह जाती है…

मैं उसके इन रंगो की तितलियाँ बनाना चाहता हूँ जो इस बंद ब्लैक एन वाईट कमरे में रंगो की इकलौती उम्मीद सी उड़ती रहें…

कंप्लीटली इनकंप्लीट…


अधूरापन भी इतना ख़ूबसूरत हो सकता है क्या ?... AWESOME... !!!

कुश said...

सारे ही नोट्स खाली कर गए.. मानव के ब्लॉग से लिया चित्र बोल रहा है.. शरीर की पारदर्शिता क्या क्या नहीं दिखा रही है इन नोट्स में.. लाजवाब दोस्त..!

डॉ .अनुराग said...

निर्मल से एक फेसिनेशन उम्र के एक दौर में रहा...कई दिनों.....कुछ महीनो तक.......छायावाद से निर्मल अपने लेखो में अक्सर अलग से दिखते रहे .....

"मैं उसके इन रंगो की तितलियाँ बनाना चाहता हूँ जो इस बंद ब्लैक एन वाईट कमरे में रंगो की इकलौती उम्मीद सी उडती रहें…।"
humm.....love this line.....

अप्रैल ने भी जैसे खाके खीच रखे है ..अलग अलग खानों के ...इस तारीख में इसको बिठाना है.....इस तारीख में इसे....
....सारी उम्र कुछ कुछ भरती जाती है भीतर.....एक आध खाना फिर भी छूटा रहता है ..खुदा की कुछ क्रिएटिवेटी ऐसी है .....गोया हर आदमी को लगता है .अभी कुछ अधूरा है !!

शायद उस कम्प्लीट शख्स को भी ऐसा लगता हो .....

सागर said...

पर मैं क्या कहना चाहता हूँ कि तुम किचेन में रहो और बेसिन में मैले हाथों को धोते समय चूरियों कि खनखनाहट हो, वो अपने आप बजे, जैसे अवचेतन में मेरी बहन/दीदी के बेखयाली में बजते थे,

कई बार हम दुःख को कम कर के देखने लगते हैं जबकि वो होता नहीं.

हमारे बूढ़े होने का कारण यही है कि जब जब, जो जो हमसे मिलने आया हम उससे नहीं मिले और वो हमारे चेहरे पर दर्ज होते गये...

प्राग पर सफ़ेद धुप छाई है, शहर का बर्फ सीने में जम गया है, ठंढ लगती है, खांसी होती है पर टुकड़ा फंसा का फंसा ही रहता है.

Abhishek Ojha said...

बढ़िया ! नोट्स ध्यान से बनाओ. हम फोटोकॉपी कराते रहेंगे :)

डॉ. मोनिका शर्मा said...

निर्मलजी की लेखनी बहुत भावपूर्ण है..... साझा करने के लिए धन्यवाद

डॉ. मोनिका शर्मा said...

आपकी लेखनी में उनके वैचारिक सन्दर्भ झलकते हैं.....ध्यानाकर्षण के लिए शुक्रिया .....मुझे तो लगा यह निर्मलजी के ही शब्द हैं.........

स्वप्निल तिवारी said...

kash ..aise hee sabke panv men nadi badnh jaaye..pahadon se pyar ho jaye....

मैं उसके इन रंगो की तितलियाँ बनाना चाहता हूँ जो इस बंद ब्लैक एन वाईट कमरे में रंगो की इकलौती उम्मीद सी उडती रहें…

ye baat man men ud rahi hai..aur jis kone se takra rahi hai ..wahaan rang lag ja raha hai,... :)

aise notes..to roz likho dost... :)

Sarika Saxena said...

नि:शब्द ............

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

@5759370164753476650.0

"....सारी उम्र कुछ कुछ भरती जाती है भीतर.....एक आध खाना फिर भी छूटा रहता है ..खुदा की कुछ क्रिएटिवेटी ऐसी है .....गोया हर आदमी को लगता है .अभी कुछ अधूरा है !!

शायद उस कम्प्लीट शख्स को भी ऐसा लगता हो ....."


बहुत प्यारा सा ’कुछ’ मिल गया डॉक्टर..

डिम्पल मल्होत्रा said...

पहाड़ों का अकेलापन,उदासी उदास कर गयी..:-(

black and white ज़िन्दगी में यादों की तितिलियाँ ही रंग भरती है.. कांच के टुकड़े जितने हो जाये अक्स उतने ज्यादा हो जाते है पर जो चूर-चूर हो जाये तो...?


कहीं पैरो में पहाड़ बंधने की बात होती है तो कहीं नदी ही बंधी जा रही हूँ..;)

Pankaj Upadhyay (पंकज उपाध्याय) said...

@3580403392093868766.0
डिम्पल,
जिन्होने अपने पैरों में पहाड बाँधे थे, वो उनके वजन से परेशान होकर अब जूतों पर लौट आये हैं... रही नदियां बाँधने की बात तो सोचा पहाड पुराना हुआ, कुछ नया फ़ैशन में लाया जाय :-)

वैसे हम भी कब एक जगह टिकते हैं जैसे ज़िंदगी जाने जाने कहाँ कहाँ से बहाये लिये जाती है और कहीं किसी रोज किसी अनजान समन्दर में पटक देगी.. न जाने वो कैसी दुनिया होगी या दुनिया होगी भी कि नहीं.

Neeraj said...

"लतिका ... वह तो बच्ची है, पागल ! मरने वालों के संग खुद थोड़े ही मरा जाता है |"
यार यही लाइन बहुत है शायद |
सच बताऊँ तो बहुत सिम्पल लाइन है, लेकिन पता नहीं क्यूँ, वो हालात, वो वक़्त जब ये लाइन आती है, बस घायल कर जाती है |

मार्लोन ब्रांडो कहता भी है कि बहुत सारे सीन, बहुत सारे बेहतरीन डायलोग को पब्लिक पूछती भी नहीं है, उन्हें सिर्फ वही सीन याद रहता है, जिसमे वो अपने आप को रिलेट कर पांएँ |

बीते वक़्त के साथ हम सब भी तो बीतते रहते हैं

नीलिमा सुखीजा अरोड़ा said...

निर्मल की कहानियां जितनी अधूरी और अकेली हैं उतनी ही उनकी कहानियों के पात्र और उतने ही उनके बीच बुने गये रिश्ते। कंप्लीटली इनकंप्लीट…

तभी तो है न होकर भी नहीं होना

अपूर्व said...

यह किरचें देर तक चुभने वाली हैं..जो चुभने से पहले नजर तक नही आती..अंदर के मौसम के अलग-अलग रंग होते हैं..हर मौसम का जुदा..इमोशन्स के मास्टर पेंटर्स ही उन रंगों से एक मुकम्मल तस्वीर बनाते हैं..तब हम जान पाते हैं कि वो सब थे हमेशा से..हमारे ही भीतर..और उतनी ही शिद्दत से...अधूरेपन का की ब्रांड नही होता..थोडे अधूरे होते हैं हम सब..उसी के संग जीना होता है..निर्मल को पढ़ते हुए हमारी स्मृतियों के जंगल की हवा जैसे जैसे गाढ़ी से होने लगती है..वैसा ही महसूस होता है..इसे पढ़ते वक्त..सही है..कोई मंटो के बुखार मे तप रहा है..तो किसी को निर्मल की बीमारी के इलाज की दरकार..ऐसा ही रहे ब्लॉग का मौसम..
और यह नया नाम..कुछ जादूगर के कैची विज्ञापन सा लग रहा है..हम भी देखेंगे तमाशा!! :-)

वन्दना महतो ! (Bandana Mahto) said...

निर्मल जी को अभी तक तो नहीं पढ़ पाई हूँ. लेकिन अब जरूर पढ़ना चाहिए. बहुत सुकून सा लगता है . पता नहीं क्यूँ?

abhi said...

वाह दोस्त...कमाल है :)

Fauziya Reyaz said...

kyaa likhaaa hai...kamaal

VIVEK VK JAIN said...

likha bahut achha gya....lekin ye aapne likha ya nirmal varma ji ne?

VIVEK VK JAIN said...

likha bahut achha gya....lekin ye aapne likha ya nirmal varma ji ne?

Dinesh pareek said...

होली की आपको बहुत बहुत शुभकामनाये आपका ब्लॉग देखा बहुत सुन्दर और बहुत ही विचारनीय है | बस इश्वर से कामनाये है की app इसी तरह जीवन में आगे बढते रहे | http://dineshpareek19.blogspot.com/
http://vangaydinesh.blogspot.com/
धन्यवाद
दिनेश पारीक

Rajeysha said...

मुझे जलती झाड़ी कहानी याद है।

देवेन्द्र पाण्डेय said...

..शानदार।
जन्म दिन की ढेर सारी शुभकामनाएँ।

संजय कुमार चौरसिया said...

जन्म दिन की ढेर सारी शुभकामनाएँ।

बाबुषा said...
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